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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भक्त दिवाकर

भक्त दिवाकर

हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1053
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त दिवाकर का चरित्र चित्रण...

Bhakt Diwakar a hindi book by Hanuman Prasad Poddar - भक्त दिवाकर - हनुमानप्रसाद पोद्दार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

यह संक्षिप्त भक्त-चरितमाला का सोलहवाँ पुष्प है इसमें छः पौराणिक और दो अर्वाचीन भक्तों के अति सुन्दर चरित्रों का संग्रह है। भगवान् शंकर तथा भगवान् विष्णु के दृढ़ विश्वासी भक्तों के ये मंगल चरित्र अत्यन्त पवित्र तथा हृदय की समस्त कालिमाराशिको धो डालनेवाले हैं। हमारे पाठक-पाठिकाओं-को इन चरित्रों के पठन-पाठन से विशेष लाभ उठाना चाहिये। यही हमारी सबसे विनीत प्रार्थना है।
हनुमान प्रसाद पोद्दार

भक्त-दिवाकर
भक्त सुव्रत

सोमशर्मा नामक एक सुशील ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी का नाम सुमना था। सुव्रत उन्हीं के सुपुत्र थे। भगवान् की कृपा से ही ब्राह्मणदम्पत्ति को ऐसा भागवत पुत्र प्राप्त हुआ था। पुत्र के साथ ही ब्राह्मण का घर ऐश्वर्य से पूर्ण हो गया था। सुव्रत पूर्वजन्म में धर्मांगद नामक भक्त राजकुमार थे। पिता के सुख के लिये उन्होंने अपना मस्तक दिया था। पूर्वजन्म के अभ्यासवश लकड़पन में ही वे भगवान् का चिन्तन और ध्यान करने लगे थे। वे जब बालकों के साथ खेलते तब अपने साथी बालकों को भगवान् के ही ‘हरि, गोविन्द, मुकुन्द, माधव’ आदि नामों से पुकारते। उन्होंने अपने सभी मित्रों के नाम भगवान् के नामानुसार ही रख लिये थे। वे कहते—भैया केशव, माधव, चक्रधर ! आओ-आओ। पुरुषोत्तम ! आओ। हम लोग खेलें। मधुसूदन ! मेरे साथ चलो। खेलते-खाते, पढ़ते-लिखते, हँसते-बोलते, सोते-जागते, खाते-पीते, देखते-सुनते, सभी समय वे भगवान को ही अपने सामने देखते। घर, बाहर, सवारी पर, ध्यानमें, ज्ञानमें—सभी कर्मों में, सभी जगह उन्हें भगवान् के दर्शन होते और वे उन्हीं को पुकारा करते। तृण, काठ, पत्थर तथा सूखे-गीले सभी पदार्थों में वे पद्मपलाशलोचन गोविन्द की झाँकी देखा करते। जल-थल, आकाश-पृथ्वी, पहाड़-वन, जड़-चेतन जीवमात्र में वे भगवान् के सुन्दर मुखारविन्द की छवि देख-देखकर निहाल होते। लड़कपन में ही वे भगवान् के सुन्दर मुखारविन्दकी छवि देख-देखकर निहाल होते लड़कपन में भी वे गाना सीख गये थे और प्रतिदिन ताल- लय के साथ मधुर-स्वर से भगवान् के गुण गा-गाकर भगवान् श्रीकृष्ण में प्रेम बढ़ाते। वे गाते—

‘वेद के जाननेवाले लोग निरन्तर जिनका ध्यान करते हैं, जिनके एक-एक अंग में अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड स्थित हैं, जो सारे पापों का नाश करनेवाले हैं, मैं उन योगेश्वर मधुसूदनभगवान् के शरण हूँ। जो सब लोगों के स्वामी हैं, जिनमें सब लोक निवास करते हैं, मैं उन सर्वदोषरहित परमेश्वर के चरणकमलों में निरन्तर नमस्कार करता हूँ, जो समस्त दिव्य गुणों के भण्डार हैं, अनन्त-शक्ति हैं, इस अगाध अनन्त सागर से तरने के लिये मैं उन श्रीनारायणदेवकी शरण ग्रहण करता हूँ। जो योगिराजों के मानस-सरोवर के राजहंस हैं, जिनका प्रभाव और माहात्म्य सदा और सर्वत्र विस्तृत है, उन असुरों के नाश करनेवाले भगवान् के विशुद्ध विशाल चरणकमल मुझ दीनकी रक्षा करें। जो दुःख के अँधेरे का नाश करने के लिये चन्द्रमा हैं, जिन्होंने लोककल्याण को अपना धर्म बना रखा है, जो समस्त ब्रह्माण्डों के अधीश्वर हैं, उन सत्यस्वरूप सुरेश्वर जगद्गुरु-भगवान् का मैं ध्यान करता हूँ। जिनका स्मरण ज्ञान-कमलके विकास के लिये सूर्य के समान है, जो समस्त भुवनों के एकमात्र आराध्यदेव हैं, उन महान् महिमान्वित आनन्दकन्द भगवान् के दिव्य गुणों का तालस्वर के साथ गान करता हूँ। मैं उन पूर्णामृतस्वरूप सकल कलानिधि भगवान् का अनन्य प्रेमके साथ गान करता हूँ। पापी जीव जिनका दर्शन नहीं कर सकते, मैं सदा-सर्वदा उन भगवान् केशवकी ही शरण में पड़ा हूँ। इस प्रकार गान करते हुए सुव्रत हाथों से ताली बजा-बजाकर नाचते और बच्चों के साथ आनन्द लूटते। उनका नित्य का यही खेल था।

