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गहरे पानी पैठ

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1246
आईएसबीएन :81-263-0392-1

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इसमें गोयलीय जी की ऐसी कहानियाँ हैं जो जीवन का असली रूप दिखाती हैं,उसे सजाने-सँवारने और सम्पन्न बनाने की राह बताती हैं।

Gahre Pani Paith

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

एक डुबकी


जिन खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी ढूँढ़न गयी, रही किनारे बैठ।।
महात्मा कबीर का यह दोहा बहुत प्रसिद्ध है। अर्थ भी सीधा है-विद्यार्थियों को केवल यह बताना पड़ता है कि ‘बौरी’ का अर्थ ‘बावरी’ या पगली है। इसके बाद विद्यार्थी बड़ी सरलता से अर्थ कर देता है-
‘‘जिसने खोजा, उसने गहरे पानी में उतरकर ही पाया। मैं ऐसी पागल कि ढूँढ़ने गयी तो किनारे पर बैठकर ही रह गयी।’’
इस तरह उक्त दोहे का अर्थ तो शब्दों के किनारे पर बैठकर झलक आता है, पर भाव समझने के लिए इस ज्ञान-वापी में गहरे उतरना पड़ता है। कबीर की जीवन-व्यापी सारी साधना का तत्त्व इस दोहे में निहित है। कबीर, तत्त्व के जिस स्पष्ट दर्शन और गूढ़ बात को सादगी से समझा देने के लिए विख्यात हैं, उसका उदाहरण भी इस दोहे में मिलता है। कबीर का ‘कवि’ भी अपनी समस्त भावुकता के साथ दोहे के भाव में व्याप्त है। कबीर की प्रणयाकुल आत्मा अपने प्रियतम, अपने भगवान की खोज में निकली तो दुनिया भर में भटक आयी-घाट-घाट पर झाँक आयी। पर प्रियतम की प्राप्ति नहीं हुई। भगवान तो घट के अन्दर व्याप्त हैं, हृदय की इस वापी में बिना उतरे, बिना चूड़ान्त डूबे वह कहाँ मिलेंगे ? भगवान तो शेषनाग की शय्या पर क्षीरसागर में शयन करते हैं न ! हाय, मैं कैसी बावली हूँ जो ऊपर ही ऊपर देखती रही, किनारे ही किनारे बैठी रही।

तात्पर्य यह, कि जितना सोचते जाइये, गहरे उतरते जाइये, उतना ही अर्थ और मर्म उजागर होता चला जाएगा। धर्म, कर्म, अध्ययन, भोग और योग सबकी सफलता की कुंजी और आदेश-वाक्य एक ही है-‘‘गहरे पानी पैठ।’’
जब महात्मा कबीर ने उक्त दोहे में दूसरा पद ‘गहरे पानी पैठ’ डाला था तो उन्हें रहस्यवादी होते हुए भी यह क्या पता था कि प्रायः 400 वर्ष बाद गोयलीय नाम का एक लेखक उनकी साधना और सिद्ध भूमि काशी से ऐसी पुस्तक प्रकाशित करेगा, जो उक्त पद के अमर तथ्य को पुस्तक का शीर्षक बनाकर प्रचारित करेगा। भारतीय ज्ञानपीठ के मंत्री श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय ने कबीर के इस सूत्र को जीवन का सूत्रधार बनाया है, जो उनके जीवन और प्रयास को सार्थक बनाता है। उनकी एक अत्यन्त सफल कृति ‘शेर-ओ-शायरी’ के दो संस्करण हम ज्ञानपीठ से प्रकाशित कर चुके हैं। जहाँ ‘शेर-ओ-शायरी’ में गोयलीय जी ने विशाल उर्दू-साहित्य के सागर में गहरे पैठकर गौहर निकाले थे, वहाँ ‘गहरे पानी पैठ’ में अनादि अनन्त जीवन की सागर-सरिताओं में डूबकर और ग्रन्थों को मथकर उन्होंने कुछ रत्न निकाले हैं। इसमें मन्थन के रत्न भी हैं और फेन भी हैं। फेन न होते तो रत्नों की चमक और उनका निखार उतना न उभर पाता।

