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जिन्दगी और गुलाब के फूल

उषा प्रियंवदा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 735
आईएसबीएन :81-263-0992-x

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प्रख्यात हिन्दी कहानीकार उषा प्रियंवदा की ये कहानियाँ सभी अर्थों में जीवन्त हैं,बिलकुल आज की हैं,आज के मन और आज के जीवन की है।

Zindagi aur Gulab ke Phool

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कहानी के क्षेत्र में आज भी एक से बढ़कर एक नशीले और उलझावदार प्रयोग चले रहे हैं। कभी-कभी तो पाठक सोचने तक लगता है कि कहानी के नाम से जो उसे मिलता है वह कहाँ तक कहानी है और कहाँ तक कला। ऐसे परिवेश में ‘जिन्दगी और गुलाब के फूल’ संग्रह की कहानियाँ सवेरे की ताजी हवा का झोंका-सा लगेंगी। प्रख्यात हिन्दी कहानीकार उषा प्रियंवदा की ये कहानियाँ पाठक को न केवल शैली-शिल्प के गोरखधन्धों से मुक्त रखती हैं बल्कि विचार-भावनाओं के अस्वाभाविक और अस्वास्थ्यकर उन्मादों से भी बचा ले जाती हैं। और विशेष बात यह है कि फिर भी ये कहानियाँ सभी अर्थों में जीवन्त हैं,बिलकुल आज की हैं,आज के मन और आज के जीवन की है। प्रस्तुत है ‘जिन्दगी और गुलाब के फूल’ का नया संस्करण।

पैरम्बुलेटर

तब कालिन्दी की नयी-नयी शादी हुई थी। एक शाम वह परमेश्वरी के साथ घूमने गयी, और बाजार में इधर-उधर दो चक्कर लगाकर वे बाद में पार्क में एक बेंच पर जा बैठे। थकी कालिन्दी ने झुककर देर से गड़ता हुआ सैण्डिल का बकसुआ ढीला कर दिया और एक लम्बी साँस छोड़कर बेंच से टिक गयी। परमेश्वरी ने अपने घुटनों पर रूमाल बिछा दिया, और जेब से एक मुट्ठी मेवा उस पर रखता हुआ बोला,‘‘खाओ !’’ कालिन्दी की उजली आँखों में कभी-कभी लाज के डोरे उभर आते थे। अब तक खुल्लम-खुल्ला सबके सामने पति के साथ आजादी से बैठने की आदी नहीं हो पायी थी। वह शरमीली आँखें उसने उठाकर एक बार परमेश्वरी को देखा फिर एक काजू उठाकर मुँह में डाल लिया और आँखें सामने गड़ा दीं।
हवा में ठण्डक आ गयी थी। जाड़े के फूलों में कलियाँ फूट चुकी थीं और पनसुट्टी के झुरमुट में बड़े-बड़े लाल फूल झूम रहे थे। कुछ दूर पर कुछ बच्चों की गाड़ियाँ खड़ी थीं, और तीन-चार आयाएँ आपस में बैठकर बातें कर रही थीं।

परमेश्वरी ने भी उधर देखा, फिर जरा-सी मुसकराहट उसके ओठ छू गयी। ‘‘तुम्हें भी खरीद दूँ एक पैरम्बुलेटर ?’’
कालिन्दी कानों तक लाल हो गयी। सायास आँखें उठाकर परमेश्वरी को देखा। ‘‘हटिए, बड़े खराब हैं आप !’’ और थोड़ा दूर खिसककर बैठ गयी। परमेश्वरी हँस दिया और उसकी दुष्टतापूर्ण हँसी कालिन्दी के दिल में हिलोरें लेती रही।
कुछ महीनों बाद, जब घर का काम समाप्त कर कान्लिदी थकी-सी अपनी चारपाई पर लेटी तो परमेश्वरी ने कहा, ‘‘एक बात, सोचता हूँ।’’ कालिन्दी के कान चौके में काम करती महरी पर लगे थे। बरतन माँजने की आवाज बन्द हो गयी थी, कहीं चीनी न निकाल ले डिब्बे से, सोचते हुए कालिन्दी ने कहा, ‘‘हूँ ?’’

