लोगों की राय

लेख-निबंध >> दीप जले शंख बजे

दीप जले शंख बजे

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :204
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1276
आईएसबीएन :81-263-0920-2

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

प्रस्तुत है दीप जले शंख बजे....

Deep Jale Shankh Baje

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इन निबन्धों में ऐसे मानवों के संस्मरण हैं,जो साधन या शक्ति के कारण नहीं,साधना और भक्ति के कारण ही दीप्तिमन हैं,इन्हें ही कहा है दीप,जो प्रकाश फैलेत हैं और शंख, जो जागरण का सन्देश देते हैं। आत्मा की आरती के ये हैं कुछ दीप कुछ शंख। दीप जो जलता है अँधेरे में कि हम देख सकें-जीवन की राह। और शंख जो बजता है आरती-पूज के साथ कि हम सुन सकें जागरण का घोष-गुणों के प्रति,चरित्र के प्रति,व्यक्तित्व के प्रति।

ये दीप ये शंख

वृक्ष की तरह मैं धरती पर जनमा और धरती के कलेजे का रस पीकर आकाश में झूम उठा। आकाश में ही मैं फूला-फला, पर इन फूलों में धरती के हृदय का सौन्दर्य था और फलों में धरती के ही ह्रदय का माधुर्य। इसीलिए जब इन फूलों का अर्घ्य और फलों का उपहार किसी को भेंट करने का प्रश्न मेरे सामने आया, तो मैं पल-भर को भी दुविधा में नहीं पड़ा और मैंने उन्हें धरती माता के चरणों में मान और प्यार के साथ समर्पित कर दिया।
मैं जिस परिवार में जनमा, उसे किसी भी दृष्टि से साधारण कहा जा सकता है। माँ का मुझपर कुछ अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। वह मेरे लिए मोम थी, पर और सबके लिए इस्पात। मेरे नन्हें-से मन को जिस चरित्र ने सबसे पहले प्रभावित किया वह मेरे शान्त, प्रेमी और सहिष्णु पिता का चरित्र था।

वे कस्बे के साधारण कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे। शिक्षा साधारण, धन-साधन लगभग शून्यता के समीप और सामाजिक स्थिति भी साधारण, पर उनके जीवन में मानवीय महानता की ऐसी असाधारण शक्ति थी कि उसे मेरा बचपन भी देख पाया। कुटुम्ब-पड़ोस में ऐश्वर्य पद से समाज में ऊँचे आसन पर बैठे कई असाधारण भी मेरे सामने थे, पर उनके जीवन में पाशविक हीनता की ऐसी कालिमा था कि उसे मेरा बचपन भी देख पाया। बस साधारण में असाधारण देखने की भावना का मुझमें यहीं से प्रस्फुटन हुआ।
आगे चलकर जब मैं बहुत-से बड़े आदमियों के निकट सम्पर्क में आया और मैंने उनमें से अधिकांश को मनुष्यता की दृष्टि से एकदम खोखला-इन्सॉलवेण्ट-पाया, तो साधारण में असाधारण देखने-खोजने की यही भावना मेरे पूरे जीवन पर छा गयी,और क्योंकि मेरे लिए साहित्य जीवन का अंग था, शौक-व्यापार नहीं,जीवन का धर्म था-एक नये शब्द में जीवन का संविधान था-इसलिए आकाश की कल्पना में न उलझकर जीवन में ही सत्य सौन्दर्य की खोज मेरे साहित्य की आत्मा बन बैठी।

इसी आत्मा की आरती के ये हैं कुछ दीप, ये है कुछ शंख। दीप तो जलता है अँधेरे में कि हम देख सकें पर क्या देख सकें ? कहाँ निशा का दिग्दिगन्तव्यापी अन्धकार और कहाँ दीप का दो-चार गज पर ही टूट जानेवाला प्रकाश ? हम क्या देख सकें बस यही कि अन्धकार महान है और प्रकाश तुच्छ ? ना, हम देख सकें कि अन्धकार लाख डींग मारे कि उसने प्रकाश को समाप्त कर दिया, पर प्रकाश अब भी जीवित है,अमर है-दूसरे शब्दों में दीप ही सूर्योदय का एक विश्वसनीय आश्वासन है। लघु होकर भी दीप को विशिष्टता और मांगलिकता यही है।
और शंख जो बजता है आरती-पूजा के साथ कि हम सुन सकें, पर क्या सुन सकें ? कहाँ रणभेरियों की गर्जना कि खून-खच्चर के चीत्कार में कान पड़ी बात कलेजे न उतरे और ढोलों की ढमाढम कि जूझने की धुन से रोम-रोम में उमड़न उठे और कहाँ बेचारे शंख की ऊँ-ऊँ ? तो बस हम सुन लें कि जीवन में युद्ध-संघर्ष महत्वपूर्ण है और पूजा-अर्चना क्षुद्र ? ना, हम सुन लें यह कि युद्ध का राक्षस लाख गरजे, मानव की नीरव निशीथ-व्यापी निद्रा को लाख बार जागरण का अन्त घोषित करे,मानव-जीवन की अजेय वृत्ति गुलामी नहीं,पूजा-अर्चना है-गुणों के प्रति,चरित्र के प्रति, व्यक्तित्व के प्रति वन्दना है। लघु होकर भी शंख की विशेषता और मांगलिकता यही है।

