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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवत्प्राप्ति की सुगमता

भगवत्प्राप्ति की सुगमता

स्वामी रामसुखदास

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1072
आईएसबीएन :81-293-0551-8

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प्रस्तुत है पुस्तक भगवत्प्राप्ति की सुगमता...

Bhagwatprapti Ki Sugamta a hindi book by Swami Ramsukhadas - भगवत्प्राप्ति की सुगमता - स्वामी रामसुखदास

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

परम श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज द्वारा दिये गये कुछ प्रवचन साधकों के लिये बहुत उपयोगी हैं ! इनमें भगवत्प्राप्ति की सुगमता का रहस्य सरल बोलचाल की भाषा में बहुत सुन्दर ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है !
आध्यात्मिक उन्नति चाहनेवाले सभी जिज्ञासुओं से प्रार्थना है कि वे अवश्य इस संग्रह को एक बार मनोयोगपूर्वक पढ़ें एवं अधिकाधिक लाभ उठावें।

प्रकाशक

।।श्रीहरिः।।

तत्काल सिद्धि का मार्ग

साधन-प्रणाली दो तरहकी है—एक तो शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि को साथ लेते हुए साधन करना और एक सीधा परमात्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ देना।

गीतामें योगकी महिमा कही है। योग नाम है समता है। तो पहले ही समता को पकड़ लें, चाहे वह अभी धार  नही हो। ऐसे ही भक्ति में स्वयं भगवान् के शरण हो जाय, चाहें अभी शरणागति का अनुभव न हो। ऐसे ही ज्ञानमार्ग में मेरा स्वरूप नित्य सत्यस्वरूप है—इसका अनुभव करने की आवश्यकता है। कर्मयोग और भक्तियोग में केवल आपके निश्चय की आवश्यकता है। और ज्ञानयोग में अनुभव की आवश्यकता है। यह इन दोनों में फर्क है। परन्तु अनुभव करें, चाहे एक निश्चय करें—इसका फल एक ही होगा, इसमें सन्देह नहीं। ज्ञानमार्ग में—‘वास्तव में मेरे स्वरूप में कोई विकार नहीं है’—इसमें स्थित रहने से जितनी जल्दी सिद्धि होती है, उतनी क्रम से श्रवण, मनन, निदिध्यासन करने से नहीं होती है, इसमें बहुत दूरतक जड़ता का साथ रहता है। जो ध्यानयोग से परमात्मा की प्राप्ति चाहते हैं, उनको प्राप्ति तो होगा, पर ध्यानयोग में बहुत दूर तक जड़ता सात रहेगी परन्तु गीता के कर्मयोग, और ज्ञानयोग और भक्तियोग के साथ जड़ता की आवश्यकता नहीं है।

कर्मयोग और भक्तियोग अपनी बुद्धि के एक निश्चय की महिमा है।
इस वास्ते भगवान् ने कर्मयोग में कहा—‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेका’ (2/41) और भक्तियोग में कहा—‘सम्यग्व्यवसितो हि सः (9/30)।’ ज्ञानयोग में कहा—‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।’ (2/39) अर्थात् यह समबुद्धि पहले सांख्ययोग में कह दी, अब इसको योग के विषय में सुन। वह समबुद्धि है—‘सुखदुःख समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ (2/38)।’ सांख्य में स्वरूप के अनुभव के बाद समबुद्धि होती है और योग (कर्मयोग) में समबुद्धि होने के बाद स्वरूप में स्थिति होती है—यह  मार्मिक बात है।

वास्तव में स्वरूप में जड़ता नहीं है—ऐसा विचार के द्वारा ठीक अनुभव हो गया, तो अब इसमें स्थित रहने से जितनी जल्दी सिद्धि होगी, उतनी जल्दी सिद्धि दोषों को दूर करने, श्रवण, निदिध्यासन, ध्यान करने से नहीं होगी। ऐसे ही भक्ति में ‘मैं भगवान् का हूँ’—यह मान्यता करने से ही सिद्धि हो जाय। मान्यता कैसी होनी चाहिये ? जिसको कोई हटा न सके, ऐसी दृढ़ मान्यता। जैसे पार्वती जी ने कह दिया—जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरऊँ संभु न त रहउँ कुआरी।। तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहि सत बार महेसू।। (मानस 1/81/3)  भगवान शंकर स्वयं सौ दफा कह दें कि मैं तेरेको स्वीकार नहीं करता, तो भी मैं छोड़ूँगी नहीं। यह मतलब है मानने का जब आपने दृढ़ निश्चय कर लिया, तो उसकी प्राप्ति के लिये आपके द्वारा स्वतः साधन होगा, आपकी स्वाभाविक वृत्ति होगी। कारण उसमें यह है कि आपकी अहंता बदल जायगी। इसमें अभ्यास नहीं है।