‘गहरे पानी पैठ’ में कुल मिलाकर 117 कहानियाँ, किवंदन्तियाँ, संस्मरण, आख्यान और चुटकुले हैं। यह सब तीन खंडों में विभक्त है-
1.गुरुजनों के चरणों में बैठकर जो सुना- (55 शीर्षक)
2.इतिहास और धर्मग्रन्थों में जो पढ़ा (47 शीर्षक)
हिये की आँखों से जो देखा (15 शीर्षक)
इतिहास और धर्मग्रन्थों से ली गयी कथाएँ नीति और शिक्षा की दृष्टि से उपादेय हैं, पर नीति के साथ-साथ लेखक की कारीगरी जिन अंशों में चमत्कृत होती है, वह हैं ‘बड़े जनों के आशीर्वाद से’ के अन्तर्गत दी हुई दन्तकथाएँ और ‘हिये की आँखों से’ देखे गये संस्मरण। दन्तकथाएँ हों, चाहे संस्मरण, सबके मूल में होती हैं जीवन की कुछ ऐसी घटनाएँ जो युग-युग के अनुभव को और जीवन की चित्र-विचित्र परिस्थितियों को साररूप में रख देती हैं और जिन्हें भूलना कठिन होता है। इन घटनाओं के चित्रण का जहाँ एक उद्देश्य मनोरंजन है, वहाँ जीवन-कौशल की शिक्षा और नीति का प्रसार भी है। जातक, हितोपदेश, पंचतन्त्र और Aesop’s fables से लेकर ‘अलिफ़ लैला’ तक इस प्रकार की सभी पुस्तकें प्रायः मनोरंजन और नीति-शिक्षा दोनों उद्देश्यों को साधती हैं। प्रस्तुत संग्रह में दोनों उद्देश्यों का ध्यान रखा गया है। जहाँ दोनों का सन्तुलन है, वहीं आख्यान मन और हृदय को पूरी तरह से प्रभावित करता है।

इस प्रकार के आख्यानों और लोक-प्रचलित कथाओं में कथा-भाग तो प्रायः विदित और पुराना ही रहता है, पर लेखक अपनी शैली, भाषा और वर्णन के चमत्कार से उनमें नया आकर्षण उत्पन्न करता है। जिस प्रकार आषाढ़ के प्रथम दिवस का मेघ सब किसी को पुलकित करता है, पर उस श्यामल आर्द्रता को व्यक्त करने के लिए सभी कालिदास नहीं बन पाते। इसी तरह प्रचलित कथाओं को जाननेवाला प्रत्येक व्यक्ति न ‘हितोपदेश’ का विष्णु शर्मा बन सकता है न Fables का ईसप। गोयलीय जी की साहित्यिकता ही नहीं, उनके व्यक्तित्व की विशेषता भी उनकी आकर्षण वर्णनशैली और टकसाली, बामुहावरा भाषा में है।

जिन लोककथाओं को आप पहले सुन चुके हैं, उन्हें आप इस संग्रह में भी देखेंगे तो पाएँगे कि प्रायः प्रत्येक कहानी को सजीव बनाने का प्रयत्न किया गया है और पात्रों के सहज वातावरण के अनुसार स्वाभाविक भाषा का प्रयोग किया गया है। जहाँ भी सम्भव हुआ है, कहानी के निर्वैयक्तिक आकार को नाम और रूप के उपयुक्त रंगों से भरा गया है। यदि एक कुत्ते को मथुरा से दिल्ली जाना है तो रास्ते में चौमा, छटीकरा, छातई, कोसी, होडल पलवल, बल्लभगढ़, फ़रीदाबाद, निज़ामुद्दीन और ओखला के बिरादरी भाइयों से उसकी मुलाक़ात और आवभगत का उल्लेख किया गया है ताकि यात्रा का भूगोल कहानी की वास्तविकता और प्रभाव को बढ़ा सके।

‘मौलवी की दाढ़ी’ का क़िस्सा घटना की वजह से दिलचस्प नहीं है, उसमें ज़बान की मिठास और मुहावरों की रवानी के कारण मुंशी प्रेमचन्द की शैली का आनन्द आता है-
‘‘ख़ुदा के वास्ते मुझे भी एक बाल अता फर्माइये, ताकि बतौर तवर्रक़ अपनी जान से भी ज़्यादा अजीज रख सकूँ और मन की मुरादें पूरी कर सकूँ-
‘‘मुल्लाजी ने तारीफ़ सुनी तो बाँछे खिल गयीं। आव देखा न ताव, चट एक बाल नोचकर मौलवी लतीफ़ को मरहम्मत फ़रमा दिया। बाल का देना था कि गाँवाले भी इसरार करने लगे...सब एकबारगी टूट पड़े। और इस न्यामत से कोई महरूम न रह जाये, इसी आपाधापी में मुल्लाजी की दाढ़ी ठूँठ हो गयी।’’
‘बुढ़िया पुराण’ में घटना नगण्य है, मगर मियाँ-बीबी की बातचीत का इतना पुरलुत्फ़ तूमार बाँधा है कि अज़ीमबेग़ चग़ताई की याद आ जाती है।

