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महादेवी : प्रतिनिधि गद्य रचनाएं

रामजी पाण्डेय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :347
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1304
आईएसबीएन :81-263-1086-3

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प्रस्तुत संग्रह में महादेवी जी की प्रमुख गद्य-रचनायें अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएँ, क्षणदा, संकल्पित, साहित्यकार की आस्था, श्रृंखला की कड़ियाँ की चुनिन्दा रचनाएं संकलित है।

Mahadevi : Pratinidhi Gadya Rachanayen

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आभार

प्रथम संस्करण से
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के प्रसंग में प्रकाश्य पुस्तक ‘महादेवी : प्रतिनिधि गद्य-रचनाएँ’ के सम्पादन का दायित्व आयोजकों ने डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी को सौंपा था। इसकी सूचना मैंने डॉ. साहब को दी तो उन्होंने कहा, ‘‘अरे भाई, कई प्रकार के दबावों और आग्रहों के बावजूद अभी तक सम्पादन-कार्य से बचता आ रहा हूँ। यदि इसमें शुरू किया तो फिर आगे रोक पाना कठिन हो जायेगा। ऐसी स्थिति में आधा-आधा काम हम दोनों बाँट लेते हैं-यानी संकलन, सम्पादन तुम कर दो और भूमिका मैं लिख दूँगा।’’ और अन्त में जो उन्होंने कहा वह मेरे लिए अधिक महत्वपूर्ण है-‘‘इसी बहाने तुम्हारा भी नाम पुस्तक में चला जायेगा।’’ मैंने कभी नहीं सोचा था कि अनायास ही इस सुकृत्य का भागीदार बन जाऊँगा। चतुर्वेदी जी के स्नेह के कारण ही मैं किसी-न-किसी रूप में इस पुस्तक से जुड़ गया। उनकी इस उदारता के प्रति आभारी हूँ। बाद में परम आदरणीया महादेवीजी ने तथा भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने भी चतुर्वेदीजी के सुझाव का समर्थन कर मेरी स्थिति को यथावत् कायम रखा अतः उनकी इस भावना के प्रति भी कृतज्ञ हूँ। महादेवी जी के साथ रहकर कितना-कुछ पाया-उसमें एक कड़ी यह और है। आभार प्रदर्शन से उसका महत्व कम ही होगा। उनकी आशीष-पूर्ण स्नेह-छाया तो सदा है ही।

चतुर्वेदीजी का आदेश था कि -‘‘जो सामग्री पुस्तक में जानी है ठीक से पढ़ लो ताकि गलत न जाये।’’ (जो कि शायद जायेगी ही।) इस प्रकार दुबारा पढ़ने के क्रम में यह लगा कि- जो लोग यह मानते हैं कि ‘‘महादेवी के गद्यकार-रूप उनके कवि रूप से विचारों और शैली दोनों ही दृष्टि से थोड़ा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है’’ उनकी इस बात तथ्य है। बहुत प्रभावित करता है महादेवी का गद्य। मन के अन्तरतम में को छू लेता है। डॉ. लोहिया ने एक बार कहा था, ‘‘महादेवीजी भारत में सबसे अच्छा गद्य लिखती हैं। वे गद्य की राजकुमार हैं।’’

अपने अर्द्धशती से ऊपर लेखन-अवधि में महादेवी जी ने एकनिष्ठ होकर अबाध गति से अपने भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना में साथ-साथ संलग्न रहकर अपनी लिखी इस बात को सार्थक बनाया है-‘‘कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूँजी नहीं, भाव-सौन्दर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं।’’
पुस्तक में मेरा अपना कुछ नहीं है। मैं कर भी क्या सकता था, सिवा उपलब्ध सामग्री को सजा देने के। अन्त में कबीर के शब्दों में अपनी बात को समाप्त करना चाहूँगा :

‘‘मेरा मुझमें कुछ नहीं जो कुछ है सब तोर,
तेरा तुझको सौंपता क्या लागे है मोर !’’