अगले पृष्ठों में ऐसे ही मानवों के संस्मरण हैं जो साधन या शक्ति के कारण नहीं, साधना और भक्ति के कारण ही, दीप्तिमान हैं यहीं मैंने उन्हें कहा है दीप, जो प्रकाश फैलाते हैं और शंख, जो जागरण का सन्देश देते हैं।
प्रकाश, चाँदनी-रोशनी-लाइट-बल्ब से हो या लैम्प-दीप से,सदा राह दिखाता है पर ये जीवन के दीप हैं इनके प्रकाश में हम कौन-सी राह देखें ? सड़क-सोपान की राह ? ना, जीवन की राह !
जीवन की राह कि जिस पर चला जीवन भटके नहीं, पर जीवन का भटकना क्या ? जीवन का भटकना है गलत चीजों-वैल्यूज में अपनी सार्थकता मानना, तो हम इस प्रकाश में देखें कि जीवन की सार्थकता उसके गुणवान होने में नम्र-सेवाशील होने में, दूसरों के लिए उपयोगी होने में है, संहारक या साधन-सम्पन्न होने में नहीं-यह साधन-सम्पन्नता धन की हो, बल की हो, पद की हो, या बुद्धि की हो !

और जागरण, जागना-जागृति चैतन्य। जो मनुष्य को चिन्तन सोच-विचार देता है, पर इन शंखों के जागरण में हम क्या सोचें ? क्या नून तेल लकड़ी की बात ? ना, वह चिन्तन नहीं चिन्ता है। जागरण है स्वप्न का उलटा। स्वप्न में हम मिथ्या को यथार्थ, अशुभ को शुभ और अकार्य को कार्य भी मानें, तो सुख मिलता है, पर जागरण में अयथार्थ है और यथार्थ यथार्थ तो हम सोचें-जानें-मानें कि मनुष्य की उच्चता यह नहीं है कि वह अपने लिए जिए, दूसरों को अपने लिए समझे या दूसरों को अपने लिए जीने-मरने को बाध्य कर सके। उसकी उच्चता है यह कि वह दूसरों के लिए जिए, दूसरों के लिए उपयोगी होकर जिए।
और भी साफ यों कि वह मनुष्य सम्माननीय नहीं हैं, जो अपने लिए कुछ या सब-कुछ उपार्जित करता है। वास्तव में सम्माननीय है वह,जो दूसरों के लिए कुछ या सब-कुछ समर्पित करता है, फिर वह मजदूर हो या इंजीनियर छात्र हो या प्राध्यापक, धनपति हो या गरीब, अधिकारी हो या जनसाधारण,शिक्षित हो या अशिक्षित और आज की भाषा में प्रतिष्ठित हो या अप्रतिष्ठित।
इस प्रकाश में मैने अपने जीवन की राह पायी और इस जागरण में अपने जीवन का यथार्थ। चाहता हूँ दूसरे भी इन दीपों के प्रकाश में अपने जीवन की राह पाएँ, इन शंखों के जागरण में अपने जीवन का यथार्थ, इसीलिए इन्हें चाव के साथ साहित्य के मन्दिर में रख रहा हूँ।

मेरे पिताजी

अपने तीन वर्ष के होश को जरा सँभालकर उन्होंने अपने आस-पास झाँका तो वे सहम गये। माँ-बाप मर चुके थे और उनका पालन-पोषण उनके चाचा-चाची की देख-रेख में हो रहा था। उनके बचपन के संस्करणों का सार है, बच्चे खिलाना,मार खाना,कुछ न कहना और सब-कुछ सहना। यह कितना अद्भुत है कि इसी दमघोंटू वातावरण में उन्होंने अपने स्नेही बाबा से ग्यारहवें वर्ष में पैर रखते-न-रखते कर्मकाण्ड की कामचलाऊ शिक्षा पा ली और इससे भी अद्भुत है यह कि इस नरककुण्ड में पलकर जो बालक निकला, उसके रोम-रोम में व्याप्त मिला मानव का प्रेम, सभी तरह के भेद-भावों से ऊपर जीवन के कण-कण में छायी ममता और ईश्वर-विश्वास। ओह, ऐसा कि सन्तों को भी ईर्ष्या हो ! यह थे मेरे पिताजी-श्री पण्डित रमादत्त मिश्र।
प्लेग में बड़े भाई की मृत्यु हुई, तो शहर रो पड़ा, पर वे चार बजे श्मशान से लौटे पाँच बजे गाय की सानी की, सात बजे उसे दुहा, साढ़े सात बजे ठाकुरजी की आरती की और नौ बजे गरम दूध के दो गिलास लेकर माँ के पास पहुँचे-ले दूध पी ले और बहू को भी पिला दे !