इस लिहाज़ से ‘उचक्का’ भी कम कम मज़ेदार नहीं। दिल्ली की फूलवालों की सैर में ‘‘यह हज़रत भी एड़ी से चोटी तक ऐनफैन बने हुए थे। पाँव में 16-17 रु. का सलेमशाही जूता, 5 पीके लट्ठे का चूड़ीदार चुस्त पायजामा, शरीर में चुन्नटदार तनज़ेब का अँगरखा और पट्टेदार बालों पर दिल्ली की बँधी हुई गोलेदार पगड़ी। आँखों में सुरमा लगाये, मुँह में पान खाये, और हाथ में चाँदी की मूठ की बेत लिये दो क़दम में मुसाफ़िर के पीछे हो लिये।’’
‘रँगा स्यार’, में वर्णन का दूसरा ही रंग नज़र आता है-

‘‘सूर्य के संध्या से पाणिग्रहण करते ही रजनी काली चादर डालकर सुहागरात के प्रबन्ध में व्यस्त थी। जुगनू सरों पर हण्डे उठाये इधर-उधर भाग रहे थे। दादुरों के आशीर्वादात्मक गीत समाप्त भी न हो पाये थे कि क़ुमरी ने सरु के वृक्ष से, कोयल ने अमुआ की डाल से, बुलबुल ने शाखे गुल से बधाई के राग छेड़े। श्वानदेव और वैसाखनन्दन अपने मँजे हुए कण्ठ से श्यामकल्याण अलापकर इस शुभ संयोग का समर्थन कर रहे थे, झींगुर देवता सितार बजा रहे थे। कट्टो गिलहरी नाचने को प्रस्तुत थीं, पर रात्रि अधिक हो जाने से वह तैयार न हुई। फिर भी उलूकखाँ वन्द बूमखां अपना खुरासानी और श्रीमती चमगीदढ़-किशोरी अपनी ईरानी नृत्य दिखाकर अजीब समाँ बाँध रहे थे।’’

पहले खण्ड की लोकप्रियता कथाओं और किंवदन्तियों में प्रायः देहली की बोलचाल और सभ्यता का परिचय मिलता है। कहानियों का परिधान उसी क्षेत्र का है। दिल्ली के पास हैं गुड़गाँव, रोहतक, नारनौल और दूसरे देहाती जिले, जहाँ के जाटों की अक्खड़, सरलता अनेक परिहासपूर्ण किंवदन्तियों का प्राण है। ‘जाट की कृतज्ञता’ किस सरलता से प्रगट हुई है-
‘‘अरे साव, तेरा चराग़अली नाम किस मूरख ने रखा है ? तू तो मसालअली है।’’
‘ज़िद’,‘नील का भैंसा’ और ‘टिकिट बाबू का फूफा’ जट-विद्या और जट-बुद्धि के मनोरंजक उदाहरण हैं।

