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लो कहानी सुनो

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1264
आईएसबीएन :81-263-0897-4

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प्रस्तुत है कहानी संग्रह...

Lo kahani suno

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लो कहानी सुनो

‘लो कहानी सुनो’ में संकलित ये छोटी कहानियाँ प्राचीन भारतीय कथाओं की उस परम्पंरा में लिखी गयी हैं, जिनका उद्देश्य मनोरंजन के साथ मनुष्य को ‘समझदार’ बनाने का रहा है। जीवन का अनुभव सिर्फ पुस्तकों से नहीं प्राप्त होता, वह व्यक्तियों के जीवनानुभावों से भी प्राप्त होता है। दैनिक जीवन में ऐसे तमाम प्रसंग घटित होते रहते हैं जो प्रेरक होते हैं और व्यक्ति के विवेक को जाग्रत करते हैं।
कहा जा सकता है कि गोयलीय जी की ये कहानियाँ प्ररेक प्रसंगों का एक गुलदस्ता है। इन प्रसंगों में अपने समय के महान लोग भी हैं तो साधारण जन भी हैं। हर प्रसंग सोचने पर विवश करता है और उस मनुष्य सत्य को मुखरित करता है जिसकी महिमा का सन्तों ने गुणगान किया है।

प्रतिशोध



अमर सिंह चौहान और उदय सिंह राठौर की कई पीढ़ियों से बैर-भाव चला आ रहा था। बैर-भाव के मूल कारण का पता तो इनके पूर्वज भी न लगा सके, परन्तु बड़ों की यह आन बहुत ठसके से निभती चली आ रही थी। एक-दूसरे को मात देने की चालें भी अनोखी होती थीं। अमर सिंह के परदादा के यहाँ बारात आयी तो उदय सिंह के परदादा ने कसबे के दुकानदारों को बुलाकर कहा, ‘‘चौहानों के बराती जो भी सामान ख़रीदें, उनसे मूल्य कदापि न लेना, वह हम चुकाएँगे और खबरदार यह बात चौहानों को मालूम न होने पाये।’’

दो-चार वर्ष बाद उदय सिंह के बाबा की बहन की शादी हुई। बारात चौहान ठाकुर की हवेली के सामने से गुजरी तो हवेली की छत से अशर्फियों की बखेर की गयी। अमर सिंह की दादी ब्रदीनाथ की यात्रा करके सकुशल लौटीं तो उदय सिंह के बाबा ने 52 गाँव के ब्राह्मणों को भोज दिया। वर्षों की साध के बाद उदय सिंह की बुआ ने पुत्र जन्मा तो अमर सिंह के पिता ने छूचक में सोने का कटोरा और चन्दन का पालना दिया। अमर सिंह की बहन का ब्याह हुआ तो कस्बे की सीमा लाँघने से पहले ही उदय सिंह के पिता ने बारात को रोककर डोले का पर्दा उठाकर रुद्ध कण्ठ से कहा, ‘‘बेटी ! क्या अपने चचा से बिन बोले ही चली जाओगी ?’’

राठौर चाचा को देखते ही चौहान-बेटी डोले से उतर पड़ी और गले से लगकर फफक-फफककर रोने लगी। राठौड़ ठाकुर आँसुओं को पीते हुए भतीजी और दामाद के सिर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘मैंने तुम्हारे लिए यह नागौरी बैलोंवाला रथ जयपुर से बनवाकर मँगवाया है। इसी में बैठकर जाओ।’’ जब वर-वधू राठौड़ चाचा के पाँव छूकर रथ में बैठ गये तो वर को 21 गिन्नियों से तिलक किया और वधू को हाथी दाँत का श्रृंगार-बक्स देकर विदा किया।