‘‘दफ्तर के जोशीजी की बदली हो गयी है। फालतू सामान निकाल रहे हैं। बच्चे की गड़ी भी है, सस्ती मिल जायेगी।’’ चौके में नल गिरने लगा था, और बरतन धोने की आवाज आयी, इसलिए पूरा ध्यान परमेश्वरी ओर दे उसने कहा-‘‘‘नहीं भाई, हम पुरानी चीजें नहीं लेंगे।’’
‘‘तो फिर जाने दो। मैंने तो वैसे ही कहा था।’’ यह कहकर परमेश्वरी चुप हो गया। कुछ देर चुप रहने के बाद कालिन्दी ने कहा, ‘‘एक बात हो सकती है, वो रूपये रखे हैं न, उनसे नयी खरीद लें।’’
बिना उत्साह दिखाये परमेश्वरी बोला, ‘‘रहने दो। तुम तो कानों के लिये कुछ बनवाने को कह रही थीं।’’
पर कालिन्दी उठकर बैठ गयी थी। उसकी आँखें उत्साह से चमक उठीं, ‘‘ओह ! बाली बुन्दों का क्या होगा ? हम तो गाड़ी ही लेंगे। एक चीज हो जाएगी घर में। रूपयों का तो पता ही नहीं लगता, जाने कहाँ खर्च हो जाते हैं। सुनिए न, तो कल ही चलकर ले लें ?’’

उसकी अधीरता पर परमेश्वरी को हँसी आ गयी।‘‘कल क्यों ? चलो आज ही खरीद लें, अभी दुकान खुली ही होगी।’’
‘‘आप तो बस, हँसी ही सूझती है। जाइए, हम नहीं खरीदते गाड़ी-आड़ी। बस खुश।’’ और कालिन्दी रूठ गयी और रूठी ही रही। परमेश्वरी के कई बार कहने पर भी गाड़ी पसंद करने नहीं गयी। लाचार परमेश्वरी अपने-आप ही खरीद लाया, तब लाख प्रयत्न करने पर भी रोकने से कालिन्दी की आँखों से हँसी फूट पड़ी। जल्दी-जल्दी उसे चारों तरफ से देख डाला, फिर मुग्ध होकर बोली, ‘‘कैसी प्यारी है, कैसा अच्छा-सा रंग, कैसे पहिये, कैसे सुन्दर हुड। अब तो इसके नाप की गद्दी बनानी पड़ेगी, हैं न ?’’
और उस क्षण परमेश्वरी को लगा कि अब जीवन में उसे और कुछ नहीं चाहिए।

उसने आसमान छू लिया है। पुलकित कालिन्दी और आनेवाले शिशु की प्रतीक यह गाड़ी, अब कुछ दिन बाद इसमें लेटा नन्हा-मुन्ना घर में परिवर्तन ले आएगा। उसी की आवश्यकता पर दोनों की नयी चर्चा बनेगी। फिर बैठना सीखकर इसमें से झाँका करेगा। सारे घर में उसकी हँसी, उसकी किलकारियाँ प्रतिध्वनित हुआ करेंगी।
और गाड़ी का हैण्डल पकड़े कालिन्दी सोच रही थी अब मैं इसके नाप की गद्दियाँ सीऊँगी, छोटे-छोटे तकियों पर रंग-बिरंगे फूल बनाऊँगी। उसकी आँखें परमेश्वरी की आँखों से मिलीं और दोनों अपने-अपने सपनों की अमूल्य निधि को सँजोये मुसकरा दिये।

छोटा-सा घर था, सीमित आय, पर कालिन्दी वहाँ की रानी थी। काम-धन्धा समाप्त कर लेट जाती और कभी-कभी कुछ करते-करते भी हाथ रूक जाते और एक गोल-सा चेहरा आँखों के आगे आ जाता, उसकी पीठ पर भार देकर ठुनकता हुआ, उसके हर काम में विध्न डालता हुआ। जितनी बार कमरे में जाती एक नजर गाड़ी पर जरूर डाल लेती। उसके दिन एक मधुर, उत्सुक आशा में बीतते जा रहा थे।