इन कहानियों के हास-परिहास और नीति-ज्ञान के पीछे जो जीवन की झाँकियाँ हैं; लेखक ने उन्हें अपने हृदय के शीशे में उतारा है-वह पात्रों के साथ हमजोली बनकर खेला है हँसा है और रोया है-या तल्लीनता से उनका चित्रण किया है। पुस्तक का तीसरा खण्ड इस दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि मानवता के अनेक सजीव चित्र उसमें अंकित किये गये हैं। देहली के एक धनी सर्राफ़ के निर्धन सम्बन्धी, जिन्होंने अपनी इज्जत बचाने के लिए गाँठ की गिन्नी सर्राफ की गिन्नी के ढेर में मिला दी थी; साधु-स्वभाव, निरक्षर बिहारीलाल जो जीवन के विष को अमृत पिला सके, दो भाई जो एक दूसरे की रक्षा के लिए फाँसी के तख्ते को चूमने को तैयार हो गये, सुन्दर नाम की वह बुढ़िया हलालख़ोरी जिसने लेखक के जेल से छूटने पर दामन फैलाकर दुआ दी और जिसने गद्गद होकर कहा-‘‘मुबारक आज का दिन जो अपने जुध्या के हाथ से मुझे यह लेहना नसीब हुआ,’’ और वह मुंशी ऊधमसिंह, जिन्होंने 200 रु. की असह्य रक़म का चुपचाप घाटा इसलिए उठा लिया कि किसी निरपराध मनुष्य पर उसके कारण कहीं कुछ अत्याचार न हो जाये-यह सब ऐसे चित्र हैं जिन्हें पढ़कर दिल भर आता है और मानवता के इन मूक, ग़रीब, स्वाभिमानी प्रतिनिधियों के प्रति मस्तक आदर से झुक जाता है। गोयलीय जी इन सफल रेखाचित्रों की कलाकारिता के लिए बधाई के पात्र हैं। काश, वह ऐसे रेखाचित्र हिन्दी संसार को लगातार देते रहें-जीवन का प्रवाह अनन्त और पारावार असीम है। गोयलीय जी जैसे साधक ही डुबकी लगाकर नये से नये आबदार मोती निकाल सकते हैं। भारतीय ज्ञानपीठ लोकोदयकारी साहित्य की अभिवृद्धि के लिए इस प्रकार के प्रकाशन प्राप्त करने के लिए सदा प्रयत्नशील रहेगा।

जीवन की सार्थकता

एक अत्तारकी दूकानमें गुलाबके फूल घोटे जा रहे थे। किसी सहृदयने पूछा-‘‘आप लोग उद्यान में फले-फूले, फिर आपने ऐसा कौन-सा अपराध किया, जिसके कारण आपको ऐसी असह्य वेदना उठानी पड़ रही है ?’’
कुछ फूलों ने उत्तर दिया-‘‘शुभेच्छु, हमारा सबसे बड़ा अपराध यही है कि हम एकदम हँस पड़े, दुनिया से हमारा यह हँसना न देखा गया। वह दुखियों को देखकर समवेदना प्रकट करती है, दया का भाव रखती है, परन्तु सुखियोंको देख ईर्ष्या करती है, उन्हें मिटाने को तत्पर रहती है। यही दुनिया का स्वभाव है।’’
बाकी फूलोंने उत्तर दिया-‘‘किसी के लिए मर मिटना, यही तो जीवनकी सार्थकता है।’’
फूल पिस रहे थे, पर परोपकारकी महक उनमें-से जीवित हो रही थी। सहृदय मनुष्य चुपचाप ईर्ष्यालु और स्वार्थी संसार की ओर देख रहा था।
अनेकान्त, जून 1939 ई.

दिलमें खोट

एक मार्ग चलती हुई बुढ़िया जब काफ़ी थक चुकी तो पाससे जाते हुए एक घुड़सवारसे दीनतापूर्वक बोली-
‘‘भैया, मेरी यह गठरी अपने घोड़ेपर रख ले और जो उस चौराहे पर प्याऊ मिले, वहाँ दे देना। तेरा बेटा जीता रहे, मैं बहुत थक गई हूँ। मुझसे अब यह उठाई नहीं जाती।’’
घुड़सवार ऐंठकर बोला-‘‘हम क्या तेरे बाबा के नौकर हैं, जो तेरा सामान लादते फिरें ?’’ और यह कहकर वह घोड़ेको ले आगे बढ़ गया। बुढ़िया बेचारी धीरे-धीरे चलने लगी। आगे बढ़कर घुड़सवार को ध्यान आया कि गठरी छोड़कर बड़ी ग़लती की। गठरी उस बुढ़िया से लेकर प्याऊवाले को न दे यदि मैं आगे चलता बनता, तो कौन क्या कर सकता था ? यह ध्यान आते ही वह घोड़ा दौड़ाकर फिर बुढ़ियाके पास आया और बड़े मधुर वचनोंमें बोला-
‘‘ला बुढ़िया माई, तेरी यह गठरी ले चलूँ, मेरा इसमें क्या बिगड़ता है, प्याऊपर देता जाऊँगा।’’
बुढ़िया बोली-‘‘नहीं बेटा, वह बात तो हो गई, जो तेरे दिल में कह गया है वही मेरे कानमें कह गया है। जा अपना रास्ता नाप ! मैं तो धीरे-धीरे पहुँच ही जाऊँगी।’’
घुड़सवार मनोरथ पूरा न होता देख अपना-सा मुँह लेकर चलता बना।
-अनेकान्त, फरवरी 1939 ई.