गद्य: कवियों का निकष

प्रथम संस्करण से

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में आधुनिक काल को ‘गद्य-काल’ कहकर इस युग में गद्य की व्यावहारिक प्रतिष्ठा की ओर सही संकेत किया है। पर अपने आधुनिक साहित्य में क्या हम सचमुच गद्य का सम्मान करते हैं ? गद्य हमारे यहाँ एक तरह से नकारात्मक विभावन है। जो कुछ पद्यबद्ध नहीं, वह जैसे बेबसी में गद्य है। यों, इस ‘गद्य-काल’ में भी हमारी दृष्टि मूलतः कवितावादी है। गद्य का अस्तित्व किसी या किन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए है-गद्य में कहानी कही जा सकती है, नाटक बनते हैं, और आगे चलें तो यात्रा-संस्मरण-डायरी या फिर पत्रकारिता का गद्य है, पर गद्य की अपनी कोई निजी सत्ता नहीं, सम्प्रभुता नहीं। पुराने जमाने में पद्य की बहुत कुछ ऐसी ही स्थिति थी, पर एक सच्चाई यह थी कि पद्य और कविता में अन्तर किया जाता था। आज सब गद्य एक है, और उसका प्रयोजन दूसरों के लिए है। कविता की तरह यह आत्मनिर्भर और प्रभुत्ता-सम्पन्न नहीं है।

ऐसे में यह सचमुच एक प्रीतिकर विषय है कि छायावादी कवि-चतुष्टय की विख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा वैसे ही विख्यात, गद्य की भी रचयिता हैं। संस्कृत उक्ति की गद्य कवियों की परख के लिए कसौटी जैसा होता है, अनायास महादेवी के लिए चरितार्थ होती है। संस्कृत मनीषी ने ठीक ही यह सोचा होगा कि कविता रचना के लिए कई प्रकार के अनुशासन अपेक्षित होते हैं, जबकि गद्य उन बन्धनों से मुक्त है। तो बन्धनों को मानकर रचना आसान है बजाय बन्धनों को परे करके। यह आज भी देखा जा सकता है कि मुक्त छन्द की रचना छन्द-विधान से कुछ कठिनतर है। और तब यह आकस्मिक नहीं है कि हिन्दी में मुक्त छन्द के प्रवर्तक निराला ने आधुनिक में कठिन-से-कठिन छन्दों को बाँधा है अपने काव्य ‘तुलसीदास’ में। और उनके समूचे कृतित्व में मुक्त छन्द का काव्य अधिक महत्वपूर्ण कविता है या कि छन्द-बद्ध काव्य का सहसा यह निर्णय कर पाना सम्भव नहीं लगता। इस सन्दर्भ में यह लक्षित किया जा सकता है कि सफल कवि की फिर अगली परीक्षा गद्य-रचना होती है।

हिन्दी में अच्छा गद्य या सिर्फ़ कहें गद्य-लेखन विरल हैं। नाटक, उपन्यास, कहानी, आलोचना हैं, पर गद्य का अभाव है। और इन दोनों स्थितियों का परस्पर सम्बन्ध है, इसलिए नाटक, उपन्यास, कहानी, आलोचना भी उतने अच्छे नहीं बन पाते जितने कि एक शताब्दी से अधिक पुराने खड़ी बोली गद्य में होने चाहिए। अख़बार का सूचनात्मक गद्य जैसे रचना के क्षेत्र पर छाया हुआ (दृष्टव्यः यशपाल का बहुचर्चित उपन्यास ‘झूठा सच’) या फिर एक दूसरे तरह का गद्य लालित्य के छौंक से बनता है, जिसे साधारण तौर पर लालित्य निबन्ध कहा जाता है। फीके इतिवृत्त और बलात् लालित्य के बीच साधारण, सामान्य अच्छा गद्य दुर्लभ है।

गद्य का सम्बन्ध बोलचाल से, और किसी रूप में वक्तृता से है। वक्तृता तो यों आज मृतत्राय कला है। पिछले दिनों के अच्छे वक्ताओं में जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया के नाम लिये जा सकते हैं। साहित्यिक सन्दर्भ में महादेवी वर्मा, अज्ञेय और हजारीप्रसाद द्विवेदी की छवि मन में उभरती है, पिछले दिनों नामवार सिंह ने भी अपने को कुशल वक्ता के रूप में विकसित किया है। और यह संयोग नहीं है कि इन सभी लेखकों का गद्य व्याकरणिक रूप में जितना व्यवस्थित है, चिन्तन और आस्वाद के स्तर पर उतना ही आकर्षक भी। महावीर प्रसाद द्विवेदी को जैसे भारतेन्दु का संस्पर्श मिल गया हो। प्रस्तुत संकलन में महादेवी के अभिभाषणों में से कुछ चुने हुए अंश इसी रूप में प्रस्तुत किये गये हैं कि गद्य और वक्तृता का निकट सम्बन्ध उभरकर सामने आ सके।

