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आज की कहानी

विजयमोहन सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :155
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 10274
आईएसबीएन :817119804x

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प्रामाणिकता, प्रासंगिकता, भोगा हुआ यथार्थ, रूमानीपन, फ़ैंटेसी और रूपक जैसे तमाम शब्द रोज़मर्रा आलोचना में निरर्थक ढंग से फेंके जाते रहे हैं। पर हिन्दी के कथा-साहित्य और उससे जुड़े हमारे देश-काल के व्यापक बुनियादी सवालों से मुठभेड़ होने पर वे यहाँ कुछ और ही रंग-रूप में सामने आते हैं।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आज की कहानी अगर रचना और आलोचना, दोनों को एक नयी प्राण-प्रतिष्ठा देती जान पड़े तो आश्चर्य नहीं। ज़हीन, संवेदनशील और जागरूक कथाशिल्पी विजयमोहन सिंह ने यहाँ जिस लगाव और शिद्दत के साथ शब्दों के अर्थ और अर्थ के संदर्भों की तलाश की है, यह उसका स्वाभाविक परिणाम है। प्रामाणिकता, प्रासंगिकता, भोगा हुआ यथार्थ, रूमानीपन, फ़ैंटेसी और रूपक जैसे तमाम शब्द रोज़मर्रा आलोचना में निरर्थक ढंग से फेंके जाते रहे हैं। पर हिन्दी के कथा-साहित्य और उससे जुड़े हमारे देश-काल के व्यापक बुनियादी सवालों से मुठभेड़ होने पर वे यहाँ कुछ और ही रंग-रूप में सामने आते हैं। शिल्प, कला-रूपों, जीवन-दर्शनों की इस गंभीर, दायित्वपूर्ण लेकिन जानदार पड़ताल में विजयमोहन सिंह की मूलतः मार्क्सवादी दृष्टि कठमुल्लापन, खे़माबंदी या सरलीकृत वर्गीकरण की धुंध से मुक्त है। इसलिए इन समीक्षात्मक निबंधों को भी किसी बने-बनाये खाँचे में रखना मुश्किल है। तिलमिला देने की हद तक तीखी यह उधेड़-बुन नुस्ख़ों, नक्क़ाल मूढ़ताओं, भोथरे इकहरेपनों, अतिनाटकीयताओं और छद्म गंभीरताओं पर भारी पड़ती है। यह बेलौसपन अपने समय की सच्चाई को जीने की ईमानदार कोशिश है, और जहाँ भी लेखक को कुछ मूल्यवान लगा है, उसे रेखांकित करने में संकोच नहीं है। एक तरह से यह हिन्दी कहानी की वर्णमाला है: प्रेमचंद से लेकर नई कहानी, अ-कहानी और साठोत्तरी कहानी तक का परिदृश्य। एक ऐसा परिदृश्य, जिसमें उपस्थित-अनुपस्थित, प्रिय या अप्रिय महत्त्वपूर्ण कथाकार कहीं-न- कहीं एक-दूसरे से, अपने समय और परंपरा से, भाषा-रचना-अभिव्यक्ति-चिंतन के धरातल पर टकराते हैं, जुड़ते-टूटते हैं। इन संबंध-सूत्रों की बारीकियाँ, और नितांत नये कोणों से कृती और कृतित्व को परखने की कसौटियाँ आज की कहानी में मिलेंगी। उम्मीद शायद ग़लत न हो कि इससे केवल विवाद की नहीं, एक नये संवाद की भी शुरुआत होगी।

- गिरधर राठी

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