क्या सोचें ?

एक ध्यानाभ्यासी शिष्य ध्यान-मग्न थे कि सीकारेकी-सी आवाज़ करते हुए ध्यानसे विचलित हो गये। पास ही गुरुदेव बैठे थे, पूछा-‘‘वत्स ! क्या हुआ ?’’
शिष्य ने कहा-‘‘गुरुदेव ! आज ध्यानमें दाल-बाटी बनाने का उपक्रम किया था। आपके चरणकमलों के प्रतापसे ध्यान ऐसा अच्छा जमा कि यह ध्यान ही न रहा कि यह सब मन की कल्पनामात्र है। मैं अपने ध्यान में मानो सचमुच ही दाल-बाटी बना रहा था कि मिर्चें कुछ तेज़ हो गई और खाते ही सीकारा जो भरा तो ध्यान भंग हो गया। ऐसा उत्तम ध्यान आज-तक कभी न जमा था, गुरुदेव ! मुझे वरदान दें कि मैं इससे भी कहीं अधिक ध्यान-मग्न हो सकूँ।’’
गुरुदेव मुसकराकर बोले-‘‘वत्स ! प्रथम तो ध्यान में-परमात्मा, मोक्ष, सम्यक्त्व, आत्म-हितका चिन्तन करना चाहिए था, जिससे अपना वास्तव में कल्याण होता, ध्यान का मुख्य उद्देश्य प्राप्त होता और यदि पूर्व-संचित संस्कारों के कारण सांसारिक मोह-मायाका लोभ संवरण नहीं हो पाया है तो ध्यान में खीर, हलुवा, लड्डू, पेड़ा आदि बनाये होते, जिससे इस वेदना के बजाय कुछ तो स्वाद प्राप्त हुआ होता। वस्त ! स्मरण रक्खो, हमारा जीवन, हमारा मस्तिष्क सब सीमित हैं। जीवन में और मस्तिष्क में ऐसे उत्तम पदार्थोंका संचय करो जो अपने लिए ज्ञान-वर्द्धक एवं लाभप्रद हों। व्यर्थ की वस्तुओं का संग्रह न करो, ताकि फिर हितकारी चीज़ों के लिए स्थान ही न रहें।’’
अनेकान्त, जून 1939 ई.

राणा प्रताप का भाट

जब वीर-केसरी राणा प्रताप जंगलों और पर्वत-कन्दराओं में भटकते फिरते थे, तब उनका एक भाट पेट की ज्वाला से तंग आकर शहंशाह अकबर के दरबार में पहुँचा और सिर की पगड़ी बगल में छिपाकर फ़र्शी सलाम झुका लाया। अकबर ने भाट की यह उद्दण्डता देखी तो तमतमा उठा और रोष भरे स्वर में बोला-
‘‘पगड़ी उतारकर मुजरा देना, जानता है कितना बड़ा अपराध है ?’’
भाट अत्यन्त दीनता-पूर्वक बोला-‘‘अन्नदाता ! जानता तो सब कुछ हूँ; मगर क्या करूँ, मजबूर हूँ। यह पगड़ी हिन्दूकुल-भूषण राणा प्रतापकी दी हुई है। जब वे आपके सामने न झुके, तब उनकी दी हुई यह पगड़ी कैसे झुका सकता था ? मेरा क्या है, मैं ठहरा पेट का कुत्ता, जहाँ भी पेट भरने की आशा देखी, वहीं मान-अपमान की चिन्ता न करके पहुँच गया। मगर जहाँ-पनाह....’’
अकबर ने सोचा-‘‘वह प्रताप कितना महान है, जिसके भाट तक शत्रुके शरणागत होने पर भी उसके स्वाभिमान और मर्यादा को अक्षुण्ण रखते हैं।’’
अनेकान्त, मार्च 1931 ई.