परमेश्वरी को तब ऑफिस में कुछ देर हो गयी थी। छुट्टी पाकर मजे में कुछ गुनगुनाता हुआ वापस लौट रहा था। घर के बाहर बरामदे में साइकिल टिकाकर ज्यों दरबाजे पर हाथ लगाया, अन्दर से खुल गया। दरवाजे पर पड़ोसी केशव बाबू की लड़की थी, उसे देखकर बोली, ‘‘अम्मा के संग भाभी अस्पताल गयी हैं, आप जैसे ही आएँ वैसे ही जाने को कहा है।’’ कुछ देर चुप रहकर परमेश्वरी ने यह बात ग्रहण की। फिर कहा, ‘‘अच्छा जाता हूँ।’’
चन्दा ने कहा, ‘‘नाश्ता कर लीजिए, भाभी निकालकर रख गयी हैं।’’
परमेश्वरी भूखा था, मगर कहा, ‘‘नहीं, पहले वहाँ हो आऊँ।’’

परमेश्वरी ने साइकिल उठायी, तेजी से पैर चलाये और आगे बढ़ा। एक ओर तो वह पुलकित हो रहा था, दूसरी ओर कई चिन्ताएँ थीं। माँ को बुलाया था, वह आ नहीं पायी थी। पता नहीं कालिन्दी कैसी होगी ! अस्पताल पहुँचकर उसने इधर-उधर पता लगाया, तब चन्दा की माँ आयी । परमेश्वरी को देखकर उन्होंने तुरत आँचल आँखों पर रखकर ऊँ-ऊँ करना शुरू कर दिया।
हकलाकर परमेश्वरी ने पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’
तब उन्होंने बतया, ‘‘कालिन्दी ने एक मृत कन्या को जन्म दिया है।’’

कालिन्दी फिर धीरे-धीरे सिसकने लगी थी। परमेश्वरी ने मुट्ठियाँ भींच ली, और निश्चेष्ट पड़ा रहा । बगल की कोठी से कुछ खटपट की आवाज आ रही थी, फिर रानी का बच्चा रो पड़ा, और रानी उसे चुप कराने लगी।
परमेश्वरी लेटे-सेटे सब सुन रहा था। एक भारी पत्थर-सा दिल पर रखा था, और कालिन्दी है कि रोती ही जाएगी। परमेश्वरी ने हाथ बढ़ाकर उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, ‘‘चुप हो जाओ। क्या बचपना करती है ?’’
कालिन्दी चुप रही। बच्ची गयी तो गयी ही, ऊपर से नाते रिश्तेदार, टोला-पड़ोस, सास-ननद, सबने थोड़ा सा दुःख मनाकर, बाद में कहा-‘‘चलो भगवान की इच्छा। लड़की न रहने का क्या दुःख है। परमेश्वरी के गले की फाँसी बन जाती, पाप ही कटा।’’ पर कालिन्दी क्या करे ? वह नन्हे-नन्हे कपड़े, वह नरम तकिये, धुली-धुली चादरें, और कमरे के कोने में खड़ी गाड़ी, हरेक चीज किसी की प्रतीक्षा में। परमेश्वरी यह सब क्या समझेगा ? वह तो खुलकर, चीखकर रो भी नहीं पायी। उसके निरन्तर उदास रहने पर ही सास ने कहा दिया, ‘‘मेरे दस बच्चों में छह जाते रहे, मैंने तो ऐसा दुःख कभी नहीं मनाया।’’
बरामदे में बैठी अपने लड़कों को तेल लगाती रानी ने कहा-‘‘अरे अम्मा, हम भला बाल-बच्चों की क्या ममता जानें। इनकी तो सारी बातें निराली हैं।’’
कालिन्दी चुप रही।

अपने दो महीने के बच्चे को सूती चादर में लपेटकर मेहतरानी दरवाजे पर उसे लिटा काम करने लगी तो कालिन्दी एक क्षण उस बच्चे को देखती रही। तेल से तर बाल, कानों तक काजल लगी बन्द आँखे, चपटी नाक, छोटे-छोटे अंग , गुलाबी हाथ और सिकुड़े-सिकुड़ाये पैर।
कालिन्दी ने जाकर बक्स खोला, और अपने बनाये कपड़ों की गठरी ले जाकर बिना कुछ कहे मेहतरानी को दे दी। छलछलाती आँखें लेकर अपने कमरे में पड़ी रही। आशीषें देती हुई मेहतरानी जब एक-एक कपड़ा खोलकर देखने लगी, तो पुकार कर माँ को सुनाते हुए रानी ने कहा, ‘‘हमारे लल्लू के लिए तो एक टोपी भी न बिना गया उनसे।’’ चौके में सास रानी के पसन्द की तरकारी बनाने गयी थी, वहीं से देख रही थी। उत्तर में उन्होंने पानी की एक बाल्टी जोरों से खड़कायी और कढ़ाई उतारकर खट्ट से जमीन पर पटक दी।
कालिन्दी सुन रही थी।