वे दूध-मिसरी तो माँ लाल मिर्च। चिल्लाकर बोली, मेरा तो घर जल गया और तुम्हें दूध-मलाई सूझ रही है !
स्वर में कहीं उद्वेग नहीं। बोले बिना खाये कौन जिया है बावली ! मैं आज कह रहा हूँ तू परसों खाएगी। बस तीन का आगा-पीछा है। अपने कमरे में लौट आये और दूध पीकर सो गये। रात-भर उनका घुर्राटा सबने सुना और ठीक साढ़े चार बजे उनकी मधुर, तल्लीन स्वर-लहरी सदा की भाँति कानों में पड़ी-पवन मन्द सुगन्ध हेम मन्दिर शोभितम् श्री निकट गंगा बहत निर्मल बद्रीनाथ विश्वम्भरम् ! छोटे भाई को एक सम्बन्धी ने बहकाकर नहर में डुबा दिया। वे सब कुछ जानते थे, पर पुलिस से कहा, नहाने घुसा पैर रपट गया, मेरा भाग्य दरोगाजी,शक किस पर करूँ ? माँ बहुत झल्लायी, उस सण्डे को फाँसी चढ़ता देखकर मेरी छाती में ठण्डक पड़ जाती, तुम्हें यह भी अच्छा न लगा। वही शान्त स्वर, अब आग एक घर में है,फिर दो में लग जाती इससे क्या फायदा ?
एक कोठा उन्होंने खरीद लिया। खरीद क्या लिया, मालिक ने उसे थोड़े-से रुपयों में दे दिया। कुटुम्ब के दूसरे धनी सदस्य उसे अधिक रूपयों में खरीदना चाहते थे, पर उन्हें वह न मिला।
पिताजी भोजन के लिए आसन पर बैठे कि अपने आदमियों के साथ लाठियाँ लिये वे आ धमके और मारने की धमकियों के साथ गालियों का एक दौंगड़ा-सा बरसा दिया उन्होंने। वही उद्वेगहीन स्वर, आओ भाई,पहले भोजन कर लो फिर माल लेना।

गालियों की एक और बौछार उन पर पड़ी तो बोले तुम बहुत हो मैं इकला हूँ। भागा मैं कहीं जा नहीं रहा। आओ पहले खाना खा लें ! जवाब में कुछ हुंकारें कुछ फुंकारें और गालियों की कुछ तगड़ी बौछारे उन पर पड़ी। अब उन्होंने गले से माला निकाल ली, आँखें बन्द नमः शिवाय, नमः शिवाय !
दस-पाँच मिनट बक-झक कर वे चले गये। माँ बोली, वे बकते रहे, तुमने उन्हें जवाब तक नहीं दिया। मैं तुम्हारा लिहाज कर गयीं, नहीं तो सिंडासी से गला पकड़कर जलती लकड़ी से धुनती नाशगयों को !
वाकई वह ऐसी थी। पिताजी ने माला गले में डाली। बोले मैं बोलता वे और खड़े रहते। खाने का स्वाद आधा हो गया ही,.वह बिलकुल ही ठण्डा हो जाता। ला परोस जल्दी।
बहन का विवाह सिर पर था और पास में पैसा नहीं। सगाई के दिन ही छह रूपये उधार माँगकर काम चलाया। सबने कहा, जब पास पैसा नहीं तो ठहर जाओ, अगले साल शादी हो जाएगी।
बोले अगले साल और इस साल का फर्क तो वे जानें जिनके घर कहीं से धन आने की सम्भावना हो। मेरी लडकी की शादी तो इस साल भी ठाकुरजी करेंगे और अगले साल भी। उनके भण्डारे में सब कुछ है, तुम फिकर मत करो !
उसी दिन शाम को अचानक उन्होंने माँ से बडी थैली माँगी। वह समझी कहीं से रूपये ले आये हैं। चुपके से तीन रुपये रखकर थैली माँ को लौटा दी। वह जल उठीं, इन्हीं तीन रुपल्लियों पर शादी करोगे लड़की की ?
बोले बावली, तेरी लड़की का कारज हो जाएगा और ये तीन रुपये बचे रह जाएँगे। तू नहीं जानती ठाकुरजी की भुजा बड़ी लम्बी है।