शत्रुपर विजय

किसी पुस्तक में पढ़ा था, कि अमुक देश की जेल में एक क़ैदी, जेलर के प्रति विद्रोह की भावना रखने लगा। वह जेलर के नाक-कान काटने की तजवीज़ सोच रहा था कि जेलर ने उसे बुलाया और कमरा बन्द करके उससे अपनी हजामत बनवानी शुरू करदी। हजामत बनवा चुकने पर जेलर ने कहा-
‘‘कमरा बन्द है, ऐसे मौक़ेपर तुम मेरे नाक-कान काटनेवाली अभिलाषा भी पूरी कर लो। मैं क़सम खाता हूँ कि यह बात किसी से न कहूँगा।’’
जेलर और भी कुछ शायद कहता मगर उसकी गर्दन पर टप-टप गिरने-वाले आँसुओं ने उसे चौंका दिया। वह क़ैदी का हाथ अपने हाथों में लेकर अत्यन्त स्नेहभरे स्वर में बोला-
‘‘क्यों भाई ! क्या मेरी बात से तुम्हारे कोमल हृदय को आघात पहुँचा ? मुझे माफ़ करो, मैंने ग़लती से तु्म्हें तकलीफ पहुँचाई।’’
अभागा क़ैदी सुबक-सुबक कर जेलर के पाँवों में पड़ा रो रहा था, जेलर के प्रेम, विश्वास और क्षमाभाव के आगे उसकी विद्रोहाग्नि बुझ चुकी थी। वह आँखों की राह अपने हृदय की वेदना व्यक्त कर रहा था।
अनेकान्त, जुलाई 1939 ई.

त्यागी

साहूकार की माता ने कहा-‘‘बेटा ! तुम लाखों रुपये का लेन-देन करते हो, पर मैंने आजतक एक लाख रुपया एक स्थान पर रक्खा हुआ नहीं देखा। एक लाख रुपया चुनकर रखने से कितना लम्बा-चौड़ा, ऊँचा चबूतरा बनता है यह मैं उस चबूतरे पर बैठकर देखना चाहती हूँ।’’
एक लाख रुपये का चबूतरा बना और उस पर वे बैंठी। माता जिस रुपये पर बैठी है वह तो दान करना ही चाहिए यही सोचकर एक ब्राह्मण को बुलाया गया। दान देते हुए सेठ को तनिक अभिमान छू गया। बोला-
‘‘पण्डित जी, दातार तो बहुत मिले होंगे, लेकिन ऐसा दातार न मिला होगा।’’
पण्डितजी दान लेने अवश्य गये थे, परन्तु भिक्षुक-मनोवृत्ति के नहीं थे। उनका स्वाभिमान जाग उठा और जेब से एक रुपया निकालकर लाख रुपये के चबूतरे पर डालकर बोले-
‘‘तुम्हारे जैसे दातार तो बहुत मिल जाएँगे, पर मेरे जैसे त्यागी बिरले ही होंगे, जो एक लाख को ठोकर मारकर कुछ अपनी ओर से मिलाकर चल देते हैं।’’
वीर, 27 जनवरी 1940 ई.

पर्दे में पाप

एक प्रेमी-प्रेमीका आजीवन ब्रह्मचर्य्यपूर्वक जीवन व्यतीत करने की अभिलाषा रखते थे। रोज़ाना एक साथ रहते, खाते-पीते, सोते-बैठते, हँसते-खेलते, पर क्या मजाल जो मन में विकार आता। इसी तरह सानन्द निर्विकार प्रेममय जीवन व्यतीत हो रहा था कि एक रोज़ कामदेव के अन्धड़ ने प्रेमी का चित्त चलायमान कर दिया। मन के किसी कोने में छिपा हुआ पाप मुँह पर आ गया। प्रेमिका ने प्रेमी को भूल सुझाई, पर वह न माना। रतिगृह में जाने से पूर्व मकान के नीचे बहती हुई नदी पर स्नान करने गया तो देखा एक मनुष्य ढोल लिये दीवार के सहारे खड़ा है। पूछने पर ढोल वाले ने बतलाया-
‘‘आज प्रसिद्ध शीलवान प्रेमियों के सत डिगेंगे, इसलिए डोंडी पीटने को खड़ा हुआ हूँ।’’
प्रेमी ने स्नान किया और मकान में आकर सदैव की भाँति चुपचाप सो गया। सुबह उठकर देखा तो ढोलवाला चला जा रहा था। दर्याफ्त करने पर कहा-
‘‘अब सत नहीं डिगेगा इसीलिए जा रहा हूँ।’’
तब प्रेमिका ने मुसराकर कहा-‘‘देखा ! सात पर्दों में सोचा हुआ पाप भी तालाब की काई के समान जनता के समझ आ जाता है।’’
जनवरी 1940 ई.