राठौड़-चौहान वंश में बहुएँ पुत्र को जनतीं तो एक पक्ष दूसरे पक्ष के यहाँ बच्चा गोद-खिलाई की रस्म के तौर पर गाय भिजवाता। होली-दीवाली पर मिठाई-मेवों के थालों का आदान-प्रदान होता परन्तु कोई किसी के यहाँ मिलने न जाता। मार्ग में आते-जाते झलक मिलती तो गास्ता काटकर निकल जाते। एक-दूसरे की उदारता देखकर मन-ही-मन में किलसते। उक्त प्रकार के सौजन्यपूर्ण व्यवहार भविष्य में न किये जाएँ, यह कहने का साहस भी उभय पक्ष में से किसी को न होता। क्योंकि कई पीढ़ियों से इस तरह का बैर-भाव निभता चला आ रहा था। मना करने की पहल करके कौन पराजय स्वीकार करे ? दोनों ही पक्ष ठकुराई ठसक में किसी को भी न बदते थे; और एक-दूसरे को मात देने की नित-नयी चाल सोचते रहते थे।
अमर सिंह और उदय सिंह दोनों युवक थे, शिक्षित थे। देश-विदेश का भ्रमण कर चुके थे। कई पारमार्थिक संस्थाओं के संस्थापक और व्यवस्थापक थे। इन दोनों के गुण-शील को देखकर जनता को आशा हुई कि पूर्वजों से चला आया बैर-भाव अब समाप्त हो जाएगा, किन्तु लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही, जब उन्होंने सुना कि अमर और उदय एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं।

अमर सिंह की पत्नी का अकस्मात् हृदय-गति बन्द हो जाने से स्वर्गवास हुआ तो वह बेहोश हो गया। अपने हाथों वह उसका दाह संस्कार भी न कर सका। बेहोशी  के दौरे कई रोज तक पड़ते रहे। जब कभी होश आता तो कभी प्रलाप करने लगता, कभी पास खड़ी हुई बहन का हाथ पकड़कर मन्त्रोच्चारण-सा करने लगता, फिर बेहोश हो जाता। डॉक्टरों की चिकित्सा से लाभ न होते देख वैद्यराज शिवदत्त मिश्र बुलाये गये।
शिवदत्त मिश्र उदय सिंह राठौड़ के पारिवारिक निजी चिकित्सक थे। उनके यहाँ से एक गाँव जागीर में मिला था। मासिक वृत्ति भी पाते थे। भेंट-पूजा भी समय-समय पर मिलती रहती थी। अपना व्यवसाय चलाने की उन्हें स्वतन्त्रता थी। फिर भी अमर सिंह चौहान की चिकित्सा का भार उठाने से पूर्व उन्होंने अनुमति लेना जरूरी समझा। अमर सिंह के यहाँ जाने से ठाकुर बुरा मान गये तो ? अथवा कल-कलाँ को अमर सिंह को कुछ हो गया तो लोग कहेंगे-राठौड़ ठाकुर ने अपने बैद्य से विष दिलवा दिया।’ वैद्य जी ने हिम्मत बाँधकर अभिप्राय प्रकट किया तो उदय सिंह रुद्ध कण्ठ से बोले, ‘‘बैद्यराज ! ठाकुर अमर सिंह को जैसे भी बने, नीरोग कीजिए। मैं उनके बराबर सोना तोलकर आपकी नज़र करूँगा ?’’

वैद्य जी ने निश्चयात्मक जवाब दिया, ‘‘ठाकुर साहब, मैं उनके लिए अपनी जान लड़ा दूँगा। मैं कोई प्रयत्न शेष नहीं छोड़ूँगा। आप उनके शत्रु होकर जब अपने दयार्द्र हैं, तब मैं वैद्य होते हुए अपना कर्तव्य क्यों नहीं निबाहूँगा ? आपका दिया हुआ मेरे पास सब कुछ है। दया करके उनकी चिकित्सा के लिए मुझे लोभ न दीजिए। मैं एक पाई भी इस सम्बन्ध में नहीं लूँगा। क़ीमती-से-क़ीमती दवा देकर उन्हें नीरोग करने का यत्न करूँगा।’’ फिर तनिक मुस्कराते हुए बोले, ‘‘ऐसे शत्रु के प्रति आपकी यह ममता और विकलता देखकर हृदय गद्गद हुआ जा रहा है। आप बहुत महान् हैं।’’