समय जा रहा है घडी आ रही हैं,पर ठाकुरजी की लम्बी भुजा का कोई प्रमाण नहीं मिल रहा। माँ के प्राण सूख रहे हैं,पर पिताजी के चेहरे पर वही हँसी, वही चार बार रोज चाय,वही आरती और वही नींद ! माँ जब-जब उन्हें कोंचती हैं कह देते हैं-मैंने अपना काम कर दिया। ठाकुरजी अपना काम करेंगे। ठाकुरजी ने अपना काम नहीं किया और विवाह के उन्नीस दिन रह गये। माँ का चेहरा पीला पड़ गया। अचानक तार आया- यजमान के एक यजमान शिवपुराण की कथा सुनने को उन्हें बुला रहे हैं। यजमान डिप्टी कलक्टर थे। कथा पर पन्द्रह सौ रुपये चढ़े। पिताजी दस दिन बाद घर लौटे, माँ झक रह गयी।
धूमधाम से शादी की। लड़की अपनी ससुराल से लौटी, तो अन्नपूर्णा का भोज भी हुआ। शाम को पिताजी ने फिर थैली देखी। समय की बात उसमें नौ रुपये थे। छह का ऋण उतार दिया आगे बचे तीन ! माँ से बोले तेरी लड़की के सब काम हो गये कि नहीं ? फिर भी बचे रहे वे ही तीन ! तुम लोग झट विश्वास छोड़ बैठते हो। मैं कहता न था कि ठाकुरजी की भुजा बड़ी लम्बी हैं।
वे पण्डित भी थे और चिकित्सक भी। एक दिन सात रूपये उनके पास आये और सातों उन्होंने खर्च कर दिये। माँ बहुत नाराज हुई कि ‘कल त्योहार’ है, सवेरे-ही-सवेरे पूजा के लिए एक रुपया चाहिए,कहाँ से आएगा वही पेटेण्ड जवाब-सब ठाकुरजी देंगे ! जवाब से माँ को सन्तोष न हुआ-देखूँगी दिन निकलते ही ठाकुरजी कैसे देते हैं ?
बात यह थी कि पिताजी सवेरे बहुत जल्दी भोजन करके घर से निकलते थे, पर कल भोजन हो सकता था पूजा के बाद और पूजा की कुंजी थी एक रुपया। पिताजी भी यह जानते थे,पर बोले खैर देख लेना, ठाकुरजी की भुजा बड़ी लम्बी है।
तडके में चार बजे एक रोगी का बुलावा आया और दो रुपये लेकर वे लौटे। आते ही बोले,यह लो एक रुपया पूजा का और एक ऊपर के खर्च का। यों ही हाय-हाय मचा देते हो तुम लोग !

अपने ठाकुरजी में उनका अखण्ड विश्वास था और वाकई उनकी भुजा बड़ी लम्बी थी। मैंने उन्हें कभी भय से विह्रल,निराशा से अस्त-व्यस्त और क्रोध से क्षुब्ध नहीं देखा !
मानव के प्रति निष्काम ममता,उनकी अपनी चीज थी। जो घासवाला उनकी गाय के लिए घास लाता, उसे चाय पिलायी जाती और यजमानों के यहाँ से आयी-गयी सुहाली-मिठाई अवश्य दी जाती। अगर वह बूढ़ा होता तो उसे जरा-सी अफीम की गोली भी वे दे देते। यह सब उन्हें अपनी शीतलपाटी पर बैठाकर किया जाता और इसके लिए वे अपना ही गिलास काम में लाते। इसके बाद न बरतन में आग डाली जाती, न घर में गंगाजल छिड़का जाता। शहर के पण्डित कहा करते, रामा मिस्सर का तो भभेक भिरस्ट हो गया है।
एक बूढ़े घासवाले ने कहा, पण्डितजी हमें एक रजाई दे दो। तब भादवे की भयंकर गरमी पड़ रही थी। आश्चर्य से वे बोले, अरे आजकल रजाई क्या करेगा ? बात यह थी कि बूढ़े से पिछली सर्दियाँ मुश्किल से काटी थीं, अगली सर्दियों के लिए वह अभी से चिन्तित था। पिताजी सर्दियों में उसे एक रजाई देने का आश्वासन दे,बिदा किया।