अच्छे गद्य की एक पहचान शायद यह हो सकती है कि वह सहसा किसी काव्य-रूप में वर्गीकृत न हो सके और स्वयं में गद्य प्रभुत्वसम्पन्न गद्य के रूप में ही पहचाना जाये यूरोपीय साहित्य से एक उदाहरण लें तो एक्सेल मुंथे की कृति याद आती है। ‘द स्टोरी ऑफ़ सॉ माइकेल’ जो 1929 में प्रकाशित होकर शताधिक पुनर्मुद्रणों और अनुवादों में प्रसारित हुई। बारहवें संस्करण की भूमिका का आरम्भ लेखक इस प्रकार करता है : ‘‘इस पुस्तक के सभी समीक्षकों को काफ़ी दिक्कत हुई ‘‘द स्टोरी ऑफ़ सॉ माइकेल’’ को ठीक-ठीक वर्गीकृत करने में, और इस पर मुझे अचरज नहीं। कुछ ने पुस्तक को आत्मकथा बताया है, दूसरों ने कहा, ‘एक डॉक्टर के संस्मरण’। जहाँ तक मैं समझता हूँ, पुस्तक न यह है न वह।’’ असल में मुंथे की रचना आत्मकथा, संस्मरण, यात्रा-वृत आदि कुछ न होकर सिर्फ बढ़िया परिष्कृत गद्य है। हिन्दी में इस स्थिति पर महादेवी का गद्य आता है। बहुत बार उनकी भी एक रचना (उदाहरणतः ‘चीनी फेरी वाला’ या ‘घीसा’) कहीं कहानी के रूप में संकलित है तो कहीं संस्मरण और रेखा चित्र के रूप में उदाहृत है। यह गद्य का जादू है जो कवियों के लिए निकष बताया गया है।
गद्य का एक गुण यदि बोलचाल से निकटता है तो दूसरा उसकी आत्मीयता है। कविता हमेशा से उदात्त भावभूमि पर आकृष्ट करती है, जबकि गद्य में निश्छलता और आत्मीयता प्रीतिकर होती है। कविता साधारण की पहचान असाधारण स्तर पर कराती है, गद्य में चाहे साधारण हो या असाधारण वे सभी साधारण रूप में ही चमकते हैं निराला की कविता ‘तोड़ती पत्थर’ की मजदूरनी और महादेवी की ‘घीसा’ में यही अन्तर है। एक पूरे अनुच्छेद में चलने वाला घीसा का चित्र यों पूरा होता है-‘‘निरन्तर दौड़ते रहने के कारण उस लचीले शरीर में दुबले पैर ही विशेष पुष्ट जान पड़ते थे। बस, ऐसा ही था वह, न नाम में कवित्व की गुंजाइश, न शरीर में। जहाँ कवित्व की गुंजाइश न हो वहाँ कविता की मर्म अनुभूति जगा देना महादेवी के गद्य का काम है। कवि कैसे गद्य के निकष पर खरा उतरता है, यह इसका सटीक उदाहरण है।
गद्य में आत्मीयता का स्वर बहुत बार महज लहजे में से आता है। महादेवी की भाषा सामान्यतः तत्सम शब्द प्रधान है, इसमें सन्देह नहीं। गद्य में वाक्य-विन्यास भी अपेक्षाकृत लम्बा और जटिल है, फिर भी वह निर्मल और आत्मीय है, यह अपने में एक विलक्षण बात कही जायेगी। ‘घीसा’ से ही एक और उद्धरण लें-एकदम आरम्भिक वाक्य है।’’
‘‘वर्तमान की कौन-सी अज्ञात प्रेरणा हमारे अतीत की किसी भूली हुई कथा को सम्पूर्ण मार्मिकता के साथ दोहरा जाती है, यह जान लेना सहज होता है, तो मैं भी आज गाँव के उस मलिन सहमें नन्हे से विद्यार्थी की सहसा याद आ जाने का कारण बता सकती, जो एक छोटी लहर के समान ही मेरे जीवन-तट को अपनी सारी आर्द्रता से छूकर अनन्त तलराशि में विलीन हो गया है।’’

