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राधा माधव रंग रंगी

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1299
आईएसबीएन :81-263-0742-0

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प्रस्तुत है गीतगोविन्द की सरस व्याख्या....

Radha madhav Sang Rangi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

महाकवि जयदेव की कालजयी काव्यकृति ‘गीतगोविन्द’ भारत के सर्जनात्मक इतिहास की ऐसी महत्त्वपूर्ण घटना है जो निरन्तर प्रत्यक्ष अनुभव की जाती रही है; और आगे भी की जाती रहेगी। ‘गीतगोविन्द’ को देखने-सुनने, और समझने की भी एक अविच्छिन्न परम्परा रही है और यह परम्परा ही उसे एक जीवन-रस सृष्टि के रूप में परसे हुए हैं। इसी परम्परा में एक और नयी कड़ी है यह पुस्तक ‘राधा माधव रंग रँगी’।

‘राधा माधव रंग रँगी’ मूर्द्धन्य साहित्यकार और चिन्तक पं. विद्यानिवास मिश्र द्वारा की गयी ‘गीतगोविन्द’ की सरस व्याख्या है। विभिन्न भाषाओं में हुई ‘गीतगोविन्द’ की टीकाओं और व्याख्याओं के बीच यह व्याख्या निस्सन्देह अद्भुत है, अद्वितीय है। इसमें जिस सूक्ष्मता से ‘गीतगोविन्द’ का विवेचन हुआ है, वह विलक्षण तो है ही भावविभोर और मुग्ध कर लेनेवाला भी है। दरअसल डॉ. विद्यानिवास मिश्र ने जयदेव की इस कृति को जिस स्तर जाना-पहचाना है,

वह राधा और कृष्ण के स्वरूप पर अनोखा प्रकाश डालता है। पण्डित जी ने अपनी लालित्यपूर्ण सशक्त अभिव्यक्ति द्वारा इस काव्यकृति को नये अर्थ और नयी भंगिमाएँ दी हैं। कहा न होगा कि उनके शब्द ‘गीतगोविन्द’ के सार को जिस ढंग से पहचानते हैं, वह जयदेव की अप्रतिम काव्यात्मक अनुभूति के साथ ही स्वयं पण्डित जी की गहरी चेतना का भी साक्षी है।
साहित्य के सुधी अध्येताओं के लिए एक ऐसी अनूठी पुस्तक जिसे पढ़ना एक प्रीतिकार उपलब्धि होगी।..


वक्तव्य


पहला संस्करण अप्रत्याशित ही समाप्त हो गया। इसके लिए रुचि लेने वाले पाठकों का आभारी हूँ। पहले संस्करण में कुछ अशुद्धियाँ रह गयी थीं। उन्हें सुधार कर लिया गया। इच्छा तो थी कि श्री प्रबुद्धानन्द की टीका भी इसमें जोड़ी जाए और उसके ऊपर स्वतन्त्र आलेख हो जिससे अध्यात्म में रुचि रखने वालों को कुछ और संजीवन सामग्री मिले। पर एक तो प्रकाशक का तगादा था कि इसे शीघ्र छापा जाए, दूसरे उसे स्वतन्त्र उपक्रम के रूप में लेना अधिक श्रेयस्कर समझा गया।

 इसलिए उसे सम्प्रति छोड़ दिया। भारत की दो प्रसिद्ध नृत्यांगनाएँ कुछ संचारियों की प्रस्तुति अपने अभिनय से करना चाहती थीं। उनका चित्र हम देना चाहते थे, पर नृत्यांगना तो नृत्यांगना है, उनके साथ बैठकर किसी मर्मस्पर्शी भाव का अभिनय चित्र प्राप्त करना कुछ दुस्साध्य ही है। उनके वादों को ही चित्र मान लेते हैं। ‘गीतगोविन्द’ की व्याख्या मैंने रची है कहना अर्धसत्य है।

 मेरे द्वारा रची गयी है-यही कहना सत्य होगा। इसका अर्थ यह है कि इसके रचने में श्री राधा कृष्ण की लीला में अलौकिक आनन्द प्राप्त करने वाले असंख्य-असंख्य लोगों की अभिलाषा ने मुझसे ऐसा लिखा लिया। इसलिए उन लोगों के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूं कि संसार अभी एकदम ठूँठ ही नहीं है। उसमें भी कहीं-न-कहीं सबको नकार कर कुछ हरियाली बची हुई। अपने प्रकाशक के प्रति मैं आभारी हूँ, जिन्होंने यह पुस्तक सुरुचि से छापी और इसका समुचित वितरण किया।

विद्यानिवास मिश्र

आभार


‘राधा माधव रंग रँगी’ पुस्तक ‘गीतगोविन्द’ की व्याख्या है और मैं कहूँगा कि यह अधूरी व्याख्या है। ‘गीतगोविन्द’ की पूरी व्याख्या करने के लिए बहुत ही निर्विषय मन चाहिए। भरसक कोशिश की है कि निर्विषय होकर मैं ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के बारे में जितनी मेरी समझदारी है उतनी लोगों तक पहुँचाऊँ। मेरा संकल्प तो लगभग बीस-एक वर्ष पुराना है। संकल्प करने के पीछे आदरणीया कपिलाजी की नृत्य-प्रस्तुति है

