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गीता प्रेस, गोरखपुर >> शान्ति कैसे मिले

शान्ति कैसे मिले

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :263
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1170
आईएसबीएन :81-293-0141-5

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इसमें पारमार्थिक एवं लौकिक समस्याओं का अत्यन्त सरल एवं अनूठे ढंग से विशद समाधान किया गया है।...

Shanti Kaise Mile -A Hindi Book by Hanumsn Prasad Poddar शान्ति कैसे मिले - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

भाईजी (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार) के व्यक्तिगत पत्रों के (जो ‘कामके पत्र’ शीर्षक से ‘कल्याण’ में प्रकाशित होते हैं और जिनको लोग बड़ी उत्सुकता से पढ़ते हैं) तीन भाग पाठकों की सेवा में जा चुके हैं। तीसरा भाग अभी कुछ ही दिनों पूर्व प्रकाशित हुआ था। पुस्तक का आकार बहुत बड़ा न हो इसलिए इस चौथे भाग को अलग छापा है। पाँचवाँ भाग भी शीघ्र प्रकाशित होने की आशा है।

पूर्वप्रकाशित संग्रहों की भाँति इसमें भी पारमार्थिक एवं लौकिक समस्याओं का अत्यन्त सरल और अनूठे ढंग से विशेष समाधान किया गया है। आजकल जब कि जीवन में दुःख, दुराशा, द्वेष और दुराचार बढ़ता जा रहा है तथा सदाचार-विरोधी प्रवृत्तियों से मार्ग तमसाच्छन्न हो रहा है, तब सच्चे सुख-शान्ति का पथ-प्रदर्शन करने वाले इन स्नेहपूरित उज्ज्वल ज्योति दीपकों की उपयोगिता का मूल्य आँका नहीं जा सकता।

पहले भागों में परिचित पाठकों से तो इनकी उपयोगिता के विषय में कुछ कहना ही नहीं है। पुस्तक आपके सामने ही है। हाथ-कंगन को आरसी क्या ?

विनीत-
चिम्मनलाल गोस्वामी

लोक-परलोक का सुधार


काम के पत्र
(चतुर्थ भाग)
(1)


भगवान् के भजन की महिमा


प्रिय महोदय ! सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। आप लिखते हैं कि ‘मैं सोते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते सदा श्रीभगवान् का स्मरण करता हुआ उनकी प्रार्थना करता रहता हूँ। मैंने भगवान् को आत्मसमर्पण कर दिया है और मुझे भगवान् पर पूरा विश्वास है; तथापि अभी तक भगवान् ने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी है। इसलिए मुझे निराशा हो रही है।, कृपया बताइये इसमें क्या कारण है ?’’

वास्तविक कारण तो भगवान् ही जानते हैं; परंतु महात्माओं का ऐसा अनुभव है और शास्त्र भी कहते हैं कि भगवान् में पूर्ण विश्वास करके जो पुरुष सदा भगवान् का स्मरण करता हुआ प्रार्थना करता है, उसकी प्रार्थना भगवान् अवश्य सुनते हैं। पर आपके प्रसंग में ऐसा क्यों हुआ, सो पता नहीं है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भगवान् ने कहीं भूल की हो, सो बात नहीं है। कहीं-न-कहीं आपकी ही भूल है और वह भूल यों तो प्रत्यक्ष ही है। आप यदि सदा उनका स्मरण ही करते रहते हों तो फिर दूसरे चिन्तन के लिए अवकाश ही क्यों मिलता।

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