लोगों की राय

गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त सुधाकर

भक्त सुधाकर

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1054
आईएसबीएन :81-293-0519-4

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

244 पाठक हैं

प्रस्तुत है भक्त सुधाकर का चरित्र चित्रण...

Bhakt Sudhakar a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - भक्त सुधाकर - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

यह संक्षिप्त भक्तचरित माला का चौदहवाँ पुष्प है। इसमें भक्तों के ऐसे विलक्षण चरित्र संग्रह किये गये हैं कि जिनको पढ़ते ही भावुक ह्रदयों में भगवद्विश्वास, भगवत्-प्राप्ति, भक्ति, वैराग्य, सदाचार, दृढ़श्रद्धा, परमसुख और शाश्वती शान्ति की कल्याणकारी तरंगें उठने लगती हैं-जो मनुष्य के सारे पाप-तापों को धोकर उसे मंगलमय भगवान के चरणों की प्राप्ति कराने में बड़ी सहायक होती हैं। आशा है, भारत के नर-नारी इन पवित्र चरित्रों को पढ़कर जीवन के असली लाभ की प्राप्ति के पथ में अग्रसर होंगे।

-हनुमानप्रसाद पोद्दार

।।श्रीहरिः।।

भक्त-सुधाकर
भक्त रामचन्द्र


दक्षिण में करवीर (वर्तमान कोल्हापुर) के पास ऊर्णानदी के तट पर एक गाँव में एक ब्राह्मण-परिवार रहता था।  दो स्त्री-पुरुष थे और तीसरा एक छोटा-सा शिशु था। ब्राह्मण-वृत्ति से गृहस्थ का निर्वाह होता था। घर में तुलसीजी का पेड़ था, भगवान् शालग्राम की पूजा होती थी। पत्नी आज्ञाकारिणी थी, पति-पत्नी की रुचि का आदर करने वाले थे। दोनों में धार्मिकता थी, अपने-अपने कर्तव्य का ध्यान था और था बहुत ऊँचे हिन्दू-आदर्श का अकृतिम का प्रेम। भगवान् की दया से बच्चा भी हो गया था। दम्पति सुखी थे। परन्तु दिन बदलते रहते हैं। सुख का प्रकाशमय दिवस सहसा दु:ख की अमा-निशा के रूप में परिणत हो जाता है। मनुष्य सोचता है जीवन सुख में ही बीतेगा, ये आनन्द के दिन कभी पूरे होंगे ही नहीं, इस प्रेममदिरा का नशा कभी उतरेगा ही नहीं। छके रहेंगे जीवन भर इसी में।

 परन्तु विधाता के विधान से बात बिगड़ जाती है। कितनी आशा से, अन्तस्तल के कितने अनुराग से, हृदय के सुधामय स्नेह-सलिल से जिस जीवनधारी वृक्ष को सींचा जा सकता है, वही सहसा विच्छिन्न होकर हमारे हृदय के सारे तारों को छिन्न-भिन्न कर देता है। जन्म-मृत्यु का चक्र चौबीस घंटे चलता ही रहता है और बड़े स्पष्ट भाव से वह घोषणा करता है-‘जीवन क्षणभंगुर है, सुख अनित्य है और आशा दु:ख परिणामिनी है !’ गाँव में एक बार जोर से हैजा फैला और देखते-ही-देखते प्राण-प्रतिमा ब्राह्मणी काल के कराल गाल में चली गयी। ब्राह्मण महान् दु:खी हो गये। मातृहीन शिशु की भी बुरी अवस्था थी। कुछ दिनों बाद ब्राह्मण भी हैजे के पंजे में आ गये और दुध मुँहे नन्हें-से ढाई साल के बच्चे को छोड़कर बरबस चल बसे। जी बच्चे में अटका, परन्तु मृत्यु की अनिवार्य शक्ति के सामने कुछ भी वश नहीं चला।

गाँव से बाहर एक साधु रहते थे। पहुँचे हुए थे। पता नहीं, उनके मन में कहाँ से प्रेरणा हुई। ममता के उस पार पहुँच गये थे। दया भी माया की ही एक त्याज्यवृत्ति थी उनके अनुभव में। ब्राह्मण दम्पत्ति के मरण और अनाथ बालक की दुर्दशा के समाचार ने उनके मन में दया का संचार कर दिया, भले ही वह बाधितानुवृत्ति से ही हो। साधुबाबा दौड़े गये और शिशु को अपनी कुटिया पर उठा लाये। बड़ी ममता से हजार माताओं का स्नेह उँडेलकर वे उसे पालने लगे ! उनका प्रधान काम ही हो गया बच्चों को नहलाना-धुलाना, खिलाना-पिलाना और उसकी देख-रेख करना। भगवान् की लीला।