वे इस तरह का भगवान् के ध्यान में मस्त हुए बच्चों के साथ खेलते रहते। खाने-पीने की कुछ भी सुध नहीं रहती। तब माता सुमना पुकारकर कहती—‘बेटा ! तुम्हें भूख लगी होगी। देखो, भूख के मारे तुम्हारा मुख कुम्हला रहा है। आओ, जल्दी आओ, कुछ खा जाओ।’ माता की बात सुनकर सुव्रत कहते—‘माँ ! श्रीहरि के ध्यान में जो अमृतरस झरता है, मैं उसी को पी-पीकर तृप्त हो रहा हूँ।’ जब माँ बुला लाती और वे खाने को बैठते, तब मधुर अन्नको देखकर कहते—‘यह अन्न भगवान् ही है, आत्मा अन्नके आश्रित है। आत्मा भी तो भगवान् ही है, इस अन्नरूपी भगवान् से आत्मारूप भगवान् तृप्त हों। जो सदा क्षीरसागर में निवास करते हैं, वे भगवान् इस भगवतस्वरूप जल से तृप्त हों। ताम्बूल, चन्दन और इन मनोहर सुगन्धयुक्त पुष्पों से सर्वात्मा भगवान् तृप्त हों।’ धर्मात्मा सुव्रत जब सोते तब श्रीकृष्ण  का चिन्तन करते हुए कहते—‘मैं योगनिद्रा-सम्पन्न  श्रीकृष्ण के शरण हूँ।’ इस प्रकार खाने-पहनने, सोने-बैठने आदि सभी कार्यों में श्रीभगवान् का स्मरण करते और उन्हीं को सब कुछ निवेदन करते। यह तो उनके लड़कपन का हाल है।

वे जब जवान हुए तब सारे विषय-भोगों का त्याग करके नर्मदाजी के दक्षिण तट पर वैदूर्य पर्वत पर चले गए और वहाँ भगवान के ध्यानमें लग गये। यों तपस्या करते जब सौ वर्ष बीत गये तब लक्ष्मीजी सहित श्रीभगवान् प्रकट हुए। बड़ी सुन्दर झाँकी थी। सुन्दर नील-श्याम शरीर पर दिव्य पीताम्बर और आभूषण शोभा पा रहे थे। तीन हाथों में शंख, चक्र और गदा सुशोभित थे। चौथे करकमल से भगवान् अभयमुद्रा के द्वारा भक्त सुव्रतको निर्भय कर रहे थे। उन्होंने कहा-‘बेटा सुव्रत ! उठो, उठो, तुम्हारा कल्याण हो। देखो, मैं स्वयं श्रीकृष्ण तुम्हारे सामने उपस्थित हूँ। उठो, वर ग्रहण करो।’

श्रीभगवान् की दिव्य वाणी सुनकर सुव्रत ने आँखें खोलीं और अपने सामने दिव्य मूर्ति श्रीभगवान् को देखकर वे देखते ही रह गये। आनन्द के आवेश से सारा शरीर पुलकित हो गया। नेत्रोंसे आनन्दाश्रुओं की झड़ी लग गयी। फिर वे हाथ जोड़कर बड़ी ही दीनता के साथ बोले—

‘हे जनार्दन ! यह संसार-सागर बड़ा ही भयानक है। इसमें बड़े-बड़े दुःखों की भीषण लहरें उठ रही हैं, विविध मोहकी तरंगों से यह उछल रहा है। भगवान् ! मैं अपने दोष से इस सागर में पड़ा हूँ। मैं बहुत दीन हूँ। इस महासागर से मुझे उबारिये। कर्मों के काले-काले बादल गरज रहे हैं और दुःखों की मूसलाधार वृष्टि कर रहे हैं। पापों के सञ्चय की भयानक बिजली चमक रही है। हे मधुसूदन ! मोहके अँधेरे में मैं अन्धा हो गया हूँ। मुझको कुछ भी नहीं सूझता, मैं बड़ा ही दीन हूँ। आप अपने करकमल का सहारा देकर मुझे बचाइये। यह संसार बहुत बड़ा भयावना जंगल है। भाँति-भाँति के असंख्य दुःख-वृक्षों से भरा है, मोहमय सिंह-बाघों से परिपूर्ण है। दावानल धधक रहा है। मेरा चित्त, हे श्रीकृष्ण ! इसमें बहुत ही बुरी तरह जल रहा है, आप मेरी रक्षा कीजिये। यह बहुत पुराना संसार-वृक्ष करुणा और असंख्य दुःख-शाखाओं से घिर हुआ है। माया ही इसकी जड़ है। स्त्री-पुत्रादि में आसक्ति ही इसके पत्ते हैं। हे मुरारे ! मैं इस वृक्षपर चढ़कर गिर पड़ा हूँ, मुझे बचाइये। भाँति-भाँति के मोहमय दुःखों की भयानक आगसे मैं जला जा रहा हूँ। दिन-रात शोक में डूबा रहता हूँ। मुझे इससे छुड़ाइये। अपने अनुग्रहरूप ज्ञान की जलधारा से मुझे शान्ति प्रदान कीजिये।

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