घीसा के इस आरम्भिक अनाम परिचय में जो करुण आत्मीयता निहित है वह पूरे संस्मरण में आद्यन्त प्रवाहित रहती है। संस्मरण-नायक (?) का रचनाकार से हल्का-सा परिचय और उसमें भी उसका अपना अंकिचन व्यक्तित्व-यह समूचा सरल, पर भावात्मक स्तर, पर जटिल सम्बन्ध एक छोटी-सी लहर और उस जीवन-तट के बिम्ब में बड़ी मार्मिकता से उभरा है। कविता में महादेवी की प्रतिज्ञा अनायास याद आ जाती है :
सब आँखों के आँसू उजले सबके सपनों में सत्य पला !
जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों की याद करने का लहज़ा इस लम्बे वाक्य में पाठक का सहज विश्वास धीमे से अर्जित कर लेता है। लगता है, घीसा ने लेखिका के जीवन-तट को ही नहीं छुआ, पाठकों के मन को भी वैसी ही आर्द्रता के साथ स्पर्श किया है।
महादेवी के गद्य साहित्य में अकाल्पनिक वृत्त (रेखाचित्र-संस्मरण-यात्रावृत्त) ही रचना के केन्द्र में है, जिसका अर्थ है कि उन्हें पूरी तरह से गद्य की क्षमता पर निर्भर रहना है। कहानी-उपन्यास-नाटक जैसे कल्पनाश्रित काव्य-रूप उनके यहाँ हैं ही नहीं। एक ओर पत्रकारिता का सूचनात्मक या विचारप्रधान गद्य है और फिर हैं हल्की सर्जनात्मक क्षमता से अनुप्राणित रेखाचित्र-संस्मरण जैसे नये गद्य-रूप यानी उन्होंने या तो कविता लिखी है जो भाषा की सर्जनात्मक शक्ति का सघनतम रूप है, या फिर अकाल्पनिक गद्य रचना की है जहाँ भाषा का बहुत हल्का सर्जनात्मक संस्पर्श है। इन दो छोरों के बीच साहित्य-सृजन का पूरा वैविध्य अन्तर्निहित है।

इस सन्दर्भ में यह भी दृष्टव्य है कि इस भाषिक प्रयोग के अनुकूल ही उनका संवेदनात्मक विस्तार है-कविता में अद्वैत कल्पना है तो गद्य में विविक्ति यथार्थ ‘बीन भी हूँ मैं तुम्हारी रागिनी भी हूँ’ यदि उनकी कविता का प्रमुख स्वर है तो गद्य में रामा, लछमा, घीसा, चीनी भाई के चित्र अलग-अलग साफ उकेरे गये हैं, जिन सबके सपनों में सत्य पला करता है। सत्य और सत्य को पालने वाली आँखें दोनों महादेवी की दृष्टि में हैं रचनाकार की सजगता का यह एक बहुत अविश्वसनीय प्रमाण है कि वह वस्तु और विधान को कैसे समास और संश्लिष्ट बनाता है। सभी बड़े लेखकों की तरह यहाँ महादेवी की भी पहचान अचूक है। गद्य और कविता के प्रयोगों के वैशिष्ट्य को उन्होंने बारीकी से समझा है।

