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गीता प्रेस, गोरखपुर >> महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव

महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव

रामनिरंजन गोयनका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :92
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1000
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव का जीवन चरित्र....

Mahapurush Shri Mant Shankardev a hindi book by Ram Niranjan Goenka - महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव - रामनिरंजन गोयनका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

मध्यकाल में समग्र भारत में महान् धर्मक्रान्ति का सूत्रपात हुआ, उससे सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति को पुनः नये रूप में संजीवन प्राप्त हुआ। गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, चैतन्य, तुकाराम, कबीरदास, मीराबाई आदि के द्वारा भारतीय जनमानस को पुनः नयी ज्योति प्राप्त हुई। देश का कोना-कोना उससे उद्भासित हो उठा। उस धर्मचेतना की पावन गंगा में आवाहन कर भारत जैसे प्रसुप्ति से जाग्रत् हो उठा। भारत का पूर्व प्रान्त, जो प्राग्ज्योतिष के रूप में जाना जाता था, उसी नवीन ज्योति से पुनः उद्भासित हो उठा, जिसके सूत्रधार थे महान वैष्णव-सन्त महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव। उन्होंने जगद्गुरू श्री कृष्ण की महान् महिमा का संदर्शन किया और श्रीकृष्ण-भक्ति की पावन धर्म-धारा से समूचे पूर्वांचल को आप्लावित कर दिया। उन्होंने अनेक जाति-सम्प्रदायों, संस्कृतियों की इस भूमि को भारतीयता की चेतना से भी संजीवित किया। महापुरुष श्रीमन्त शंकरदेव की कीर्ति-गाथा भारतीय-धर्म चेतना का ही अभिन्न-अखण्ड रूप है।

श्रीमन्त शंकरदेव की बहुमुखी प्रतिभा निरन्तर ज्योतिष्मान् है। काव्य की स्फूर्ति तथा शास्त्रों की ओर आपकी अभिरुचि बहुत बचपन से ही थी। भागवत और गीता आपके प्रिय ग्रन्थ थे। इन्हीं का आधार लेकर आपने असम में विमल वैष्णव-धर्मका प्रचार किया। आप एक सिद्ध योगी भी थे। अपने योगबल से बहुत-से लोकोत्तर कर्म आपके द्वारा हुए। आप कहा करते थे कि ईश्वरप्राप्ति तर्क और पाण्डित्य के द्वारा नहीं हो सकती, केवल एकान्त भक्ति से ही हम ईश्वर को पा सकते हैं। भगवान् के नाम की अद्भुत महिमा है, जिसमें सभी प्राणियों का अधिकार है। शंकरदेव का यह प्रमुख संदेश है-


परम निर्मल धर्म हरिनामकीर्तन, त समस्त प्राणीर अधिकार।
एतेके से हरिनाम समस्त धर्मेर राजा, एहि सार शास्त्रर विचार।।


शंकरदेव के प्रधान शिष्य माधवदेव थे। इन लोगों ने असम तथा बंगाल में बड़े उत्साह से वैष्णवधर्मका प्रचार किया। गांव-गाँव में घर-घर में कीर्तन-मण्डलियाँ बनायीं और भगवन्नामका खूब प्रचार किया। आप असमिया साहित्य के जनक माने जाते हैं।
एक सौ बीस वर्ष की आयु में असम में वैष्णवर्ध के प्रवर्तक और महान् भक्त शंकरदेव ने इहलीला को समाप्त कर परम पद प्राप्त किया।
अभी-अभी भी घर में शंकरदेव का नाम सभी को विदित है, जिनकी जन्मभूमि आज भी हिन्दुओं का एक प्रधान तीर्थ मानी जाती है।

वैसे श्रीमन्त शंकरदेव का महत्त्व एक लम्बे अरसेतक भारतीय जन-मानस से ओझल रहा है। यद्यपि उनके महद् स्वरूप को उद्घाटित-उद्भाषित करने के अनेक प्रयास इधर हुए हैं, पर समग्र रूप से इस महान् संत की जीवनचर्या एवं उनके भावों से जनता-जनार्दन को परिचित कराने की दृष्टि से उनके जीवन चरित्र और उनके द्वारा बनाये गये कल्याणकारी पद्योंको इस पुस्तक में समाहित किया गया है, जिसका प्रकाशन गीताप्रेस द्वारा किया जा रहा है। इसके लेखक श्रीरामनिरंजन गोयनका संत शंकरदेव के चरित्र से अत्यधिक प्रभावित हैं और जनजाति की सेवा में पूर्ण रूप से संलग्न हैं।
आशा है सर्वसाधारणजन इसका पठन-मनन एवं अनुसरण कर लाभान्वित होंगे।