ठाकुर उदय सिंह ने सरल स्वभाव जवाब दिया, ‘‘इसमें महानता की तो कोई बात नहीं, वह मेरा शत्रु है, मैं उससे अवश्य प्रतिशोध लूँगा। मैं नहीं चाहता था कि पूर्वजों के चले आये बैर-भाव को स्थायी रखा जाये; किन्तु उसी ने नवीन शत्रुता की नींव डाली। मैंने कल तक यह भेद किसी पर प्रकट नहीं किया था, आज आपसे पहली बार कह रहा हूँ। उसकी वह सोलंकी पत्नी शादी से पूर्व मेरी प्रेयसी थी। हम दोनों ने मन्दिर में एकाकार हो जाने का कौल-करार भी कर लिया था। मेरी उसी प्रेयसी से शादी करके मानो उसने मेरे सीने पर घूँसा मारा है। मेरी नाक को नाली में रगड़ा है। सिंह के सामने से उसकी प्रिया को ओझल किया गया है। इच्छा हुई कि सुहाग कक्ष में प्रवेश करने से पूर्व उसे समाप्त कर दूँ, ताकि मेरी प्रिया के पवित्र आँचल को स्पर्श न कर सके। किन्तु मेरी प्रिया का सुहाग उजड़ जाएगा, यह ख्याल आते ही भरा हुआ पिस्तौल लिये मैं घर लौट आया। शादी के बाद के यह चार वर्ष किस तरह तड़प-तड़पकर काटे हैं, बयान नहीं कर सकता। अब वह स्वर्गस्थ हुई तो मन का अजगर फिर बदला लेने को अधीर हो उठा, किन्तु अफ़सोस कि वह वार करने से पूर्व ही बीमार हो गया।’’

प्रतिशोध की बात सुनी तो एक खुशामदी दाँत निपोरते हुए बोला, ‘‘अन्नदाता ! वैद्यजी से रत्ती भर विष दिलवा दीजिए। बदला लेने का इससे अच्छा सुयोग फिर नहीं मिलेगा। साँप भी मर जाएगा और लाठी भी सही सलामत रहेगी।’’
सुनकर ठाकुर चराग-पा हो गया। डपटकर बोले, ‘कमीने ! जबान बन्द रख, वरना गरम चीमटे से दाग दूँगा। मैं उसका शत्रु ज़रूर हूँ, मगर नरभक्षी लकड़बग्घा नहीं। विपक्षी को नीरोग करके चेतावनी देकर सामने से वार करूँगा। मचान पर छिपकर सिंह का बध नहीं करूँगा।’’

वैद्यजी की चिकित्सा से बेहोशी के दौर समाप्त हो गए थे। प्रलाप का वेग भी शमन हो चला था, परन्तु अमर सिंह अभी खतरे से बाहर नहीं हुए थे। रह-रहकर दिल डूबने-सा लगता था। उनके शुभेच्छु नहीं चाहते थे कि वैद्यजी का इलाज अधिक चलाया जावे। उन्हें रह-रहकर आशंका होने लगती थी। इष्ट मित्रों के मनोभाव ताड़कर ठाकुर अमर सिंह क्षीण स्वर में बोले, ‘‘तुम लोग उदय सिंह राठौड़ को नहीं समझ पाये। वह मेरा शत्रु है, मैं उसे ख़ूब पहचानता हूँ। वह कभी कमीना वार नहीं करेगा। सामने ललकारकर लड़ेगा। यदि उसे कायरतापूर्वक बदला लेना होता तो दसहरे के अवसर पर भँवर में घिरी हुई नाव से हम दोनों को निकालकर अपनी नाव पर न लेता। हम पति-पत्नी को भँवर में डुबकियाँ खाते हुए मरते देखकर वह रोम के नीरो की तरह बाँसुरी बजा सकता था।’’ फिर एक दीर्घ निःश्वास छोड़ते हुए बोले-‘‘काश, मुझे पाणिग्रहण संस्कार से पूर्व आभास मिल गया होता कि मेरी होनेवाली पत्नी उदय सिंह राठौड़ की मँगेतर है, तो मुझसे यह अनाधिकार चेष्टा कभी न होती। मैं स्वयं अपना मौड़ उदय सिंह के सिर पर रखकर अपनी उस बहन का हाथ उसके हाथ में दे देता परन्तु अब पछताये का होत है, जब चिड़िया चुग गयी खेत’।’’