महादेवी का शुद्ध विचारपरक गद्य भी मात्रा की दृष्टि से कम नहीं है। ‘चाँद’ के नारी-जागरण से सम्बद्ध सम्पादकीय, काव्य-संकलनों का पक्ष प्रस्तुत करने वाली भूमिकाएँ, ‘काव्य-कला’, ‘छायावाद’, ‘रहस्यवाद’, ‘गीतकाव्य’, जैसे साहित्यिक विषयों पर लिखे गये निबन्ध उनके गद्य लेखन का महत्वपूर्ण अंग हैं। आगे चलकर अपने सम्पादकीय लेखन का दायित्व वे अपने अभिभाषणों में रूपान्तरित करती दिखती हैं। इन दोनों माध्यमों की वस्तु एक जैसी है। यहाँ वे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन की विविध समस्याओं का विवेचन करती हैं जिसके लिए उन्होंने उचित ही गद्य का अपेक्षाकृत सहज और व्यावहारिक रूप चुना है। साहित्यिक निबन्धों की जरूरतें दूसरी हैं। और यहाँ वे बहुत बार अपने सन्दर्भ और अपने बिम्ब दर्शन के क्षेत्र से चुनती हैं जिसकी पृष्ठभूमि में वैदिक और बौद्ध वाङ्मय है। ‘काव्य-कला’ नये छायावादी आन्दोलन के लिए जिज्ञासा की एक प्रमुख भूमि थी। अपने अन्य सहयोगी कवियों की तरह उन्होंने भी इस बुनियाद विषय पर विचार किया है। इस सन्दर्भ में क्षण की महत्ता का आख्यान करती हुई वे लिखती हैं, ‘‘वास्तव में जीवन की गहराई की अनुभूति के कुछ क्षण होते हैं, वर्ष नहीं। परन्तु वे क्षण निरन्तरता से रहित होने के कारण कम उपयोगी नहीं कहे जा सकते। जो क्रूर मनुष्य सौ-सौ शास्त्रों के नित्य मनन से कोमल नहीं बन पाता, वह यदि एक छोटे से निर्दोष बालक के सरल और आकस्मिक प्रश्न मात्र से द्रवित हो उठता है, तो वह क्षणिक प्रश्न शास्त्र मनन की निरन्तरता से अधिक उपयोगी क्यों न माना जावे !’’ (काव्य-कला) आगे वे यदि आदि कवि वाल्मीकि और आधुनिक वैज्ञानिक न्यूटन के सृजन स्रोत में सामान्यतः तुच्छ लगने वाली घटनाओं के माहात्म्य को प्रकट करती हैं। उनकी मान्यताओं के पीछे कुछ भावावेश लगे तो यह सम्भव है, पर उनके विवेचन में तर्क-क्रम का कहीं अभाव नहीं है।

रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रावृत्त एक ओर; सम्पादकीय, भूमिकाएँ, निबन्ध और अभिभाषण दूसरी ओर। जैसे सम्पूर्ण जीवन का वैविध्य यहाँ समाया हो ! बिना कल्पनाश्रित काव्य-रूपों का सहारा लिये कोई रचनाकार महज़ गद्य से और गद्य में इतना अर्जित कर सकता है, यह महादेवी को पढ़कर ही समझा जा सकता है, और यह ‘महज़’ ‘गद्य’ अपनी सर्जनात्मकता में इतना प्रभावी बन सकता है, यह अनुभव भी अपने में विस्मयकर है। पाश्चात्य कथा-साहित्य के सन्दर्भ में विचार करते हुए श्री अरविन्द अपने एक पत्र में लिखते हैं, ‘‘गद्य में बड़ा लेखक होना एक बात है और बड़ा गद्य लेखक होना दूसरी।’’ यहाँ पर विलक्षण बात यह है कि बिना उपन्यास-कहानी- नाटक लिखे महादेवी श्रेष्ठ गद्यकार होती हैं। यह हमारे साहित्यिक इतिहास का अत्यन्त प्रीतिकर अध्याय है, प्रस्तुत संकलन इसका प्रमाण स्वयं देगा।

महादेवी जी की जीवन-क्रमणिका

1907 : जन्म : होली के दिन, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश।
1912 : मिशन स्कूल, इन्दौर में शिक्षा प्रारम्भ। घर पर पढ़ाई के लिए एक पण्डित, एक मौलवी, एक चित्र-शिक्षक तथा संगीत शिक्षक का प्रबन्ध।
1916 : विवाह, कुछ समय के लिए पढ़ाई स्थगित।
1919 : क्रास्थवेट कॉलेज, प्रयाग में पुनः शिक्षा प्रारम्भ।
1921 : मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। प्रान्त भर में प्रथम स्थान पाने के कारण राजकीय छात्रवृत्ति मिली।
1925 : इण्ट्रेंस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उर्त्तीण की।
1927 : इण्टर की परीक्षा पास की।
1929 : बी. ए. उत्तीर्ण। [बचपन से ही भगवान बुद्ध के प्रति भक्तिमय अनुराग होने के कारण बौद्ध-भिक्षुणी बनना चाहती थीं। बी.ए. करने के पश्चात् ग्रीष्मावकाश में नैनीताल में सम्भावित गुरु बौद्ध महास्थविर से मिलीं। उन्होंने एक काष्ठ-पट्टिका की ओट से इनसे बात की। इन्हें यह बहुत ही अपमानकर लगा। अपने प्रति इतने अविश्वासी व्यक्ति को गुरू बनाना इन्होंने उचित नहीं समझा। प्रतिक्रिया स्वरूप भिक्षुणी बनने का विचार त्याग दिया। उसी समय ताकुली, नैनीताल में महात्मा गाँधी के सम्पर्क और प्रेरणा से इनका मन सामाजिक कार्यों की ओर उन्मुख हो गया। प्रयाग के आसपास के गाँवों में जाकर बच्चों को पढ़ाना और उनमें शिक्षा की रुचि का उन्मेष करना इनका नियमित कार्यक्रम बन गया, जो स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय तक चलता रहा।]