फ़िक्र बुरी, फ़ाक़ा भला

सुनते हैं एक मस्त फ़क़ीर ने किसी बादशाह के हाथी की पूँछ इतने ज़ोर से पकड़ ली कि वह एक क़दम भी आगे न रख सका। इस घटना की सूचना बादशाह को दी गई तो उसे भी ऐसा दिलेर आदमी देखने की अभिलाषा हुई। फ़क़ीर को देखने पर बादशाह उसकी ताक़त का सबब समझ गया। उसने किसी तरह अपनी मस्जिद में बिना नाग़ा रोजाना चिराग़ जलाने के लिए उस अलमस्त फ़क़ीर को राज़ी कर लिया। चिराग़ जलाने के उपलक्ष में शाही भोजनालय से तर-ब-तर सुस्वादु भोजन फ़क़ीर को मिलने लगा।
एक माह के बाद हाथी रोकने का अवसर दिया गया तो वह पूँछ के साथ घिसटता चला गया। बादशाह ने फ़क़ीर का यह हाल देखा तो मुसकरा कर पूछा-‘‘साईं ! जब रूखा-सूखा खाते थे और फ़ाक़े करते थे, तब तो हाथी रोक सके और अब शाही बावर्ची खाने से बेशक़ीमती ताक़तवर ग़िज़ा खाने पर भी न रोक सके, बड़े ताज्जुब की बात है !’’
‘‘शाहे आलम ! इसमें ताज्जुब की क्या बात है ? जब अक्सर फ़ाक़े होते थे, लेकिन फ़िक्र पास भी न भटकती थी। अब तर निवाले मिलते हैं, मगर रोज़ाना चिराग़ जलाने की पाबन्दी की चिन्ता ने मेरे शरीर में घुन लगा दिया है।’’
जनवरी 1950 ई.

करनी का फल

एक-एक करके आठ पुत्र-वधुओं के भरी जवानी में विधवा हो जाने पर भी वृद्ध की आँखों में आँसू न आये। साम्यभाव से सब कुछ सहन करता रहा। गाँव के कुछ लोग उसके धैर्य की प्रशंसा करते। कुछ लोग बज्र-हृदय कहकर उसका उपहास करते। श्मशान में जिन्हें शीघ्र वैराग्य घेर लेता है और फिर घर आकर सांसारिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं- ऐसे लोग उसे जीवन्मुक्त और विद्रोह कहने से चूकते और छिद्रान्वेषी उसे मनुष्य न मानकर पशु समझते।
बात कुछ भी हो, एक-एक करके व्याहे-त्याहे आठ लड़के दो वर्ष में उठ गये। उनकी स्त्रियों के करुण-क्रन्दन से पड़ोसियों को रुलाई आ जाती, पर वृद्ध खटोले पर चुपचाप बैठा रहता।

कुछ दिनों बाद गाँव में प्लेग की आँधी आई तो उसमें उसका एकमात्र पौत्र भी लुढ़क गया। वृद्ध के धैर्य का बाँध टूट गया; उसने अपना सिर दीवार से दे मारा। नारदमुनि अकस्मात् उधर से निकले तो वृद्ध को डकराते हुए देखकर खड़े हो गये।
विपद्-ग्रस्त को देखकर सूखी सहानुभूति प्रकट करने में लोगों का बिगड़ता ही क्या है ? जो कल दहाड़ मारकर रोते देखे गये हैं, वे भी उपदेश देने के इस सुनहरी अवसर से नहीं चूकते। फिर नारदमुनि तो आखिर नारदमुनि ठहरे ! कर्त्तव्य भार के नाते कण्ठ में मिसरी घोलते हुए नारदमुनि बोले-
‘‘बाबा ! धैर्य रखो, रोने से क्या लाभ ?’’
वृद्ध ने अजनबी-सी आवाज़ सुनने पर अचकचाकर देखा तो पीताम्बर पहने और हाथ में वीणा लिये नारद दिखाई दिये। वृद्ध उन्हें साधारण भिक्षु समझकर भरे हुए कण्ठ से बोला-‘‘स्वामिन् ! धैर्यकी भी कोई सीमा है। एक-एक करके आठ बेटों को आग में धर आया। ले-देकर के घर में एक टिमटिमाता दीपक बचा था, सो आज उसे भी कूरकाल की आँधी ने बुझा दिया। फिर भी धैर्य रखने को कहते हो ! बाबा, धैर्य मेरे पास अब है ही कहाँ, जो उसे रखूँ ? उसे तो काल ने पहले ही छीन लिया। मुझे अब बुढ़ापे में रोने के सिवाय और काम भी क्या रह गया है, स्वामिन् !’’