फिर एक दिन रानी नें गाड़ी पर अपने लल्लू की गद्दी बिछायी और अपने नौकर के साथ घूमने भेज दिया। फिर गाड़ी अपनी कोठरी के सामने ही खड़ी करवा ली। अब उसपर लल्लू का राज था, उसी की हैण्डिल पकड़कर खड़ा होता। और ऐड़ियों के बल पर उचकता रहता। अगर कभी लुढ़ककर नीचे जा गिरता तो उसकी नानी लपककर उसे उठतीं और कहतीं, ‘‘यह मरी नासपीटी गाड़ी लल्लू का प्राण ही ले लेगी।’’
अपनी बड़ी-बड़ी आँखो से कालिन्दी सब देखा करती।
भाभी को देखने आयी हुई रानी ने जब सवा महीने बाद चलने की तैयारी की, तो परमेश्वरी उसे पहुँचाने जा रहा था। सामान बटोरते हुए उसने पूछा, ‘‘हाँ भइया, ये गाड़ी कैसे चलेगी ?’’
परमेश्वरी ने कहा, ‘‘बुक करा लेंगे !’’

रानी उसका रूख देखकर खुश होकर बोली, ‘‘हाँ, लल्लू को बड़ा आराम रहेगा। उसकी आदत पड़ गयी है। फिर यहाँ तो बेकार ही पड़ी रहती है।’’
कालिन्दी चौके के दरवाजे पर जा खड़ी हुई। और कम्पित कण्ठ से कहा-‘‘गाड़ी तो, बीबी, नहीं जाएगी।’’
रानी और परमेश्वरी ने चौंककर उसे देखा और कुछ अप्रतिभ होकर रानी बोली, ‘‘लल्लू के लिए...।’’
कालिन्दी चुप खड़ी रही। उस अचानक आ गये तनाव के बीच परमेश्वरी की माँ गरज उठी, कैसे नहीं जाएगी। आयी वहाँ से, जा रानी ले जा, देखें क्या करती है ?’’

कालिन्दी वापस चौके में लौट गयी। गीली पलकों से धुएँ से गहरी काली दीवार को देखा और फिर चमकते धुले बरतनों की पाँत को, जो नीरव निश्चल सब कुछ देख रहे थे। खुली अलमारी में रखे चीनी के डिब्बे पर से असंख्य चींटियाँ बड़ी संलग्नता से चढ़-उतर रहीं थीं। एक गहरी, सूखी सिसकी उसे हिला गयी और उसने असहाय, विवश आँखे छत की ओर उठायीं। जो वहाँ की पुरानी काली धन्नियों से टकराकर नीचे जा झुकीं।
बाहर मुँह फुलाये रानी अपने कपड़े तहा रही थी। परमेश्वरी चुप था। सास अपनी कोठरी में चली गयी। एक विचित्र-से, बनावटी सन्नाटे ने सबको घेर लिया था। परमेश्वरी को कालिन्दी पर क्रोध आ रहा था, घर का मालिक वह था, उसे बीच में बोलने को क्या पड़ी थी। रानी को बेकार ही नाराज कर दिया, गाड़ी ले ही जाती तो क्या था।
सामान बँध गया। गाड़ी बरामदे में खड़ी रही, उपेक्षित-सी, अपमानित-सी। हैण्डिल में लल्लू का जो झुनझुना झूलता था वह रानी ने उतार लिया था, बस काला डोरा लटक रहा था। वह एक झुनझुना मात्र ही उतर जाने से लुटी-सी लग रही थी।