जिसमें उनके गुरु ने ‘मदन मनोहर वेश टुकड़े’ की विकल्पानुवृत्तियों को समझाते हुए साधारण काम के लिए यहाँ स्थान नहीं है-इसका कुछ संकेत किया था। मेरा संकल्प धरा ही रह जाता यदि मेरे स्नेह पात्र श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय ने बार-बार आग्रह करके अपने ही घर बैठाकर मुझसे इन्दौर में ग्रन्थ का पूरा प्रारूप लिखवा न लिया होता। इस ग्रन्थ की भूमिका मैं पहले से बाँधता रहा-कुछ लेखों के द्वारा और कुछ व्याख्यानों के द्वारा और इनमें से एक व्याख्यान तो कलकत्ता में भारतीय भाषा परिषद् में हुआ, दूसरा व्याख्यान जयपुर में बन्धुवर श्री कपूरचन्द्र कुलिश ने कराया। ‘गीतगोविन्द’ की भाव- भूमिका के बारे में सबसे पहले मैंने निबन्ध लिखा था ‘

राधा माधव हो गयी’, इसे मैंने इसमें दिया भी है। इस ग्रन्थ की शीघ्र-से-शीघ्र मुद्रणार्थ प्रति तैयार करने के लिए भारतीय ज्ञानपीठ मुझसे अनुरोध करता रहा और श्री पद्मधर त्रिपाठी इसके लिए काबुली ढंग से तगादा करते रहे। इन सबका मैं हृदय से ऋणी हूँ। ग्रन्थ का प्रारूप सुसज्जित करने में टाइप कराने प्रूफ देखने में श्री नारायण मिश्र और श्री धर्मेन्द्र शर्मा ने न केवल बहुत परिश्रम किया है बल्कि अपना बहुमूल्य समय शुद्ध सेवा भाव से दिया है।

मैं इनको हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। इस ग्रन्थ के अन्त में ‘गीतगोविन्द’ के सम्बन्ध में कुछ ज्ञातव्य सूचनाएँ श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय ने श्री नारायण मिश्र के सहयोग से तैयार कीं। उसे परिशिष्ट रूप में दे रहा हूँ। इस परिशिष्ट की एक स्थापना को मेरा मन मानने को तैयार नहीं हो रहा है,
वह है जयदेव का जगन्नाथजी के परिवेश से बाहर का उद्भव। मुझे लगता है कि जयदेव और जगन्नाथ एक-दूसरे में अनुस्यूत हैं। जयदेव ओड़िसा के ही होंगे।
इसके लिए चित्रों के चयन और रंगीन चित्रों की प्रतिलिपि तैयार करने के लिए श्री नर्मदाप्रसाद उपाध्याय ने अयाचित भाव से बड़ी सहायता की और इनकी प्रस्तुति में खण्डवा के श्री जय नागड़ा ने सहायता की। इनको मैं हृदय से आशीर्वाद देता हूँ। डॉ. कपिलदेव पाण्डेय ने प्रूफ संशोधन में सहयोग दिया, उन्हें भी आशीर्वाद देता हूँ। जयपुर के कुलिश जी ने ‘गीतगोविन्द’ को नृत्य नाटिका के रूप में दूरदर्शन श्रृंखला के लिए प्रस्तुत कराया। उसने मुझे इस सचित्र व्याख्या के लिए और उकसाया, उनका आभारी हूँ।

अन्त में मैं पुनः आदरणीया कपिलाजी के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता हूँ कि उन्होंने पूरी पुस्तक को पढ़कर भीगे मन से इसकी भूमिका लिखी है। उनका यह सहयोग मेरे लिए आगे के लिए बहुत बड़ा सम्बल है। ज्ञानपीठ ने इसे सुरुचि से प्रकाशित किया, इसके लिए मानद निदेशक श्री दिनेश मिश्र धन्यवाद के पात्र हैं। जयदेव जैसे सिद्ध और भक्त कवि का ऋण उतारने के लिए यह काम कर रहा हूँ, पर लगता है कि ऋण मन पर और बढ़ता जा रहा है। उनके स्मरण मात्र से मन कहीं और चल रहा है जहाँ उसकी सही गति होनी चाहिए। ऐसे जयदेव को मैं प्रणाम करता हूँ।

विद्यानिवास मिश्र


भूमिका


पं. विद्यानिवास मिश्र का आग्रह था कि मैं उनकी पुस्तक ‘राधा माधव रंग रँगी’ (गीतगोविन्द-व्याख्या) की भूमिका लिखूँ। मैं इस कार्य के लिए अपने आपको सर्वथा अपात्र एवं असमर्थ पाती हूँ। ‘गीतगोविन्द’ को जितना भी समझने की चेष्टा करती रही हूँ, उतना ही तीव्र अनुभव होता रहा है कि इस लघु की चेष्टा करती रही हूँ, उतना ही तीव्र अनुभव होता रहा है कि इस लघु महाकाव्य की गहराई और रहस्य बढ़ता ही चला जाता है।