मित्रों में से एक ने कानों को हाथ लगाते हुए कहा-‘‘ठकुरानी को बहन न कहें सरकार ! उनकी आत्मा वैकुण्ठ में संकोच अनुभव कर रही होगी।’
द्राक्षासव से कण्ठ तर करते हुए अमर सिंह ने क्षीण स्वर में कहना जारी रखा-‘‘मेरे भाई ! वह सती रत्न मेरी धर्म बहन थी। सुहागरात को शयन कक्ष में गया तो वह मुँह खोले हुए हाथ में राखी लिए खड़ी थी। मैं यह दृश्य देखकर हतप्रभ-सा हो गया तो वह स्वयं ही निःसंकोच मुखरित हुई-‘‘‘मैं ठाकुर उदय सिंह राठौड़ की वाग्दत्ता थी, हम दोनों ने शिव-पार्वती के सामने प्रण किया था; परन्तु माँ ने आपके साथ बाँध दिया। माँ के आदेश की अवज्ञा तो मैं नहीं कर सकी, परन्तु मन से आपको भी वरण न कर सकी ! मैं आपकी सहधर्मिणी बनने योग्य नहीं। मैं यह राखी बाँधकर आपसे बदले में यह चाहती हूँ कि आप मेरे तन का स्पर्श पत्नी समझकर न करें। मुसलमान बादशाहों ने भी राखी की लाज रखी है, आप भी आशा है मेरे सतीत्व को अक्षुण्ण बनाये रखेंगे।’’

कुमारी सोलंकी का निश्चय सुनकर थोड़ी देर तो मैं किंकर्तव्यमूढ़-सा खड़ा रहा। फिर किसी तरह कहा-‘‘राखी बाँधने की जरूरत नहीं भद्रे ! मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि प्रकट में तो हम पति-पत्नी का अभिनय करते रहेंगे, किन्तु एकान्त में, अन्तरंग विश्वस्त मित्र के समान रहेंगे। क्षण भर को भी वासना का उदय न होगा।’’
फिर एक दिन मैंने जिज्ञासा प्रकट की-‘‘शीले ! जब तुम दोनों प्रणय-बन्धन में बँध चुके थे, तब अपने मनोभाव अपनी माँ पर प्रकट क्यों नहीं किये ? इस तरह घुट-घुटकर जीवन निःशेष करने का निश्चय क्यों किया ?’’

वह कातर होकर बोली-‘‘बन्धन स्वीकृत करने से पूर्व मुझे मालूम न था कि आपके और मेरे पिता हम दोनों के जन्म लेने से पूर्व ही वचनबद्ध हो चुके थे। कि दोनों मित्रों के यहाँ यदि पुत्र और पुत्री हुए तो दोनों का परस्पर विवाह करके मैत्री को स्मरणीय बनाएँगे। पिता मरते हुए भी माँ से वचन लेते गये। मुझे पिताजी की प्रतिज्ञा का तनिक भी आभास मिला होता तो मैं उदय सिंह की छाया से भी दूर रहती और मन, वचन, काय से तुम्हारी सिर्फ़ तुम्हारी होती। माँ को अपना मनोभाव प्रकट करती तो वह सिर फोड़-फोड़कर प्राण दे देती, क्योंकि पति के वचन को भंग करना वह अपने सतीत्व पर कलंक समझती। लाचार मैंने दिल पर पत्थर बाँधकर उसी मन्दिर में उदयसिंह को बुलाकर शिव-पार्वती के समक्ष खड़े होकर उससे कहा-‘‘मुझ दूध पीती बच्ची को ही पिताजी ठाकुर अमर सिंह की वाग्दत्ता बना गये हैं, यह मुझे मालूम न था। यदि तुमने मुझे पवित्र हदय से चाहा है तो मेरी पवित्रता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए यह ज़रूरी है कि मेरी छाया से भी दूर रहा जाये। दिल में धुआँ घुटता रहे, परन्तु ओठों से उठता दिखाई न दे। वह बिना कुछ जवाब दिये सन्तप्त मन लिए तुरन्त चले गये थे।’’


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