महात्मा की कुटिया एकान्त में थी। कुटिया के नीचे ही नदी बहती थी। चारों ओर मनोरम वन था। बड़ा सात्त्विक वातावरण था। संसार में काम, क्रोध, लोभ, असत्य और हिंसा वहाँ फटकते भी नहीं थे, देखने को भी नहीं मिलते थे। कुत्सिक क्रिया या दूषित चेष्टा करने वाला वहाँ कोई आता ही नहीं था। भोग-विलास की सामग्रियों के तो स्वप्नों में भी दर्शन नहीं होते थे, खान-पान में पवित्रता और सादगी थी। सोने, उठने और आहार-विहार के समय और परिणाम निश्चय थे। सबसे बड़ी बात तो यह कि वहाँ दिन-रात भगवदाराधना, भगवच्चर्या और भगवच्चिन्तन होता था। मन-इन्द्रियों के सामने ऐसा कोई दृश्य आता ही नहीं था जिससे उनमें विकार पैदा होने की सम्भावना हो। काम, क्रोध, असत्य और हिंसादि दोष मन के धर्म नहीं हैं, इन्द्रियों की कुचेष्टा इनका स्वभाव नहीं है। ये तो विकार हैं- आगन्तुक दोष हैं, जो प्रधानतया संग-दोष से उत्पन्न होते हैं और फिर तदनुकूल चेष्टाओं से बढ़ते-बढ़ते चित्त में यहाँ तक अपना स्थान बना लेते हैं कि उनका चित्त से अलगाव दीखता ही नहीं। मालूम होता है कि ये चित्त और इन्द्रियों के सहज स्वाभाविक धर्म हैं, उनके स्वरूप ही हैं। अस्तु ! जन्म से ही माता-पिता की सच्चेष्टा, संत की कुटिया के शुद्ध वातावरण और सत्संग के प्रभाव से बालक के जीवन में कोई नया दोष तो नहीं।

 पूर्व संस्कार जनित दोष भी दबाकर क्षीण हो गये-बहुत-से मर गये ! बुरे विचार, बुरी भावना और बुरी क्रियाओं से मानों वह परमार्थ की साधना में भी लगाये रखते थे। पता नहीं- पूर्वजन्म का कोई संबंध था या विशुद्ध भगवत्प्रेरणा थी। महात्माजी अपनी सारी साधना- सारा ज्ञान उस बालक के निर्मल हृदय में एक ही साथ उँडेल देना चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि सोलह वर्ष की उम्र में ही बालक एक महान् साधक बन गया। अहिंसा, सत्य, प्रेम, संयम उसके स्वभाव बन गये। भगवान् की भक्ति स्रोत्र उसके अंदर से फूट निकला और सबको पवित्र करने लगा। उसकी वाणी अमोघ हो गयी सत्य के प्रताप से, और उसकी प्रत्येक इच्छा फलवती हो गयी संयम और त्याग की महिमा से। वह बाहर और भीतर से सच्चा महात्मा हो गया। उसका चेहरा ब्रह्म तेज से चमक उठा !

सबका समय निश्चित है। महात्मा जी के जीवन की अवधि भी पूरी हो गयी। वे इस संसार को छोड़कर हँसते-हँसते भगवान् के परमधाम में चले गये। बालक निराश्रय तो हो गया, परन्तु महात्मा जी की कृपा से उसे कोई शोक नहीं हुआ। भगवान् का विधान उसने शिरोधार्य किया आदरपूर्वक शान्त हृदय से !

महात्माजी उसे रंगनाथ कहते थे, इससे उसका यही नाम प्रसिद्ध हो गया। वह दिन-रात भजन-ध्यान में रहता। भगवान् की कृपा से जो कुछ मिल जाता, उसी पर निर्वाह करता। उसके जीवन का एक-एक क्षण भगवत्सेवा में लगता था। उसके तप-तेज की ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। लोग दर्शन को आने लगे। उसने दिन भर में एक पहर का समय ऐसा रख लिया, जिसमें लोगों के साथ भगवच्चर्या होती। शेष सारा समय एकान्त में बीतता।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book