1930 : अस्वस्थ होने के कारण सालभर के लिए अध्यापन कार्य स्थगित। इस वर्ष का अधिकतम समय रामगढ़, ताकुला, नैनीताल में बीता। प्रयाग में ‘अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन’ का संयोजन किया।
1932 : प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया। प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्या का कार्य-भार संभाला और ‘चाँद का निःशुल्क सम्पादन भी करने लगीं।
1933 : प्रयाग में कवीन्द्र-रवीन्द्र से भेंट। मीरा-जयन्ती का शुभारम्भ किया।
1933 : ‘नीरजा’ पर ‘सेकसरिया-पुरस्कार’ मिला। बदरीनाथ की पैदल-यात्रा।
1935 : कलकत्ते में आयोजित जापानी कवि योन नागूची के स्वागत-समारोह में भाग लिया और शान्ति निकेतन में गुरुदेव से भेंट की।
1936 : रामगढ़, नैनीताल में ‘मीरा मन्दिर’ नामक कुटीर का निर्माण कराया।
1939 : बदरी-केदार की दूसरी पैदल यात्रा।
1942 : ‘विश्ववाणी’ के बुद्ध का अंक का सम्पादन किया।
1943 : ‘स्मृति की रेखाएँ’ पर ‘द्विवेदी पदक’ प्राप्त हुआ।
1944 : हिन्दी साहित्य सम्मेलन का ‘मंगलाप्रसाद’ पुरस्कार मिला। ‘साहित्यकार संसद’ की स्थापना की।
1945 : ‘साहित्य संसद’ के लिए गंगा के किनारे रसूलाबाद प्रयाग में एक भवन खरीदा।
1950 : ‘साहित्यकार संसद’ की ओर से अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन तथा साहित्य- पर्व का सफल आयोजन किया। तत्कालीन राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा संसद में ‘वाणी मन्दिर’ का शिलान्यास कराया। प्रसाद-जयन्ती समारोह मनाया गया और 18 फरवरी से 22 फरवरी तक विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों के साथ साहित्य-पर्व चलता रहा।
1952 : स्वतन्त्रता के पश्चात् गठित उत्तर प्रदेश की विधान परिषद् की सम्मानित सदस्या मनोनीत हुईं। श्री इलाचन्द्र जोशी, दिनकर, गंगाप्रसाद पाण्डेय को साथ लेकर दक्षिण भारत की साहित्यिक यात्रा में कन्याकुमारी तक गयीं। केन्द्रीय सरकार से कॉपी राइट नियम में संशोधन की माँग की। ‘साहित्यकार संसद’ से निराला की कॉपीराइट बिकी काव्य-कृतियों से कविताएँ लेकर ‘अपरा’ नामक काव्य-संग्रह निकाला।