अभ्यास का वर्णन गीता में थोड़ा आता है; जैसे—‘यतो यतो निश्चरति.....’ (6/26), ‘अभ्यासयोगयुक्तेन.....’ (8/8); ‘अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि’ (12/10) ‘अभ्यासाद्रमते’ (18/36)। जहाँ अभ्यास के द्वारा काम होगा, वहाँ जड़ता की सहायता लेनी ही पड़ेगी। बिना मन, बुद्धि के अभ्यास नहीं होगा। परन्तु जहां स्वयं से काम होता है, वहाँ अभ्यास की जरूरत नहीं है। आपका विवाह होता है तो उसका अभ्यास करना पड़ता है क्या ? मैं विवाहित हूँ—इसके लिए माला जपनी पड़ती है क्या ? मान्यता में अभ्यास नहीं करना पड़ता। उसकी सिद्धि तत्काल होती है। मैं जो यह कहता हूँ कि तत्काल सिद्धि होती है, इसको समझने के लिये आप लोग मेरे पीछे नहीं पड़ते कि यह कैसे होगा ?

मेरे कहने से पीछे पड़ जाओ, यह पीछे पड़ना नहीं है हृदय में लाग (धुन) लग जाय। कोई गृहस्थ छोड़कर सच्चे हृदय से साधु हो गया, तो हो ही गया, बस इसमें अभ्यास की बात नहीं है। क्या वह साधु होने का अभ्यास करता है ? आपकी बेटी क्या अभ्यास करती है कि मैं बहू बन गयी ? ‘आप अभी गोरखपुर में हैं’ तो क्या ‘हम गोरखपुर में हैं’ इसका अभ्यास करते हो ? नींद खुले तो भी मालूम होगा है कि मैं गोरखपुर में हूँ कोई पूछे तो चट यही बात याद आती है कि मैं गोरखपुर में हूँ। इसकी एक माला भी जपी है क्या ? इसमें देरी नहीं लगती; क्योंकि इसमें अभ्यास नहीं करना पड़ता। अभ्यास करने में देरी लगती है।
आपको कर्मयोग और ध्यानयोग—दोनोंकी बात बताऊँ। गीता की बात है, मेरी मन –गढ़न्त बात नहीं।
भगवान् कहते हैं—

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।

(2/55)

‘हे अर्जुन ! जिस काल में साधक मनोगत सम्पूर्ण कामानाओं का अच्छी तरह त्याग कर देता है और अपने-आप से अपने-आप में ही सन्तुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थित प्रज्ञ कहा जाता है।’’

कामनाओं को मनोगत कहने का तात्पर्य है कि मन कामनारूप नहीं है। कामना आगन्तुक है, मनमें आती है। अतः कामना मनमें हरदम नहीं रहती। आप कहते हो कि कामना मिटती नहीं, और मैं कहता हूँ कि कामना टिकती नहीं !

 दस-पन्द्रह-बीस मिनट भी आपमें निरन्तर कामना नहीं रहती। वह तो छूट जाती है और आप दूसरी कामना पकड़ लेते हो इसका खूब अध्ययन करना, फिर प्रश्नोत्तर करना, ऐसी कामनाओं का त्याग करना है। किन-किन कामनाओं का त्याग करें ? तो कहा ‘सर्वान्’ अर्थात् सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करें। कोई भी कामना न रहे। यह बात आपको जरा भारी लगेगी कि ‘भगवान् मिलें; भगवान् के दर्शन हों’—यह कामना भी न रहे ! यद्यपि भगवान् के मिलने की उनके दर्शन की कामना कामना नहीं मानी गयी है। कामना जड़की होती है। चेतन की कामना नहीं होती, आवश्यकता होती है परन्तु यह भी न हो
अब ध्यानयोग की बात बतायें आपको। भगवान् कहते हैं—

यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।

(6-18)

‘वश में किया हुआ चित्त जिस काल में अपने स्वरूप में ही स्थित हो जाता है और स्वंय सम्पूर्ण पदार्थों से निःस्पृह हो जाता है, उस काल में वह योगी कहा जाता है।’
अब कर्मयोगके (2/55) और ध्यानयोग के (6/18) श्लोकों का मिलान करके देखें। कर्मयोग में कामनाओं के त्याग करने के बाद परमात्मा में स्थित है और ध्यानयोग में परमात्मा में मन लगाने के बाद कामनाओं का त्याग है—यह दोनों में फर्क है। अब ध्यानयोग में कामनाओं का त्याग होने के बाद क्या होगा ?

‘यथा दीपो निवातस्थो....’ (6/19)—जैसे स्पन्दरहित वायु के स्थान में स्थित दीपककी लौ चेष्टारहित हो जाती है, हिलती-डुलती नहीं, योगका अभ्यास करते हुए यतचित्तवाले योगी के चित्त की वैसे ही उपमा कही गयी है। ऐसा होने के बाद चित्त निरुद्ध हो जाता है। जब इस निरुद्ध अवस्था से भी चित्त उपराम हो जाता है, तब (चित्त से सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर) ध्यानयोगी अपने-आपमें सन्तुष्ट होता है—

यत्रोपरमते चित्तं निरुद्धं योगसेवया।
यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति।।

(6/20)

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