दीवाली पर जब उन्होंने अपने लिए रजाई निकाली, तो उस बूढ़े के लिए भी एक रजाई ठीक कराकर रख दी, पर वह बूढ़ा न आया। मैंने देखा कि वे बेचैन थे और बार-बार सबसे उस बूढ़े को पूछते थे ! हमें उनकी बेचैनी पर हँसी आती थी और कभी-कभी झुँझलाहट भी, उसे सौ बार गरज होगी तो आयगा, नहीं तो आप क्यों परेशान हैं ! वे कहते अरे भाई वह बेचारा मालूम होता है, घर भूल गया है। नहीं तो वह जरूर आता !
एक दिन वे घासमण्डी जा पहुँचे और दो घण्टे तक वहाँ खड़े रहे, पर वह बूढ़ा उन्हें न मिला। तब दूसरे घासवालों से उन्होंने उनके गाँव पूछे। अन्त में उस बूढ़े को खबर भिजवायी। खबर ले जाने के लिए भी उसे दो आने दिये। दूसरे दिन बुखार में हिलहिलाता वह बूढ़ा आया। सचमुच वह घर भूल गया था। पिताजी ने उसे अपने हाथों रजाई उढ़ायी चाय पिलायी और दवा दी। शाम को जब मैं बाहर से आया तो बहुत खुश होकर बोले, ले भाई आज हमारा वो काम हो गया।
क्या काम जी ?
वो बूढ़ा आया था,रजाई ले गया। वे ऐसे खुश थे कि जैसे आज उनका खोया हुआ लड़का मिल गया हो !

एक दिन एक तरुण घासवाला आया। वह भी एक रजाई चाहता था,पर रजाई घर में थी नहीं। उसकी कहानी इस प्रकार थी-घर में वह और उसकी माँ है। पिछले साल उनके पास एक रजाई का रूअड़ था,उसे माँ-बेटे ओढ़ लिया करते थे। वह टूट गया है। ठण्ड खाकर माँ बीमार हो गयी है। बेहद तेज बुखार है। उसे इकली छोड़कर मजबूरी में वह घास बेचने आया है।
वे चिन्ता में पड़ गये, पर कहीं गुंजायश न थी। सोचकर बोले, अच्छा भाई तू शाम को आना। हमारे पास तो कोई कपड़ा है नहीं पर देखो, ठाकुरजी की भुजा बड़ी लम्बी है। वह चला गया. तीसरे पहर तक कोई प्रबन्ध नहीं हुआ। अचानक कुछ सूझा। उठकर कहीं गये और लौटे, तो एक पुरानी रजाई उनके बगल में थी-किसी से माँगकर लाये थे ! मेरे आत्माभिमान को बड़ी ठेस लगी। मैं नाराज हुआ तो लाड़ में बोले, बेटा ! उनके यहाँ पर फालतू पड़ी थी, इसके काम आ जायगी, इसमें बेइज्जी की बात क्या है ? मुझे नरम करते हुए बोले, बस एक माँ है इसके। वह शीत में मर जाती, तो इसकी दुनिया अन्धी हो जाती। और यह कह कर जैसे किला जीत लिया उन्होंने-अब दोनों आराम से पैर पसारकर सोएँगे। रजाई के साथ माँ के लिए दवाई भी उसे मिली और पीने को चाय का गिलास भी।
घर के सभी लोग प्लेग में मर गये। बच गया सिर्फ जीजू ! दस-बारह साल का मुसलमान बालक। हमारे धोबी के साथ वह पिताजी से आ मिला और बस उनका पुत्र हो गया। उनके पास खाता, कपड़े पहनता और रात में घर जा सोता। भोला-सा सरल बालक, एक दिन पिताजी की तरह सूरज को हाथ जोड़ रहा था कि मुसलमानों में हल्ला मच गया। तार देकर उसका बहनोई बुलाया गया। मुश्किल से पिताजी ने उसे बहन के यहाँ जाने के लिए तैयार किया। नये कपड़े पहनाकर उसे स्टेशन छोड़ने गये। जब तक गाड़ी दीखती रही, खड़े देखते रहे और इसके बाद भी मनीऑर्डर से उसे कभी-कभी रूपये भेजना जारी रहा। बरफवाला गली में आता, तो पास-पड़ोस के बच्चे उन्हें आ घेरते ! एक दिन चौदह बच्चों को उन्होंने बरफ दिलाया और बरफवाले को पैसे देने के बाद एक पैसा ऊपर की ताक में रख दिया। मैं भी वहीं उनके पास खड़ा था । यह पैसा वहाँ क्यों रख दिया आपने ?