परमेश्वरी ने पूछा, ‘‘गाड़ी नहीं बाँधी, रानी ?’’
चलने के लिए रेशमी साड़ी पहने, सिन्दूर की बिन्दी लगये रानी तैयार खड़ी थी। उपेक्षा से बोली, ‘‘उँह रहने दो भैया, लल्लू की उमर बड़ी हो, उसे पचीसों गाड़ियाँ मिल जाएँगी।’’
परमेश्वरी ने जाते समय कालिन्दी की तरफ देखा भी नहीं। जब ताँगे के पहियों की आवाज सड़क के कोलाहल में डूब गयी तब भी कालिन्दी मर्माहत नेत्रों से दरवाजे पर टिकी खड़ी रही।
कुछ दिन बाद सास भी अपने छोटे लड़के के पास चली गयी, और घर में रह गये परमेश्वरी और कालिन्दी। बहुत प्रयत्न करने पर भी कालिन्दी पहले- सी नहीं हो पायी थी। अब उसकी आँखों में गहरा गाम्भीर्य आ गया था , जिनमें कभी-कभी दर्द के डोरे उभर आते थे।
परमेश्वरी ने मुँह सिकोड़कर कहा, ‘‘तुम भी किस चक्कर में फँसी हो ? आजकल कोई पढ़ा-लिखा आदमी इन बातों पर विश्वास नहीं करता।’’ मगर फिर भी उसने अपने हाथ बाबाजी के प्रसाद के लिए बढ़ा दिये। भर्त्सनापूर्ण दृष्टि से कालिन्दी ने उसे देखते हुए एक अमरूद और एक बताशे दे दिये। फिर मन्द स्वर से कहा, ‘‘तो वह सारे लोग बेवकूफ ही हैं, जो उन्हें घेरे रहते हैं ?’’

अमरूद के फीकेपन पर मुँह बनाते हुए परमेश्वरी ने कहा ,‘‘दुनिया में बेवकूफों की कमी है ?’’
‘‘अच्छा तो उन बेवकूफों में मैं भी सही, ’’कुछ बुरा मानकर कालिन्दी ने कहा, और अन्दर चली गयी।
परमेश्वरी गम्भीर हो आया। कालिन्दी पर पहले उसे हँसी आयी थी, फिर क्रोध, और अब गहन करूणा ! पास-पड़ोस में आये ही दिन किसी-न-किसी के बच्चे की छठी-बरही हुआ करती थी। पहले कालिन्दी कहीं जाने के नाम से खुश हुआ करती थी, फिर धीरे-धीरे उदासीन होती गयी। और अब किसी के घर बच्चे होने का समाचार सुन उसकी आँखें दुखी हो जाती थीं, मुख पर छायाएँ घिर जाती थीं।
परमेश्वरी ने भी मन ही मन एक अभाव-सा महसूस किया था, पर कालिन्दी के दुःख का पूरा एहसास उसे तब हुआ जब कि पड़ोस में मुन्शीजी के पाँच लड़कियों के बाद लड़का होने के उपलक्ष्य में रतजगा था। कालिन्दी बहुत जल्दी ही लौट आयी और साड़ी बदलकर लेट गयी। रात के अँधेरे में जब सारा कोलाहल डूब गया, तब ढोलक की ढप-ढप और सम्मिलित स्त्री-कण्ठों का बेसुरा गीत स्पष्ट सुनाई पड़ने लगा। कुछ देर बाद परमेश्वरी ने पाया कि कालिन्दी ने तकिये में मुँह गड़ा लिया है। उसके पुकारने पर भी वह चुप रही और नीरव क्रन्दन से उसका शरीर काँपता रहा।

परमेश्वरी ने धीरे से बहलाते हुए कहा, ‘‘बात क्या है ? हूँ ? बताओ ?’’ तब कालिन्दी ने पतले, काँपते, पर तीव्र स्वर में कहा, ‘‘तुम क्या जानो तुम क्या समझो ? सुनना तो मुझे पड़ता है।’’
परमेश्वरी चौंक-सा गया, फिर कहा, ‘‘क्या सुनना पड़ता है ? कौन तुमसे कुछ कहता है ? कोई तुम...कोई...तुम...’’ और प्रयत्न करने पर भी वह यह उच्चारण न कर सका कि तुम वन्ध्या तो नहीं हो। उसका बढ़ा हुआ हाथ कालिन्दी ने झटक दिया परमेश्वरी तब चुपचाप उठा, और दरवाजा खोल बाहर आ गया। यहाँ गीतों की एकरस आवाज कुछ धीमी थी। सड़क के किनारे पेड़ एकदम शान्त थे, और धीमी बत्तियों पर दो-एक पतंगे मँडरा रहे थे। आस-पास घरों की बत्तियाँ बुझ गयी थीं, और सड़क पर अपनी दुकान बन्द कर पानवाला घर जा रहा था, उसके भारी जूते सड़क पर खट-खट करते जा रहे थे। दूर, एक इक्का जर्जर काया खड़खड़ाता जा रहा था, जिसका घोड़ा थके हुए पैर उठा रहा था और कोचवान रह-रहकर खाँस उठता था।

