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क्षितिज

शान्तिनाथ देसाई

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :221
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1316
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है कन्नड़ मूल कहानी संग्रह...

Kshitij

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

शान्तिनाथ देसाई की कहानियों में पारंपरिक नैतिकता के आयामों का विस्तार हुआ है। जीवंतता से इन्हें विशेष मोह है और स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के संदर्भ में इनका लेखन अत्यन्त प्रखर हो उठता है जीवन के प्रति इनका गहरा लगाव है और इसके बारे में उतनी ही गहरी समझ भी। इसलिए इन्होंने जीवन में सार्थक समन्वय को सदा महत्व दिया है। तभी जीवन में उपलब्धि के प्रश्न इनकी कहानियों में बार-बार उमड़ते हैं। साथ ही इनके लेखन में बड़ा आकर्षक संयम है। पारस्परिक मूल्यों से इनको असंतोष है लेकिन यह कहीं भी क्रोधावेश का रूप नहीं लेता। देसाई बड़े निष्पक्ष कलाकार हैं। और इनकी कहानियों की संरचना बड़ी उदेश्यपूर्ण होती है। आधुनिक कन्नड़ कहानी का रूप संवारने और निखारने में शान्तिनाथ देसाई का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

भारतीय ज्ञानपीठ के लिए यह गौरव की बात है कि वह ऐसे सशक्त लेखक की कहानी-संकलन हिन्दी जगत् को समर्पित कर रहा है।

प्रस्तुति


भारतीय ज्ञानपीठ विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य मनीषियों और लेखकों की कृतियों के हिन्दी अनुवाद के प्रकाशन में विशेष रूप से सक्रिय है। प्रत्येक साहित्यिक विद्या के अग्रणी लेखकों की कृतियाँ या संकलनों को सुनियोजित ढंग से हिन्दी जगत् को समर्पित करने का कार्य प्रगति पर है। इस कार्यक्रम के अन्तर्गत हाल ही में प्रकाशित पुस्तकों का जो स्वागत हुआ है उसके लिए हम साहित्य-मर्मज्ञों और पाठकों के अन्तर्गत आभारी हैं। इससे हमारी योजना को बल मिला है और हमको प्रोत्साहन।

‘भारतीय कहानीकार’ श्रृंखला में कन्नड़ के प्रख्यात लेखक शान्तिनाथ देसाई के कहानी-संग्रह के हिन्दी रूपान्तर का प्रकाशन ज्ञानपीठ के लिए प्रसन्नता की बात है। डॉ० देसाई प्रतिभा-धनी साहित्यकार हैं। उन्होंने सभी विधाओं में सफल लेखन किया है पर विशेष रूप से यह कथाकार और आलोचक हैं। इस संकलन की कहानियों का चयन स्वयं डॉ० देसाई ने किया है इस पुस्तक का अनुवाद भी आर-नारायण ने किया है, जिनकी कन्नड़ के अधिकतर शीर्षस्थ लेखकों का हिन्दी पाठकों से परिचय करवाने में सक्रिय भूमिका रही है। बी.आर. नारायण ज्ञानपीठ से बहुत पुराने संबंध हैं एक प्रकार से वह ज्ञानपीठ के पुराने सदस्य ही हैं। बिना उसकी सहायता के उत्कृष्ट कन्नड़ साहित्य को हिन्दी पाठकों तक पहुँचाना हमारे लिए कठिन होता। इतने बहुमूल्य सहयोग के लिए मैं उनका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ।

सदा की ही भांति ज्ञानपीठ के मेरे सहयोगियों नेमिचन्द्र जैन, चक्रेश जैन व सुधा पाण्डेय ने इस पुस्तक के प्रकाशन में विशेष रूचि ली है; मैं उनका कृतज्ञ हूँ। सुरुचिपूर्ण साज-सज्जा के लिए पुष्पकणा मुखर्जी मुद्रक के लिए अंबुज जैन का आभार मानता हूँ।

बिशन टंडन, निदेशक

भूमिका


कन्न्ड़ साहित्य में आधुनिक कहानी का आरम्भ भारत की अन्य भाषाओं की तरह ही 18 वीं शती के अन्त और 19 वीं शती के आरम्भ में हुआ। उसके विकास को स्थूल रूप से चार भागों में विभाजित किया जा सकता है-नवोदय युग (1900 से 1940), प्रगतिशील युग (1940 से 1950), नव्य युग (1950 से 1970-75) और दलित अथवा बण्डाय युग (1975)। यह एक मोटा-सा एक विभाजन है। ऐसा नहीं कि एक युग कि समाप्ति के बाद दूसरे का  आरम्भ हुआ, एक के बाद दूसरा साथ-साथ भी चला है। 1900 में ‘सुवासिनी’ नाम की पत्रिका में अनेक कहानियाँ प्रकाशित हुईं। इनमें पंजे मंगेशराय लिखित ‘कमलपुर के होटल में’ विशेष उल्लेखनीय है। लगभग इसी समय मंगलूर की तरफ के एम. एन. कामत  की ‘मल्लेशिय नल्लेपरू’ (मल्लेश की सहेलियाँ) को भी ख्याति मिली। केरूर वासुदेवाचार्य ने (1866-1922) स्वसम्पादित ‘सचित्र भारत’ पत्रिका में अपनी कहानियाँ प्रकाशित कीं जिसका कन्नड़ कहानी के विकास में ऐतिहासिक महत्त्व है।