बात टालने को बोले, यों ही रख दिया है, फिर उठा लूँगा। पर मुझे सन्तोष न हुआ तो खुले, यह पैसा भंगन की लड़की का है। जब आएगी तो उठाकर दे दूँगा,बरफ खा लेगी। आखिर उसमें भी तो जान है बेटा !
उनके लिए अपने बच्चे, पास-पड़ोस के बच्चे और भंगन के बच्चे में कोई भेद न था। बच्चे असल में उनकी जान थे। जब वे खाना खाते तो इधर-उधर से कई बच्चे आ जुटते। उनका भोजन एक हंगामा ही होता। एक कहता मैं दाल से लूँगा,दूसरा आलू से। तीसरे का नाक पोंछते, चौथे को पानी देते। एक इस बात पर ऐंठता कि मैं गोदी में बैठूँगा, दूसरा रूठ जाता कि उसे गोद में क्यों लिया ? सबको सँभालते और इस सँभाल में पूरा रस लेते। उनका भोजन सचमुच एक दृश्य होता।
उनकी चाय-गोष्ठी भी इसी तरह काफी दिलचस्प होती। एक और गोष्ठी के भी वे संयोजक होते। वह सिर्फ सर्दियों में जमती। वे बीच में जमीन पर अपने आसन पर उकडूँ बैठते और दोनों तरफ पलंगों पर बैठते बाल-गोपाल। वे गन्ना छीलते और पोरी बच्चों को देते रहते। पहले-पीछे का हंगामा यहाँ भी मच जाता,पर वे उसे सँभालते और गन्ना-गोष्ठी जारी रहती।
इस गोष्ठी में उस समय मजा आ जाता, जब अचानक हममें से कोई तरुण आ पहुँचता। वे एक पोरी उसकी ओर भी बढ़ाते। इधर से हाथ बढ़ाने में जरा भी ढील हुई कि वे कहते, ओहो, अब तो आप बहुत ही बड़े हो गये हैं। और तभी वे अपने को तीन अक्षरों में उँड़ेल-सा देते-ले बेटे ! और पोरी हमें चूसनी पड़ती-हँसते-हँसते।
वे थके-थकाये पसीने से तर बाहर से लौटते-फल,सब्जी,मिठाई और जाने क्या क्या लिये। बच्चे दौड़ पड़ते, बाबा आये, बाबा आये। कोई खरबूजा माँगता, कोई मिठाई, कोई कमर पर चढ़ता, कोई पैरों को लिपट जाता। वे परेशान हो जाते, पर कभी न चिल्लाते। लाड़ में ही कहते, अरे ताला तो खोल लेने दिया करो। आते ही दुन्द मचा देते हो। जो कुछ है तुम्हारे ही लिए तो हैं।

एक दिन बच्चों का यह आक्रमण आरम्भ हुआ ही था कि मैं आ गया। मैंने उन्हें डाँटा, तो मुझ पर ही एक डाँट पड़ी, अरे तुझे तो ये कुछ नहीं कहते। तू क्यों हर वक्त इनके पीछे पड़ा रहता है! और जल्दी-जल्दी ताला खोलकर सबको कमरे में ले घुसे और मिठाई, फल बाँटने लगे।
अजीब-अजीब सवाल बच्चे उनसे पूछते और वे इस ढंग पर उनका जवाब देते कि बच्चों को आनन्द भी मिलता और ज्ञान भी। एक दिन छोटी-सी गायत्री ने पूछा,बाबा तुम्हारे बाल सफेद क्यों है ?
बोले,बेटी जब मैं छोटा था, अपना सिर नहीं धुलाया करता था। मैल भर जाने से बाल सफेद हो गये हैं। उत्तर की प्रतिक्रिया कितनी स्पष्ट थी,बाबा मैं तो रोज अम्मा से अपना सिर धुला लेती हूँ।
प्रतिक्रिया पर कितनी बढ़िया पॉलिश उन्होंने की-तभी तो तेरे बाल काले हैं बेटी !
पिताजी आप बुढ़ापे में भी इतने स्वस्थ हैं, इसका रहस्य क्या है, एक दिन मैंने पूछा तो बोले तीन मुख्य कारण है इसके।
1. मैं सदा नियमित रूप से ब्रह्मवेला में जागता हूँ और नहाने,खाने,घूमने आदि में भी नियमित रहता हूँ।
2. मैं सदा आदमी रहता हूँ,भगवान कभी नहीं बनता। तुम्हें सौ रुपये मिल गये तो खुश और खो गये तो गुम। मैं मानता हूँ सब काम ठाकुरजी की इच्छा से हो रहा है। आया भी उनका,गया भी उनका। सुख भी उनका, दुःख भी उनका।
3.मैं हमेशा बच्चों में खेलता हूँ। ये मुझे नया जीवन और फुर्ती देते हैं। हँसकर बोले, मेरे बाल-मित्रों में और बुढ़ापे में युद्ध हो रहा है। वह मुझे जितना थकाता है, ये उतनी ही शक्ति मुझे दे देते हैं। किसी दिन तो बुढ़ापा जीतेगा ही,पर खैर,अभी तो बेचारा पिट रहा है।