‘‘अगर वह लड़की जिन्दा रहती तो कम से कम सात बरस की होती।’’ परमेश्वरी ने सोचा। अब तक स्कूल भी जाने लगती।
फिर दरवाजा बन्द करता हुआ अन्दर आया।
बाँहे आँखों पर रखकर कालिन्दी निश्चल लेटी थी, परमेश्वरी उससे कुछ नहीं बोला।
ताल के स्थिर जल में एक पत्थर जा गिरा, और उसकी हिलोरों ने दोनों के जीवन में भारी परिवर्तन ला दिया। परमेश्वरी की नौकरी छूट गयी और अवसन्न कालिन्दी ने सब ओर आँख फैला-फैलाकर देखा, कोई सहारा नहीं दिखा। ससुराल में परमेश्वरी का छोटा भाई था, उसी की तरह मामूली-सी नौकरी, माँ को भी साथ रखता था। मायके में दो, भाई आठ बहनें, अपने पास ऐसा कुछ नहीं कि साल-दो साल कट सके। पर परमेश्वरी ने ढाढ़स दिया। पढ़े-लिखे आदमी को कुछ-न-कुछ काम तो मिल ही जाएगा। पर दिन बीतते गये। परमेश्वरी को नौकरी नहीं मिली।

एक दिन पानी-सी पतली दाल और उसके साथ रोटी खाते-खाते उसने कालिन्दी की ओर देखा, वह दीवार का सहारा लगाये चिन्ताकुल बैठी थी। काली आँखों पर पलक छाये थे, दुबले मुँह पर अब भी लावण्य की क्षीण आभा थी। परमेश्वरी के गले में कौर अटकने लगा। कहा, ‘‘किशन बाबू हैं न, उन्हें गाड़ी की जरूरत है, मैंने कहा, नयी ही है, तो राजी हो गये।’’ कालिन्दी ने एक आर्त चीत्कार से कहा, ‘‘नहीं, नहीं, मैं गाड़ी नहीं बेचूँगी।’ उसके हाथ एकमात्र आभूषण अपने गले की चेन के काँटे से उलझने लगे। ‘‘इसे ले लो, पर गाड़ी नहीं।’’ लाकेट के मोती बिजली के प्रकाश में एक क्षण चमके...परमेश्वरी ने सिर झुका लिया, ‘‘जाने दो, मैंने तो यों ही कहा,’’ और उठ गया।

आठ साल बाद शिशु के आगवन का समाचार सुन परमेश्वरी के ओठ विद्रूप की हँसी से कुटिल हो आये। इस बार प्रसव के लिए कालिन्दी को घर जाना पड़ा। उसके आभरण रहित अंग और पीला मुख देखकर उसकी माँ की आँखों में अपने आप पानी भर आया। पर कालिन्दी को वहाँ विचित्र-सी राहत मिली, भाई-बहनों की हँसी में वह अपनी अगणित चिन्ताएँ भूल-सी गयी। पर उठते-बैठते, काम करते-करते उसे परमेश्वरी का खयाल आ जाता-कैसे होंगे, क्या खाते होंगे, कितनों का रूपया देना है, कैसे दिया जाएगा। फिर आने वाला शिशु...पर उन सबके बावजूद उल्लास की एक नन्ही-सी हिलोर उठती और उसके मनप्राणों को तरंगित कर जाती। और जब माँ ने उसके पास उसके नवजात शिशु को लिटाया तो कालिन्दी सब कुछ भूल गयी, सारी पीड़ा, सारी चिन्ताएँ, दिल के ऊपर जमी गहरी काली काई, उसके एक कोमल स्पर्श से न जाने कहाँ तिरोहित हो गयी। उसने धीरे से बच्चे के काले बालों को उँगली से छुआ और उसकी आँखें देखकर पास बैठी बहन को लगा जैसे स्वच्छ जल पर चाँद की किरणें फिसल गयी हों। बच्चा निवाड़ के पुराने पालने में लेटा रहता था। कालिन्दी को लगता कि अगर गाड़ी होती तो कैसा अच्छा रहता। वह भी हैण्डिल में एक रंग-बिरंगा खिलौना लगा देती और बच्चा-अपनी काली-काली पुतलियों से उसे देखता रहता।