सम्पादक

शंकर देव का जन्म और बचपन


असम प्रदेश के प्रसिद्ध संत और धर्म-प्रचारक श्रीमन्त शंकरदेवका जन्म ‘आलिपुखुरी’ में शक-संवत 1371 के सौर आश्विन मासकी शुक्ल, दशमी तिथि (सन् 1449 ई०) को हुआ था। प्रायः देखा जाता है कि ऐसे महान् पुरुषों का जीवन-मार्ग कुसुमाकीर्ण होने की बजाय कण्टकाकीर्ण होता है। तुलसीदास-जैसे महान् प्रतिभाधरको बचपन में ही माता-पिता से वञ्चित कर विधाता ने ‘अनाथ’ बना दिया, कबीरदास को जन्मदायिनी ने जन्मते ही परित्याग कर दिया, और हमारे ‘शंकर वर’-को भी बचपन में ही नियति ने माता-पिता से वञ्चित कर दिया। अब उनके पालने-पोसने का भार दादी खेरसुती (सरस्वती)-पर आ पड़ा। दादी का लाड़-प्यार स्वभावतः कुछ ज्यादा होता है; तिसपर शंकरदेव एकमात्र नाती थे। वैसे शारीरिक दृष्टि से बचपन से ही ‘शंकर बर’ बड़ा हृष्ट-पुष्ट था। दूसरी ओर ‘शिरोमणि भूयाँ’ का पुत्र होने के कारण आम लोगों में सम्मानित भी था। इसी कारण उस अञ्चल की बाल मण्डली का मुखिया बनकर अञ्चल भर में अपनी धाक जमाने के तरह-तरह के करतब दिखाया करता एक बार किशोर शंकरने होड़ लगाकर बरसाती ब्रह्मपुत्रकी प्रचण्ड धारा को भी तैरकर पार कर लिया था। ऐसी चुनौतियों और जोखिम भरे कार्य करने मे शंकर अपना सानी नहीं रखता था, पर तब तक विद्यार्जनकी ओर उसका बिलकुल ध्यान न था।

महत पुरुषों के जीवन में कोई-न-कोई ऐसी अनहोनी घटना हो जाती है कि जिससे उनके जीवन की दिशा ही पूरी तरह बदल जाती है। गोस्वामी तुलसीदासके जीवन में बाबा नरहरिदास के संत्संग और पत्नी रत्नावली के तिरस्कार-जैसी घटनाओं नास्तिक नरेन्द्र (आगे चलकर स्वामी विवेकानन्द)-जीवन में रामकृष्ण परमहंस के सत्संग आदि जैसी अनेक घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है। किशोर शंकर के जीवन में भी ऐसा ही एक महत्त्वपूर्ण मोड़ आया। शंकर जितना बड़ा होता जा रहा था, उसका चञ्चलपन भी उतना ही बढ़ता जा रहा था। अब तो परिवार के अन्य सदस्यों के साथ दादी खेरसुती भी इसमें बड़ी चिन्तित हो उठीं। वे शंकर को विद्यार्जन के बारे में बार-बार समझाया करतीं, पर किशोर शंकर के कानों पर जूँ नहीं रेंगती थी। ऐसे ही वह बारह सालका हो गया था। अपने पिता-पितामह के राज्य की जमीन-जायदाद की देख-भाल की ओर भी उसका कोई ध्यान न था। एक दिन देर तक खेल-कूद में मस्त शंकर को दादी खेरसुती जबरन् पकड़ लिया था। अन्त में खाना परोसकर उसने उलाहना दिया कि ‘भूयाँ-वंश’ में उसके जैसा अनपढ़ कोई न था। दादी के उस उलाहने से किशोर शंकर के हृदय में भी बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उसने कहा, ‘दादी, मैं अवश्य पढूँगा। तुम मुझे पाठशाला में रख आओ।’ शंकर की इस बात से दादी को बड़ी खुशी हुई। उन दिनों कामरूप अञ्चल में जो ब्राह्मण पण्डित रहते, वे कभी-कभी अपनी ‘टोल’ या संस्कृत-पाठशाला भी चलाते थे, जिनमें ब्राह्मणों, राजाओं-सामन्तों या राजकर्मचारियों आदि के बेटे पढ़ते थे। ‘आलिपुखुरी’ से कुछ दूर ब्राह्मण महेन्द्र कन्दली की भी एक संस्कृत टोल थी। शंकर के पितामह शंकर को महेन्द्र कन्दलीके उसी ‘टोल’ में रख आये ।

अब नियमानुसार शंकर का विद्यारम्भ हुआ। शुरू में ही उसकी अद्भुद प्रतिभा देख शिक्षा–गुरू महेन्द्र कन्दली भी विस्मित थे। वर्णमाला की जानकारी मिल जाते ही शंकर ने बगैर मात्राओं की एक अत्यन्त भावपूर्ण कविता की ही रचना कर डाली। वह प्रारम्भिक कविता जितनी सरल है उतनी ही गूढ़-तत्त्व पूर्ण भी-

करतल कमल कमल दल नयन।
भव दव दहन गहन वन शयन।।
नपर नपर पर सतरत गमय।
गमय गमय भय ममहर सततय।।
खरतर बरशर हत दश बदन।
खगधर नगधर फणधर शयन।
जग दघ गयहर भव भय तरण।
पर पद पग लय कमलज नयन।।,

दादी ने जिसको अनपढ़ रह जाने का उलाहना दिया था, वह शंकर पढ़ने में ही तत्लीन हो गया। ज्ञानान्वेषण की भावना उसके मन में जाग उठी। उसकी प्रतिभा इतनी तेज थी कि कुछ ही दिनों में उसने तत्कालीन अनेक शास्त्रों का बड़ी गहराई से अध्ययन कर लिया। महेन्द्र कन्दली को उसके पहले विद्यार्थी तो अनेक मिले थे, पर शंकर-जैसा अलौकिक प्रतिभासम्पन्न विद्यार्थी तो बस, वही एक था। विमुग्ध महेन्द्र कन्दली ने शंकर के नाम के आगे सम्मानित ‘देव’ पदवी जोड़ दी, ‘शंकर वर’ अब ‘शंकर देव’ हो गया। शास्त्र-अध्ययन में ही वह सीमित न रहा, उसके मन में गम्भीर तत्त्व-जिज्ञासा और आध्यात्मिक-चेतना भी पनप उठी। शंकर देव के जीवन –यात्रा की दिशा ही पूरी तरह बदल गयी। लगभग पाँच वर्षों में ही वहाँ का अध्ययन पूरा हो गया। महेन्द्र कन्दली ने अपने होनहार विद्यार्थी को अब घर जाने की अनुमति दे दी।

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