एक बार मुझे पतंगबाजी की धुन सवार हुई। उन्हें पता चला कि मैं दूसरे मुहल्ले में जाकर पतंग उड़ाता हूँ। बस दूसरे ही दिन बाजार से कई बढ़िया पतंगें हुचका और माँझा ले आये और ज्यों ही शाम को लौटा कि वे सब चीजें मुझे दीं।
बोले भाई आजकल शाम को जी नहीं लगता, इसलिए यह लाया हूँ तू छत पर शाम को पतंग उडाया कर, मैं भी देखा करूँगा। भाई साहब बहुत नाराज हुए और तो सब-कुछ पढा दिया। अब यह नयी शिक्षा आप इन्हें देंगे।
उनके उत्तर में उनकी स्पष्टता थी। बोले,पतंग तो लडके उड़ाएँगे ही। तुम उन्हें डाँटोगे, तो वे चोरी से बुरे लड़कों के साथ उड़ाएँगे और पैसों के लिए घर की चीजें बेचना सीखेंगे !
दूसरे दिन शाम को अपनी ही छत पर हमारी पतंग उड़ी। अपना हुक्का लेकर वे भी वहीं आ बैठे। पतंग सीधी हुई कि वे बोले, दे ढील। अरे ढील दे भाई, हुचका सीधा छोड़ दे। ढील ज्यादा दे दी और पतंग पेटा खा गयी तो तुरन्त हिदायत मिली, सँभाल, पेटा अरे पेटा,सँभाल। मार लम्बी खींच। कोई पतंग बराबरी में आयी और वे बोले दे गोत। यों नहीं यों नहीं,तिरछा। दे बायाँ गोत,दे बायाँ ! हमने गोत दिये और पेंच लड़ गये। पेंच लड़े कि वे बोले,दे ढील, अरे अब क्या है, दे ढील-छोड़ दे नाव खदा के हाथ ! ढील चल दी, पर पतंग कमजोर थी। तुरन्त बोले,मार ठुमकी। हलकी, एकदम हलकी,नहीं तो झर्र हो जाएगी पतंग। देखता नहीं,हवा सो रही है। पतंग जरा उठी, इठलायी और सरकी कि वे बोले, अब दे ढील। हुँचता ऊँचा कर ले। ऊँचा कर ले हुचका ! अब उन्होंने पतंग की ओर देखा बोले,घस्सा ठीक बैठ रहा है-कैंची खूब चल रही है ! तभी दूसरी पतंग कट गयी। हम अपने पहले मोर्चे पर कामयाब रहे। वे बोले, कटती कैसे नहीं, अण्डे की सूँत का माँझा लाया था मैं !

मुझे आश्चर्य हुआ कि वे पूरे पतंगशास्त्री हैं। पूछा, आपने भी कभी पतंग उड़ायी है पिताजी ? बोले हाँ बेटा अपने समय पर सभी उडाते हैं ? खेल भटककर ही आदमी बड़ा होता है। वे सूझ के धनी थे। इस सूझ की तीन धाराएँ थीं। पहली यह कि आप उनसे कहीं मजाक करें,अपनी वाकचातुरी से उन्हें मात देना चाहें,वे अपनी सूझ से फौरन आपको छका देंगे।
एक धनी यजमान की लड़की का विवाह था। लग्न था नौ बजे का पर बड़े आदमियों के बड़े प्रबन्ध,संस्कार आरम्भ हुआ रात में एक बजे। वर-पक्ष के तरुण पण्डित ने पूछा, पण्डितजी,किस लग्न में कार्यारम्भ हो रहा है यह ? वे उसके शास्त्रार्थी निशाने को ताड़ गये। बोले भैया यह फुरसत लग्न हैं। दोनों पक्षों को जब प्रबन्ध आदि से फुरसत मिल जाती है यह आरम्भ होता है। पण्डितजी झेंपे और लोग हँसे ! मुझसे बोले पहली ही टंकोर में चित्त हो गया बेटा।
दूसरी धारा थी चिकित्सा में। आयुर्वेद के वे कोई विशेष पण्डित न थे,पर कभी-कभी ऐसा निशाना लेते थे कि डिग्रियाँ और चोगे बगलें झाँकते रह जाते थे।
एक धनी सज्जन का बहलवान गाँव से गेहूँ भर लाया। गाड़ी हाँके चला आ रहा था कि उसकी जबाड़ी बन्द हो गयी। न कहीं दर्द, न बेहोशी, पर मुँह बन्द। डॉक्टर आये। कानी आँखों पर थरमामीटर थिरके स्टेथिसकोषों ने दिल की खबर ली,नो टेम्परेचर,नो हार्टट्रबल ! जम्बूड़ से मुँह फाड़कर अन्दाजन कुछ दवाएँ उसमें डाली गयीं, पर कुछ न हुआ।
वैद्य लोग पधारे। अत्यन्त गम्भीर मुद्रा में नाड़ी थामी गयी, उँगलियों ने बात,पित्त,कफ की सरगम नापी,परस्पर कुछ चोंचे लड़ीं, माधव निदान के श्लोकों का शुद्ध-अशुद्ध उच्चारण हुआ और बड़ी सावधानी के साथ कुछ रस-भस्में उतारी गयीं, पर बिलकुल उसी तरह जैसे अँग्रेजी राज के बागी उस जमाने में खैबर का दर्रा पार कर जाते थे।