1954 : दिल्ली में स्थापित साहित्य अकादमी की संस्थापक सदस्या चुनी गयीं।
1955 : ‘साहित्यकार संसद’ के मुख-पत्र ‘साहित्यकार’ का प्रकाशन और श्री इलाचन्द्र जोशी के साथ सम्पादन शुरू किया। ‘साहित्यकार संसद’ के तत्वाधान में उत्तरा पथ (ताकुला) नैनीताल में अन्तःप्रादेशिक साहित्यकार शिविर का एक माह के लिए आयोजन किया। प्रयाग में नाट्य-कला ‘रंगवाणी’ की स्थापना की, जिसका उद्घाटन मराठी नाटककार मामा बरेरकर ने किया। भारतेन्दु के जीवन पर आधारित नाटक खेला गया। तत्कालिक केन्द्रीय शिक्षामन्त्री मौलाना आजाद की हिन्दी साहित्य विषयक भ्रान्त धारणा और वक्तव्य के विरोध में राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त तथा अन्य साहित्यकारों के साथ पत्रों में एक तीखी विज्ञप्ति प्रकाशित की।
1956 : ‘पद्मभूषण’ उपाधि से सम्मानित की गयीं।
1960 : सर्वसम्मति से प्रयाग महिला विद्यापीठ की कुलपति निर्वाचित हुईं।
1963 : लेखिका संघ, दिल्ली की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन् द्वारा अभिनन्दित। रात को इनके सम्मान में जो कवि गोष्ठी आयोजित हुई थी, उसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने इनका स्वागत किया था और प्रायः डेढ़ घण्टे तक काव्य-पाठ सुनते रहे थे।
1964 : भारतीय परिषद प्रयाग की ओर से कविवर पन्त ने इनके निवास पर एक बृहत् अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट किया।
1966 : षष्टि-प्रवेश के उपलक्ष्य में साहित्यकारों की ओर से कविवर पन्त जी ने संस्मरण ग्रन्थ भेंट किया।
1969 : विक्रम विश्विद्यालय द्वारा डी. लिट. की उपाधि से सम्मानित।
1976 : उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा 15,000/- का विशिष्ट साहित्य पुरस्कार।
1977 : कुमायूँ विश्वविद्यालय, नैनीताल द्वारा डी. लिट्. की उपाधि से सम्मानित।
1980 : बिहार सरकार द्वारा विशेष रूप से सम्मानित।
1982 : उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ द्वारा संचालित प्रथम ‘भारत-भारती पुरस्कार, ‘जो कि एक लाख रुपये का है, से सम्मानित।
1983 : ‘यामा’ और ‘दीपशिखा’ के लिए डेढ़ लाख रुपये की राशि के ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ (1982) से सम्मानित।

महादेवी की रचनाएँ

गद्य कृतियाँ

अतीत के चलचित्र (रेखा चित्र) 1941
श्रंखला की कड़ियाँ (नारी विषयक सामाजिक निबन्ध) 1942
स्मृति की रेखाएँ (रेखाचित्र) 1943
पथ के साथी (संस्मरण) 1956
क्षणदा (ललित निबन्ध) 1956
साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबन्ध (आलोचनात्मक) 1960
संकल्पिता (आलोचनात्मक) 1969
मेरा परिवार (पशु-पक्षियों के संस्मरण) 1971
सम्भाषण 1974

काव्य कृतियाँ

नीहार 1930
रश्मि 1932
नीरजा 1934
सान्ध्य गीत 1936
दीपशिखा 1942
सप्तपर्णा
हिमालय

संकलन

यामा (नीहार, रश्मि, नीरजा, सान्ध्यगीत का संग्रह) 1936
सन्धिनी (कविता-संग्रह) 1964
गीतपर्व (कविता-संग्रह) 1970
परिक्रमा (कविता-संग्रह) 1974
स्मारिका (कविता-संग्रह)
स्मृतिचित्र (गद्य-संग्रह)
महादेवी साहित्य (भाग-1, 2, 3)

रामा

रामा हमारे यहाँ कब आया, यह न मैं बता सकती हूँ न मेरे भाई-बहिन। बचपन में जिस प्रकार हम बाबूजी की विविधता भरी मेज से परिचित थे, जिसके नीचे दोपहर के सन्नाटे में हमारे खिलौनों की सृष्टि बसती थी, अपने लोहे के स्प्रिंगदार विशाल पलँग को जानते थे, जिसपर सोकर हम कच्छप-मत्स्यावतार जैसे लगते थे और माँ के शंख- घड़ियाल से घिरे ठाकुर जी को पहचानते थे, जिनका भोग अपने मुँह में अन्तर्धान कर लेने के प्रयत्न में हम आधी आँखें मींचकर बगुले के मनोयोग से घण्टी की टन-टन गिनते थे, उसी प्रकार नाटे, काले और गठे शरीर वाले रामा के बड़े नखों से लम्बी शिखा तक हमारा सनातन परिचय था।

साँप के पेट जैसी सफेद हथेली और पेड़ की टेढ़ी-मेढ़ी गाँठदार टहनियों जैसी उँगलियों वाले हाथ की रेखा-रेखा हमारी जानी-बूझी थी, क्योंकि मुँह धोने से लेकर सोने के समय तक हमारा उससे जो विग्रह चलता रहता था, उसकी स्थायी सन्धि केवल कहानी सुनते समय होती थी। दस भिन्न दिशाएँ खोजती हुई उँगलियों के बिखरे कुटुम्ब को बड़े-बूढ़े के समान सँभाले हुए काले स्थूल पैरों की आहट तक हम जान गये थे, क्योंकि नटखटपन करके हौले से भागने पर भी वे मानो पंख लगाकर हमारे छिपने के स्थान में जा पहुँचते थे।
शैशव की स्मृतियों में एक विचित्रिता है। जब हमारी भाव-प्रवणता गम्भीर और प्रशान्त होती है, तब अतीत की रेखाएँ कुहरे में से स्पष्ट होती हुई वस्तुओं के समान अनायास ही स्पष्ट-से-स्पष्टतर होने लगती हैं; पर जिस समय हम तर्क से उनकी उपयोगिता सिद्ध करके स्मरण करने बैठते हैं, उस समय पत्थर फेंकने से हटकर मिल जाने वाली, पानी की काई के समान विस्मृति उन्हें फिर-फिर ढँक लेती है।