 हर बार पुनः पढ़ने पर एक नया स्तर एक नयी गहराई के दर्शन होते हैं। जयदेव की यह कृति जितनी ही सरल और मधुर है, उतनी ही जटिल भी। और भारतीय पुष्पमाला की भाँति गुन्थन और गुंजन भरी। एक पक्ष प्रकाशित होता है तो उसके साथ ही कितने अन्य पक्ष स्वतः भासमान हो उठते हैं। माला के गुन्थन को अलग-अलग देखना शुरू करें तो माला टूट जाती है। गुन्थन के फूल बिखर जाते हैं और फिर से माला को पिरोना आरम्भ करो तो हर पाठक, श्रोता और दर्शक की माला हो जाती है एक लड़ीवाली, जयदेव की गुन्थन की नहीं।
बहुत वर्षों तक समझने का प्रयास करती रही कि ‘गीतगोविन्द’ के एक पाठ के भारतीय नृत्य, संगीत और चित्रकला के कितने अनेक रूप हो सकते हैं। एक शब्द एक पंक्ति एक अष्टपदी की प्रत्येक विधा में हर कलाकार द्वारा पृथक्-पृथक अभिव्यक्ति होती रही है और हो रही है। भारतवर्ष के हर क्षेत्र में गुजरात से लेकर उड़ीसा और मणिपुर तक, कश्मीर से केरल तक व्यापक पाठ गान होता है और उनके मन्दिरों में इस पाठ और गान से सेवा होती है।

नाना प्रकार की नृत्यशैलियों में ‘गीतगोविन्द’ का अभिनय प्रस्तुत किया जाता है। दक्षिण को छोड़ हर क्षेत्र में ‘गीतगोविन्द’ पर आधारित लघुचित्र हैं। इस विशाल विस्तार को समझने के लिए अनेक यात्राएँ कीं, भ्रमण किया और ‘गीतगोविन्द’ के अनेक रूप एक रंग और गन्ध में रमी-रसी। किन्तु उसके रहस्य की ग्रन्थि बनी रही। यात्रा बाह्य और आन्तरिक शेष न ही हुई, न होगी।
यह रचना क्या है और किस आन्तरिक अनुभूति की प्रेरणा से उत्पन्न हुई है, यह अभी तक प्रश्नचिह्न ही बना रहा। जयदेव को राधा और कृष्ण का क्या और कैसा अनुभव हुआ होगा, चौबीस जिसने उन्हें वह वैदिक शक्ति प्रदान की। अष्टपदियों में उन्होंने ब्रह्माण्ड को बाँधा और सृष्टि समष्टि के निचोड़ को लयमय, संगीतमय स्वरों और शब्दों में मुखरित किया। यह अद्भुत कृति अवाक् की। भारतवर्ष के हर प्रान्त और भाषा में अनेक प्रकार की टीकाएँ मिलती हैं। कुछ टीकाकारों ने उसका अलंकार, रूप रस के सिद्धान्तों के अनुसार विश्लेषण किया, तो कुछ ने भक्तिरस के अनुसार। अन्य टीकाकारों ने ग्रन्थ को वैष्णव सम्प्रदाय का ग्रन्थ माना, तो कुछ ने रहस्यवाद का। कुछ ने उसमें केवल इन्द्रियों का विस्तार देखा और कुछ ने उसे संगीत, नृत्य का लक्षण ग्रन्थ।

इतनी विभिन्न प्रकार की व्याख्याओं और टीकाओं की परिपाटी के उपरान्त आज पं. विद्यानिवास मिश्र ने जो ‘गीतगोविन्द’ की व्याख्या की है, वह अद्भुत है। पढ़कर मन विभोर हो जाता है। जिस सूक्ष्मता से ‘गीतगोविन्द’ का विवेचन किया गया है, वह विलक्षण है। मैं पढ़ते-पढ़ते मुग्ध हो गयी, मन्त्रमुग्ध। पं. विद्यानिवास मिश्र ने जयदेव की कृति को जिस स्तर पर जाना पहचाना है, वह राधा और कृष्ण के स्वरूप पर अनोखा प्रकाश डालता है।

पं. विद्यानिवास मिश्र ने बहुत महीनता से सर्गों के नामों का विश्लेषण किया है। प्रत्येक सर्ग में कृष्ण का एक नाम आया है। प्रथम सर्ग में सामोद-दामोदर क्यों ? पण्डितजी बहुत तर्कसंगत बारीकी से बताते हैं कि दामोदर का अर्थ है-जिसका उदर रस्सी से बँधा हुआ हो, जो भयभीत हो। एक ओर वह सामोद है, क्योंकि वसन्त रस नृत्य गन्ध का संचार उन्हें चारों ओर से घेरे हुए है; दूसरी ओर वह आतंकित है रासेश्वरी की अनुपस्थिति से। सामोददामोदर में एक साथ दो व्यंजनाएँ हैं। पण्डितजी हर नाम में जो व्यंजनाएँ हैं, उनको प्रत्यक्ष करते हैं, यही एक बड़ी उपलब्धि है।


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