तब हकीमजी तशरीफ लाये, अपना चोगा कन्धों पर और पान मुँह में सँभालते हुए। अपनी खानदानी हिकमत पर यों ही एक-आध उड़ता-सा इशारा डालकर आपने नब्ज देखी,दिल टटोला और चेहरे पर गौर फरमायी। कुछ समझ में नहीं आया, फिर भी बहुत गम्भीरता के साथ माजूने दिलकुशा को शर्बते दीनार में मिलाकर चटाने और ऊपर से एक छटाँक अर्क पुदीना और गुलाब मिलाकर पिलाने का मशवरा दे गये। चिमटे से मुँह खोलकर यह भी गले की भट्ठी में झोंक दिया गया,पर फूँस की ही तरह !
तब बुलाया गया कुन्दन सयाना। उसने इसे सैयद का असर बतलाया और ‘काली कलकत्ते वाली,भर ले खप्पर नाच बजा ताली’ का मंगलाचरण करके जाने कितने मन्तर-तन्तर पढ़े-किये पर सैयद न उतरा। मुफ्त का तमाशा कौन न देखे। लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी।
तभी इधर आ निकले पिताजी। उन्होंने उसे देखा और पाँच मिनट उसके साथियों से बातें की। वे घर से अपनी सुँघनी उठा लाये और दाब दी एक तगड़ी-सी चुटकी। तड़तड़ छीः एक दो तीन। आयीं पाँच-सात छींके और खुल गयी जबाड़ी ! रात में मैंने कहा, आज तो आपने चमत्कार कर दिया। बोले चमत्कार क्या था उसमें। गेहूँ इकट्ठे करने में दो रात जागा। बस थक गया बेचारे का पट्ठा-पट्ठा। आयी जो जँभाई तो खून रूक गया जबाड़े का-बस जबाड़ी बन्द ! छीकों ने नस-नस हिला दी। खून में हरकत आयी, जबाड़ा खुल गया। इस तरह के उनके कई संस्मरण हैं।

तीसरी धारा थी अपने मित्रों और यजमानों के आपसी झगड़े निपटाने में। वे दो विरोधियों के बीच में शक्कर की ऐसी डली बन जाते, जो धीरे-धीरे घुलकर दोनों को मीठा कर देती। इस दिशा में तो असल में सच्ची सद्भावना ही उनकी सूझ थीं।
पति-पत्नी के झगड़ों में उनकी सहानुभूति हमेशा मैंने पत्नी की ओर देखी, अरे भाई, स्त्री तो गाय है, उसका सताना,राम-राम। वह कभीं सींग भी मार दें, तो क्या ? हमेशा दूध और बछड़े देती हैं ! यह उनकी दलील थी। उनकी यह सहानुभूति इसलिए और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि माँ का स्वभाव काफी कड़वा था, पर सच तो यह है कि वे इतने मीठे थे कि संसार की कोई भी कड़वाहट, उन-तक पहुँचते-न-पहुँचते स्वयं मीठी हो जाती थी ?
सामाजिक परम्पराओं में मैं घोर क्रान्तिकारी और भारत के बूढ़े हैं घोर दकियानूस,पर हम दोनों में कभी टक्कर नहीं हुई। जब मैंने सार्वजनिक रूप से अपनी पत्नी को परदे से बाहर ला खड़ा किया तो मेरे कस्बे पर बिजली-सी गिर पड़ी-इस चरचा के सिवा लोगों को और जैसे कुछ काम ही न था। चौधरी लोगों ने तो इसे पंचायत बुलाने का विषय समझा। पिताजी ने मुझे समझाया तो मैंने केवल एक बात उनसे कही,पिताजी यदि मैं आपके युग के वातावरण में रहूँगा तो मेरे व्यक्तित्व का विकास रूक जायगा। आप इसे सोंच ले और यदि आपकी प्रसन्नता इसी में है, तो मैं इधर नहीं बढ़ूँगा। आधे घण्टे तक चुप बैठे रहे और तब अचानक बोले, हाँ बेटा, तू अपने ही रास्ते पर चल। गरमियों में रजाई ओढ़ना ठीक नहीं है ! मैं उनकी तरफ देखता रह गया। ओह,वे कितने अच्छे थे !

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book