आधुनिक कहानी की तकनीक उन कहानियों में न भी रही हो हास्य-रेखाचित्रण और संवेदनशीलता की इन कहानियों में प्रधानता है। यह स्पष्ट है कि कहानी के इस आरम्भिक विकास में पत्र-पत्रिकाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।

वास्तव में कन्नड़ कहानी का जनक श्रीनिवास (मास्ति वेंकटेश अय्यंगार) (1891-1985) को ही माना जाता है। मास्तिजी की पहली कहानी ‘रंगम्मो की शादी’ 1910 में प्रकाशित हुई। बाद में सन् 1920 ई० में उनका प्रथम संकलन ‘केलवु सण्ण कथेगलु’ (कुछ छोटी कहानियाँ) के नाम से प्रकाशित हुआ। फिर उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा और वे जीवन के अन्तिम दिनों तक लिखते रहे। उन्होंने 100 से भी ऊपर कहानियाँ लिखीं। उन्होंने आरम्भ से ही कहानी को एक नया रूप प्रदान किया जिससे किसी प्रकार ही अनिश्चिता नहीं है। कहानी की तकनीक और जीवन दृष्टि दोनों ही में प्रबुद्धता नज़र आती है। आलोचकों के अनुसार मास्ति के जीवन की छाप ‘कहानी कही गौतमी ने’, ‘हेमकूट से लौटने पर’, ‘एक पुरानी कहानी’, ‘परकाए प्रवेश’, ‘वेंकट की पत्नी’, दही वाली मंगम्मा’, वेंकटशामी का प्रणय’ आदि कहानियों में स्पष्ट दखाई देता है।

यह सभी कहानियाँ ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित मास्ति के कहानी संग्रह ‘परकाय प्रवेश’ में सम्मिलित हैं। कुछ लोगों का कहना है कि मास्तिजी रूढ़िवादी रहे। परन्तु यह संकुचित दृष्टिकोण की आलोचना ही कही जायेगी। जीवन की पीड़ा, विसंगति, अन्याय, दुष्टता आदि का बोध मास्ति को खूब था; अन्याय के शिकार होने वालो से मास्तिजी को सहानुभूति थी। जीवन सुखी और स्वस्थ होना चाहिए। यही उनका आदर्श था; और यह उनकी कहानियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। ‘वेंकट की पत्नी’ एक बड़ी ही क्रान्तिकारी कहानी है। वेंकट की पत्नी को वेंकट का मालिक रखैल के रूप में रख लेता है। कुछ समय बाद जब वेंकट की पत्नी बच्चा गोद में लेकर लौट आती है तब यह सन्देह उठता है कि बच्चा किसका है। पूछने पर वेंकट के मुँह से निकलता है, ‘‘बच्चा किसी का हो तो क्या ? वह तो बाल गोपाल होता है उसे पालने वाले भाग्यशाली होते हैं।’’

मास्ति का प्रभाव अपने समकालीन तथा बाद में आने वाली पीढ़ी कहानीकारों पर पड़ना स्वाभाविक था। प्रसिद्ध कहानीकार आनंद’ के गोपालकृष्ण राव, सी. के. वेंकटरामय्या, भारती प्रिय, अश्वत्थ, गोरूर रामस्वामी अय्यंगार, सम. वी. सीतारामय्या मास्ति के प्रभाव से ही कहानी के क्षेत्र में आये थे। मास्ति जैसी जीवन-दृष्टि न होने पर भी इन लोगों ने उनके कहानी लेखन के ढंग को अपनाया। उनमें सबसे प्रमुख कहानीकार आनंद (अज्जमपुर सीताराम, 1902-1962) थे। इनकी ‘नानु कोन्द हुडुगी’ (लड़की जिसे मैंने मार डाला) बड़ी ही प्रसिद्ध कहानी है। इसमें देवदासी प्रथा और उनके करुणापूर्ण जीवन की झलक मिलती है। दूसरा कहानियों में मध्य वर्ग के जीवन के साथ-साथ ग्रामीण जीवन का भी चित्रण है। कुछ कहानियाँ ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर लिखी गयीं। ग्रामीण जीवन तथा समस्याएं तथा उनके साहस का परिचय कराने वाले ये पहले कहानीकार हैं। ‘माल की हक’, ‘जाडर जानप्पा’ आदि कहानियों में प्रगतिशील कहानी का पुट मिलता है।

