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हास्य-व्यंग्य >> जो दिल की तमन्ना है

जो दिल की तमन्ना है

संजय अग्निहोत्री

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 9443
आईएसबीएन :9789383969791

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपनी बात

समय के साथ मानवमात्र के मन मे, दूसरों से आगे बढ़ने की ललक ने, जैसे-जैसे व्यस्तता बढ़ाई है, वैसे-वैसे स्वार्थपरता ने दूसरों के प्रति उसकी तटस्थता भी बढ़ाई है। मानव ने इसे एक नाम भी दिया है ‘सज्जनता’, जो कि ‘शराफ़त’ के नाम से ज्यादा प्रचलित है। कुछ जुमले मुलाहिज़ा फ़रमायें - ‘‘हम शरीफ़ लोग हैं हम क्यों इस पचड़े या विवाद में पड़े।’ ‘हमें क्या करना है।’ ‘ये जिम्मेदारी सरकारी निकाय, पुलिस वगैरह की है।’ वगैरह-वगैरह। लीजिए, कितनी आसानी से शराफ़त की आड़ में नैतिक, सामाजिक, नागरिक हत्यादि सभी जिम्मेदारियों से छुटकारा मिल गया। परिणाम स्वरूप, दुष्ट जीवनपर्यन्त दुष्टता करते रहते हैं, हम तटस्थ रहते हैं। यहीं नहीं जब-जब तो प्रारब्धवश, सरकारी अथवा सामाजिक निकाय के शिकंजे में फँस दीन-हीन बन मगरमच्छी आँसू बहाते है। तब-तब हम उस निकाय की मदद करने के बजाय या तो निकाय को ही कसूरवार बताते हैं या तटस्थ रहते हैं। इस प्रकार अनजाने ही हम उस दुष्ट की मदद कर रहे होते हैं। कुछ लोग तो मरे की क्या मारना सोच कर अपने आपको सान्तवना भी देते हैं। वहीं दुष्ट पासा पलटते ही शेर की तरह गरज कर पुनः दुष्टता करने लगता है। पर हम उससे भी कुछ नहीं सीखते।

एक दिन अपने कुछ मित्रों से वार्तालाप के दौरान, ऐसे ही एक प्रकरण पर चर्चा करते हुए जब मैंने यही सवाल उठाया तो मेरे एक मित्र ने यही चिरपरिचित जुमला कहा कि ए भले आदमी, मरे को क्या मारना। मेरे पुनः प्रश्न उठाने पर कि आप लोग देखते ही हैं कि इससे दुष्ट को प्रोत्साहन मिलता है और बुरा समय गुजर जाने पर तो दूने उत्साह से दुष्टता करने लगता हैं। मैं कुश्ती लड़ने को नहीं कहता, पर बाद में पछताने के स्थान पर अगर हम यथा सम्भव उस सरकारी अथवा सामाजिक निकाय की मदद करें या कम से कम दुष्ट से मुँह ही मोड़ ले तो ऐसी नौबत ही क्यों आये। इस पर एक अन्य मित्र ने कहा कि ये कौन सी किताब में लिखा है। सदैव सुलभ एवं प्रिय भारतीय वाद-विवाद से बचने के उद्देश्य से मैं प्रत्यक्ष में मौन रहा पर मन ही मन कहा ‘यदि नहीं लिखा तो लिखा जाना चाहिये’। घर आया, सोचता रहा। मस्तिष्क कहता कि सारी उम्र तो बीत गयी दुनिया की खिच-पिच को देखते, अब क्या लिखना और क्या न लिखना। पर हृदय समझाता, नौजवान इसलिए नहीं लिखते कि जीवन में विवादों से बचते हुए आगे बढ़ना है, बहुत कुछ करना है। तुम इसलिए न लिखो कि तुम्हें क्या करना है। क्या इस प्रकार तुम दुष्टों को बढ़ावा नहीं दे रहे ? कहाँ है तुम्हारी हर आड़ी-तिरछी बात पर मचल उठने बाली कलम ? कब तक उसका मुँह बाँधे रहोगे ? तभी परम पूज्य दिनकर जी की पंक्तियाँ याद हो आयी -

‘समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।’

और मस्तिष्क का सिर लज्जा से झुक गया, हृदय विजयी हुआ और मैंने एक बार पुनः कलम उठाने का निश्चय किया। मैं अत्यन्त आभारी हूँ अपनी पत्नी का जिन्होंने न केवल लिखने के लिए प्रोत्साहित किया बल्कि समय निकाल कर प्रूफ़ रीडिंग द्वारा मेरी सहायता भी की। मैं अपने प्रयास में कितना सफ़ल हुआ हूँ ये तो पाठकों की प्रतिक्रिया ही बतायेगी।

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