फिर जैसे बर्फ के बीच एक फूल खिल जाए, ऐसा ही कालिन्दी को लगा, उसे परमेश्वरी का पत्र मिला की नौकरी मिल गयी है। है तो साठ रुपये की, पर कालिन्दी चाहे तो आ जाए। कालिन्दी माँ के यहाँ रहते-रहते ऊब गयी थी, सो चलने की तैयारी की।
पर परमेश्वरी के पास पहुँचने पर सारा उत्साह फीका पड़ गया। घर गन्दी-सी गली में था, सीलन-भरी कोठरी, खिड़की खोलने से धूप कम पड़ोस का धुआँ अधिक आता था, आगे खपरैल का एक बरामदा; यह घर था। परमेश्वरी बिलकुल दुबला हो गया था। गालों की हड्डियाँ उभर आयी थीं। सामान के नाम पर दो चारपाई और बेंत की दो कुरसियाँ थीं। बच्चे को चारपाई पर लिटाकर कालिन्दी चारपाई पर बैठ गयी, फिर जब परमेश्वरी की आँखों से दृष्टि मिली तो परमेश्वरी ने सायाम मुसकराते हुए कहा, ‘‘आपकी गाड़ी रखी है। दो दिन पहले तक माथुर साहब माँग रहे थे। पर अब तो हकदार थे। मैंने मना कर दिया।’’
‘‘अच्छा किया, ’’उसने धीरे से कहा।

न जाने सफर से, या कि ऐसे ही, बच्चे को शाम ही को बुखार आ गया। कालिन्दी उसे दाबे-ढाँके रही। सोचा, ठीक हो जाएगा, नन्ही-सी जान है। दूसरे दिन परमेश्वरी अस्पताल ले गया, दवा दिला लाया। बच्चे ने कुछ मुँह बिगाड़कर पी, कुछ उगल दी। तीसरे दिन भी बुखार रहा तो मकान-मालिकन की बतायी दवा कुछ पीस-कूटकर पिलाती रही। फिर भी बुखार नहीं उतरा। चौथे दिन शाम को थका-थकाया, पैबन्द जूते घसीटता परमेश्वरी घर में घुसा तो कालिन्दी ने रोककर कहा, ‘‘यह तो जाने कैसी साँस ले रहा है। जाओ किसी को बुला कर लाओ।’’ परमेश्वरी वापस गया और एक डॉक्टर को लेकर आया। डॉक्टर ने एक नजर अँधेरे, घुटे कमरे पर डाली, फिर बच्चे की परीक्षा करके कहा, ‘‘ठण्ड लगने से निमोनिया हो गया है, आप लोग घबराइए नहीं।’’
फिर उन्होंने नुस्खा लिखकर कहा, ‘‘यह इंजेक्शन है, लाकर लगवा लीजिएगा।’’
बटुवे की तह में कहीं दबाया हुआ पाँच का नोट निकालकर कालिन्दी ने उसकी उसकी फीस दी। हाथ में नुस्खा लिये खड़े हतबुद्धि परमेश्वरी ने कालिन्दी की करफ देखा एक गहरा अँधेरा उसे घेरने लगा। वह दरवाजे की ओर बढ़ा और रूक गया, उसकी उँगलियों ने खाली जेब छुई और शिथिल हो गयीं।
कालिन्दी ने बच्चे को गोद में लेकर अच्छी तरह ढँक दिया और काँपते कण्ठ से कहा, ‘‘खड़े क्या हो ? गाड़ी लेकर जाओ और कहीं बेचकर दवा ले आओ।’’ और आँखों पर आँचल रख लिया।

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