कन्नड़ में शुद्ध हास्य लिखने वाले पहले कहानीकार हैं गोरूर रामस्वामी अय्यंगार (1904) ‘कोर्टनल्लि गेद्द  एत्तु’ (कोर्ट में जीता बैल) इनकी एक बड़ी प्रसिद्ध हास्य कथा है। इसका सार है कोर्ट में जाने वाले पक्षधर और विपक्षी दोनों में कोई भी नहीं बीच वाला बैल जीत जाता है। यानी कोर्ट में आकर किसी को न्याय नहीं मिलता। कानून के बखेड़ों में न्याय कुछ और ही ढंग का मिलता है।

इसी युग में ए० आर० कृष्णशास्त्री, शंकर भट्ट, द० रा० बेन्द्रे, कुवेंपु आदि प्रसिद्ध साहित्यकारों ने भी कहानियाँ लिखीं। कुवेंपु के दो संकलन निकले। पहला ‘संन्यासी तथा अन्य कहानियाँ’ और दूसरा ‘मेरे भगवान् और अन्य कहानियां’।
इनमें ‘धन्वन्तरि की चिकित्सा’ तथा ‘बंधुवा मजदूर का बेटा’ विशेष उल्लेखनीय हैं। कुवेंपु में समाज के प्रति प्रतिबद्धता तथा दलित के प्रति सहानुभूति स्पष्ट रूप से परिलक्षित है। ‘धन्वन्तरि की चिकित्सा’ में दरिद्र किसान छाती के दर्द से तड़पता है तो किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं जाता। पर जब यह पता चलता है कि उसकी चिकित्सा करने वाले को सोने की अशर्फियाँ मिलती हैं तो बड़े-बड़े डाक्टरों और वैद्यों का ताँता लग जाता है। ‘बंधुआ मजदूर बेटा’ कहानी में मजदूर का आठ साल का लड़का घुप्प अँधेरी रात में बसरते पानी में मालिक का मछली वाला जाल लेने जाता है और साँप के डसने से मर जाता है। यह कहानी जैनेन्द्र कुमारजी की ‘अपना-अपना भाग्य’ की याद दिलाती है।

नवोदय युग के लेखकों के सामने कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं था फिर भी उनके लेखन के कुछ प्रेरक तत्त्व साफ दिखाई देते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से वह हमारे देश का बड़ा महत्त्व का समय था। भारत का समाज अपने आप को पहचानने लगा था। महापुरुषों ने हमारे सामने बड़े आदर्श रखे थे। समाज में सुधार और जागृति की एक लहर चल रही थी। स्वतन्त्रता संग्राम पूरी तीव्रता पर था उस समय के साहित्यकारों में क्रन्ति की दृष्टि अधिक उजागर नहीं थी। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप एक प्रगतिशील लेखक समुदाय उभरा।

अपने आपको प्रगतिशील कहने वाले लेखकों के एक वर्ग ने अ० न० कृष्णराय के नेतृत्व (1943) ई. में प्रगतिशील लेखक संघ की सथापना की। यह प्रेमचन्द के नेतृत्व में स्थापित अखिल भारतीय लेखक संघ के साथ जुड़ा था। नवोदय लेखकों का कहना था कि सामाजिक विषमता और शोषण के विरोध में लेखकों को आवाज उठानी चाहिए। उन्होंने नवोदय साहित्य के लेखकों की सुशिक्षित मध्य वर्ग के दिवास्वाप्नों को कलाभिव्यक्ति देने वाले कहकर अवहेलना की। ये सब लोग मार्क्स के साम्यवाद से प्रभावित थे। इन लोगों ने संस्कृति के नाम पर शोषित वर्ग को सुधारने के लिए सामाजिक क्रान्ति पर बल दिया।

अ० न० कृष्णराय (1908-1971) इस प्रगतिशील दल के नेता रहे। उन्होंने सैक्स के बारे में बहुत लिखा। साथ ही समाज में स्त्री के प्रति होने वाले अत्याचारों और शोषण को भी चित्रित किया। अ० न० कृष्णराय की ‘अन्नद कून्गू’ (अन्न की पुकार) एक अत्यन्त  मार्मिक कहानी है। अ० न० कृष्णराय ने प्रगतिशीलता के दायरे से हटकर कर्नाटक के प्रायः सभी लेखकों पर प्रभाव डाला। प्रगतिशीलता के सिद्धान्त को एक आदर्श बनाकर व और अधिक प्रतिबद्ध होकर अ० न० कृष्ण से भी एक कदम आगे आकर लिखने वाले कुछ लेखक हैं- को० चेन्नबसप्पा, बसवराज कट्टीमनी, निरंजन व त० रा० सु० प्रमुख हैं। चदुरंग और व्यासराय वल्लाल भी प्रगतिशील आन्दोलन से प्रभावित थे।

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