रामा के संकीर्ण माथे पर खूब घनी भौहें और छोटी-छोटी स्नेहतरल आँखे कभी-कभी स्मृति पट पर अंकित हो जाती हैं और कभी-कभी धुँधली होते-होते एकदम खो जाती हैं। किसी थके झुँझलाये शिल्पी की अन्तिम भूल जैसी अनगढ़ मोटी नाक; साँस के प्रवाह से फैले हुए से नथुने, मुक्त हँसी से भरकर फूले हुए-से ओठ तथा काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलाने वाली सघन और सफेद दन्तपंक्ति के सम्बन्ध में भी यही सत्य है।
रामा के बालों को तो आध इंच से अधिक बढ़ने का अधिकार ही नहीं था, इसी से उसकी लम्बी शिखा को साम्य की दीक्षा देने के लिए हम कैंची लिए घूमते रहते थे। पर वह शिखा तो म्याऊँ का ठौर थी, क्योंकि न तो उसका स्वामी हमारे जागते हुए सोता था और न उसके जागते हुए हम ऐसे सदनुष्ठान का साहस कर सकते थे।

कदाचित् आज कहना होगा कि रामा कुरूप था; परन्तु तब उससे भव्य साथी की कल्पना भी हमें असह्य थी।
वास्तव में जीवन सौन्दर्य की आत्मा है; पर वह सामंजस्य की रेखाओं में जितनी मूर्तिमत्ता पाता है, उतनी विषमता में नहीं। जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भुलाते जाते हैं। बालक स्थूल विविधता से विशेष परिचित नहीं होता, इसी से वह केवल जीवन को पहचानता है। जहाँ जीवन से स्नेह-सद्भाव की किरणें फूटती जान पड़ती हैं, वहाँ वह व्यक्ति विषम रेखाओं की उपेक्षा कर डालता है और जहाँ द्वेष, घृणा आदि के धूम से जीवन ढका रहता है, वहाँ वह बाह्य सामंजस्य को भी ग्रहण नहीं करता।

इसी से रामा हमें बहुत अच्छा लगता था। जान पड़ता है, उसे अभी अपनी कुरूपता का पता नहीं था, तभी तो केवल एक मिर्जई और घुटनों तक ऊँची धोती पहनकर अपनी कुडौलता के अधिकांश की प्रदर्शनी करता रहता था। उसके पास सजने के उपयुक्त सामग्री का अभाव नहीं था, क्योंकि कोठरी में अस्तर लगा लम्बा कुरता, बँधा हुआ साफा, बुन्देलखण्डी जूते और गँठीली लाठी किसी शुभ मुहुर्त की प्रतीक्षा करते जान पड़ते थे। उनकी अखण्ड प्रतीक्षा और रामा की अटूट उपेक्षा से द्रवित होकर ही कदाचित हमारी कार्यकारणी समिति में यह प्रस्ताव नित्य सर्वमत से पास होता रहता था कि कुरते का बाँहों में लाठी को अटकाकर खिलौनों का परदा बनाया जावे, डलिया जैसे साफे को खूँटी से उतार कर उसे गुड़ियों का हिंडौला बनाने का सम्मान दिया जावे और बुन्देलखण्डी जूतों को हौज में डालकर गुड्डों के जल-विहार का स्थायी प्रबन्ध किया जावे; पर रामा अपने अँधेरे दुर्ग में चर्रमर्र स्वर में डाटते हुए द्वार को इतनी ऊँची अर्गला से बन्द रखता था कि हम स्टूल पर खड़े होकर भी छापा न मार सकते थे।
रामा के आगमन की जो कथा हम बड़े होकर सुन सके, वह भी उसी के समान विचित्र है।

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