सहनशक्ति से अधिक आपत्ति आने पर आस्तिक भी नास्तिक बन जाते हैं। जो पर्वत सीना ताने हुए करारी बूँदों के वार हँसते हुए सहते हैं, वे भी आग पड़ने पर पिघल जाते हैं-ज्वालामुखी से सिहर उठते हैं। नारद को भय हुआ कि वृद्ध नास्तिक न हो जाए। अत: बोले-
‘‘तो क्या तुम अपने पौत्र की मृत्यु से सचमुच दु:खी हो ? वह तुम्हें पुन: दिखाई दे जाए तो क्या सुखी हो सकोगे ?’’
वृद्ध ने निर्मिमेष नेत्रों से नारद की ओर देखकर अपने हृदय की वेदना को आँखों में व्यक्त करके अपनी अभिलाषा को मौन भाषा में प्रकट कर दिया।
नारद की माया से क्षितिज पर पौत्र दिखाई दिया तो वृद्ध विह्वल होकर लपका।
‘‘अरे मेरे लाल, तू कहाँ चला गया था ?’’
‘‘अरे दुष्ट, तू मेरे शरीर को छूकर अपवित्र न कर। पूर्व जन्म में तूने और तेरे आठ पुत्रों ने जिन लोगों को यन्त्रणाएँ पहुँचाई थीं, ऐश्वर्य और अधिकार के मद में जिन्हें तूने मिट्टी में मिला दिया था, वे ही निरीह प्राणी तेरे पुत्र और पौत्र रुप में जन्मे थे। ये रुदन करती हुई तेरी आठों पुत्र-वधुएँ तेरे पूर्व जन्म के पुत्र हैं, जिन्होंने न जाने कितनी विधवाओं का सतीत्व हरण किया था।’’
स्वर्गीय आत्मा विलीन हो गई। वृद्ध के चेहरे पर स्याही-सी पुत गई। नारदबाबा वीणा पर गुनगुनाते चले गये-
‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाऽशुभम्।’’

सेवा-धर्म

एक बार एक परोपकारी बन्धु के पास रात्रि के समय एक देव आया और नोटबुक दिखाकर बोला- ‘‘मैं इसमें उन महानुभावों के नाम लिख रहा हूँ जो शुद्ध हृदय से ईश्वर की सेवा करते हैं। कहिये इसमें आपका नाम लिखूँ या नहीं।’’ परोपकारी बन्धु ने नम्रतापूर्वक कहा- क्षमा कीजिये महाशय, मेरा नाम इस डायरी में न लिखें। मैं तो ईश्वर के बन्दों की सेवा करता हूँ, यदि मनुष्य-सेवकों की कोई डायरी आपके पास हो, तब सहर्ष उसमें मेरा नाम लिख सकते हैं, क्योंकि-
खुदाके बन्दे तो हैं हजारों बनों में फिरते हैं मारे-मारे।
मैं उनका बन्दा बनूँगा जिनको खुदा के बन्दों से प्यार होगा।।
-इक़बाल

सुबह उठकर देखा तो सर्वप्रथम स्वर्णाक्षरों में उसी का नाम डायरी में अंकित था।
फ़रवरी 1939 ई.

सन्तोषी

नव वर्ष की खुशी में समस्त क्लर्कों को वेतन बढ़ाये जाने की बात कहकर और उनसे बदले में खूब धन्यवाद प्राप्त करके साहब ने यह मंगल-सूचना जब एक साधारण कर्मचारी को दी, तब वह अत्यन्त नम्र और वीतराग भाव से बोला-
‘‘श्रीमान् की मुझ पर अत्यन्त कृपा है, पर वेतन न बढ़ायें तो बड़ी दया होगी। वेतन बढ़ते ही खर्च भी बढ़ जाएगा। जैसे-तैसे निराकुलता-पूर्वक जो जीवन व्यतीत हो रहा है, उसमें एक भूचाल आजाएगा।’’
धन्यवाद का इच्छुक आफ़िसर जो हजारों रुपया पाने पर भी तृष्णा की वैतरणी नदी में बहा जा रहा था, तिनके का सहारा पाकर सजग हो उठा।
फ़रवरी 1940 ई.

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