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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान के सामने सच्चा सो सच्चा

भगवान के सामने सच्चा सो सच्चा

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1039
आईएसबीएन :81-293-0513-5

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प्रस्तुत है भगवान के सामने सच्चा सो सच्चा...

Bagwam Ke Samane Sachcha So Sachcha a hindi book by Gitapress - भगवान के सामने सच्चा सो सच्चा - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

इस पुस्तक में कल्याण में प्रकाशित पढ़ो, समझो और करो शीर्षक के अन्तर्गत प्रकाशित सत्प्रेरणा देनेवाली घटनाओं का संग्रह है। ये घटनाएँ बहुत ही रोचक, उपदेशप्रद तथा इनके अनुसार जीवन-पथका निर्धारण करने से परम कल्याण करनेवाली हैं। इसके अध्ययन तथा प्रचार के पुण्यकार्य में संलग्न होकर सब लोग लाभ उठावें, यह विनीत निवेदन है।


प्रकाशक

।।श्रीहरिः।।

भगवान् के सामने सच्चा सो सच्चा



रामानन्द और रामप्रसाद दोनों भाइयों में सब चीजों का प्रसन्नतापूर्वक बँटवारा हो गया। दोनों अलग-अलग  रहने लगे। अलग काम करने लगे। बरसों बीत गये। एक दिन दीवाली के अवसर पर रामानन्द घर के पुराने कागजों का बुगचा (पुलिन्दा) खोलकर देख रहे थे—इसलिये कि व्यर्थ के कागजों को देखकर फेंक दिया जाय। देखते-देखते उन कागजों के बीच में उनके पिताजी का रखा हुआ एक पीतल का डिब्बा मिला। खोलकर देखा तो उसमें उनकी माताजी के चार सोने के गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर दिखाया। तौलकर देखा तो लगभग 140 तोले सोना था। उस समय खरे ठोस सोने के ही गहने बनते थे। पत्नी ने कहा—‘गहना सासुजी का है, अतएव इसमें आप दोनों भाइयों का हक है।

आप इसका आधा हिस्सा अपने भाई रामप्रसाद जी को दे दीजिये—आजकल उनकी हालत भी बहुत तंग है।’ इस पर रामानन्द ने कहा—‘तुम्हारी बात तो ठीक है, पर तुम जानती हो—अपने को भी पैसे की जरूरत है, लड़की का ब्याह अगली साल करना है, यह गहना ब्याह में काम आ जायगा। फिर रामप्रसाद की स्त्री तो तुमको मिलने पर सदा जली-कटी सुनाती और हर जगह तुम्हारी बदनामी करती रहती है, उसे यह गहना देकर साँपको दूध पिलाना होगा। वह कहेगी कि न मालूम इन्होंने बेईमानी करके कितना धन रख लिया होगा।’ रामानन्दकी भली पत्नी बोली—‘भगवान तो सब देख रहे हैं, वही फिर भी देखेंगे। मेरी देवरानी भोली है और इस समय कष्ट में है, इसलिये वह बिना समझे-बूझे यदि कुछ कह देती है तो उससे हमारा क्या बिगड़ जाता है। भगवान के सामने तो हम सच्चे हैं और जो भगवान् के सामने सच्चा है वही सच्चा है; परंतु आज यदि हम इस गहने पर नीयत बिगाड़ लेंगे तो भगवान् क्या समझेंगे। मैं तो समझती हूँ, भगवान् मेरी देवरानी को सुबुद्धि देंगे—मैं भगवान् से प्रार्थना करूँगी और उसकी भावना भी बदल जायगी। वह प्रेम करने लगेगी।

पत्नी की बात रामानन्दकी समझ में आ गयी। वे गहने का डिब्बा लेकर छोटे भाई रामप्रसाद के घर पहुँचे। डिब्बा कैसे कहाँ मिला, सब बतलाया और फिर उनकी पति-पत्नी में क्या बातें हुई थीं, वे भी सब कह दीं तथा बोले कि ‘भैया ! मेरे मन में तो बेईमानी का अंकुर पैदा होने लगा था, पर तुम्हारी नेक भाभी ने उसे तुरंत बीजसमेत उखाड़कर फेंक दिया।’

इस बर्ताव का रामप्रसाद पर बड़ा ही अच्छा असर पड़ा और भगवत्कृपा से रामप्रसाद की स्त्री की सारी भावना तुरंत ही बदल गयी उन्हें उस दिन रुपयों की सख्त जरूरत थी, एक नालिशकी कुर्की आनेवाली थी। उसने समझा कि रामानन्दजी तथा उनकी पत्नी के रूप में भगवान् ने ही यह सहायता भेजी है। वह जेठानी के पास दौड़ी गयी, रोकर क्षमा माँगने लगी। जेठानीने उठकर हृदय से लगा लिया और आँसू बहाती हुई उसे अपार स्नेहसुधा का दान किया। दोनों परिवारों में एकात्मकता जाग उठी और आनन्द छा गया।


-गणेशदास मोदी


वेद मन्त्रों का चमत्कार



सन् 1955 के अप्रैल में ग्राम नरहरिपुर जिला बाराबंकी में ‘विष्णुयज्ञ’ हुआ था। यह यज्ञ नरहरिपुर के निवासी पण्डित लक्ष्मीचन्द्र तिवारी ने पूज्य श्री 108 स्वामी नारदानन्दजी सरस्वती की सत्प्रेरणा से करवाया था। मैं काशी से यज्ञका ‘आचार्य’ होकर गया। यज्ञ की पूर्णाहुति होने के बाद मैं उसी दिन आवश्यक कार्यवश काशी आनेके लिये तैयार हो गया। काशी आने के लिये नरहरिपुर से ‘रुदौली’ रेलवे स्टेशन पहुँचना पड़ता है, जो नरहरिपुर से लगभग 6-7 मीलकी दूरी पर है। वहाँ का मार्ग पक्का न होने के कारण यातायात का साधन केवल बैलगाड़ी है। अतः मैं भी अपने दो साथियों (वेदाचार्य पं. जगदानन्द झा, अध्यापक-गवर्नमेण्ट-संस्कृत कालेज, पटना तथा पं. श्रीलक्ष्मीनारायणजी (कल्लोजी) सारस्वत, काशी)-के साथ बैलगाड़ी में सवार हो गया। उसी समय नरहरिपुर के दो वृद्ध पुरुष वहाँ उपस्थित होकर बोले—‘पंडित जी ! यहाँ से रात्रि में रुदौली स्टेशन जाना खतरे से खाली नहीं है। मार्ग में चोर-डाकू पड़ते हैं, जो लूट-पाट ही नहीं करते, किन्तु पथिकों को मारते-पीटते और नग्नतक कर देते हैं। अतः रात्रि में न जाकर दिन में जाइयेगा।’ मैंने कहा—मेरे पास चोर-डाकुओं से बचने के अचूक उपाय हैं, मुझे चोर-डाकुओं का भय नहीं।’ कहकर हम लोग रात्रि को 9 बजे स्टेशन के लिए रवाना हो गये।

वसन्त-ऋतु और चैत्र का महीना था। रात्रि को चैती हवा कभी मन्द और कभी तेज चलती थी, जो हम सभीको सुखद और सुहावनी प्रतीत हो रही थी। यज्ञकी व्यस्तता से मैं श्रान्त था, अतः बैलगाड़ी में निद्रा आ गयी। समतल भूमि न होने के कारण बैलगाड़ी के भयंकर खटर-पटर शब्द से कुछ ही देर बाद मेरी नींद उचट गयी। दोनों साथियों ने अत्यन्त भयभीत मुद्रामें मुझसे कहा ‘बहुत देर से हमारे पीछे तीन आदमी लगे हैं और उनके हाथ में टार्च भी है, जिसको कभी-कभी जलाते भी हैं। देखिये वे ही तीनों आदमी हैं जो हमारी ओर लपके चले आ रहे हैं।’

मैंने बैलगाड़ी के चालक से पूछा—‘हमारे पीछे जो आदमी लगे हैं, इनके बारे में तुम्हारा क्या खयाल है ?’ गाड़ीवान ने कहा—‘ये चोर-डाकू मालूम होते हैं।’ गाड़ीवान की बात सुनकर मेरे साथी बोले—‘हमलोगों से भूल हो गयी; जो वृद्ध पुरुषों के रोकने पर भी रात्रि को चल पड़े।’ मैंने निर्भीक होकर कहा—‘आप लोग तनिक भी न घबरायें। एक बार मेरे स्वर्गीय पिताजी (महामहोपाध्याय पं. श्रीविद्याधरजी गौड)-ने मुझे मार्ग में चोर-डाकुओं से त्राण पाने के लिये वेद के कुछ महत्त्वपूर्ण मन्त्र बतलाये थे, जिनके ग्यारह अथवा पाँच बार पाठ करने से निश्चित ही चोर-डाकुओं से रक्षा होती है। अतः अब हमें उन वेद-मन्त्रों का पाठ करना चाहिये। अवश्य ही वेद-भगवान् हमारी रक्षा करेंगे।’ पश्चात् हम सभी ने श्रीपिताजी के बतलाये हुए निम्नलिखित वेदमन्त्रों का उच्चस्वर से एक स्वर में होकर पाठ प्रारम्भ कर दिया—

‘रक्षोहणं बलगहनम्.’ (शु.य.5/23-25)
‘रक्षसां भागः.’ (शु.य. 6/16)
‘योऽअस्मभ्यम्.’ (शु.य. 11/80)
‘आयुर्म्मे पाहि.’ (शु.य. 14/17)
‘अग्नेर्भागोऽसि.’ (शु.य. 14/24-26)
‘नमः कृत्सन्नायतया.’ (शु.य. 16/20-22)
‘कृणुष्व पाजः.’ (शु.य. 13/9-14)


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