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आधुनिक भारत का इतिहास खण्ड-2

धनपति पाण्डेय

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :504
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4525
आईएसबीएन :81-208-2885-0

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1857 से 1980 के आधुनिक भारत का इतिहास...

Aadunik Bharat Ka Itihas Part-2 a hindi book by Dhanpati Pandey - आधुनिक भारत का इतिहास खण्ड-2 - धनपति पाण्डेय

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


पुस्तक में सैनिक विद्रोह के बाद होने वाले सांविधानिक विकास का पूरा विश्लेषण किया गया है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी एक पूरा अध्याय है तथा गणतन्त्र के निर्माण एवं स्वतंत्र भारत में हुई प्रगति का विश्लेषण किया गया है।

आधुनिक भारत का इतिहास

प्रस्तावना

ईस्ट इण्डिया कम्पनी को अपने राज्य-विस्तार में उत्तरोत्तर सफलता मिली। मैसूर, हैदराबाद, अवध महाराष्ट्र और पंजाब की सारी रियासतें उनकी संप्रभुता के आधीन हो गईं। उन पर कब्जा जमाने के सिलसिले में कम्पनी ने उचित-अनुचित का कोई विचार नहीं किया। सन् 1857 ई. के सैनिक विद्रोह के पूर्व भारत में अनेक राज्यों तथा जातियों ने कम्पनी की दोषपूर्ण राजनीति एवं आर्थिक नीति के कारण अनेक विद्रोह किये। 1857 ई. में अंग्रेजों की कपटपूर्ण तथा शोषक नीति एवं अन्यायपूर्ण व्यवहार के कारण भारत में एक महान् विप्लव हुआ जो पहले के विद्रोहों से कहीं अधिक व्यापक एवं प्रभावशाली था। चूँकि इस बार के विद्रोह में प्रमुख भूमिका सैनिकों की थी इसलिए इसे सैनिक विद्रोह कहा जाता है। परन्तु यह विद्रोह कई कारणों से असफल रहा। भारतीय नरेशों ने इससे असहयोग किया। विद्रोह का नेतृत्व कमजोर था और विद्रोहियों में आदर्श का अभाव था। यह व्यापक होकर भी सारे देश में नहीं फैल सका। 1858 ई. में महारानी विक्टोरिया ने अपनी घोषणा से भारतीय प्रशासन का नियन्त्रण कम्पनी से छीनकर ब्रिटिश क्राउन को सौंप दिया प्रशासन की नई रुपरेखा बनी। राज्यों को राजमुकुट (क्राउन) की प्रभुसत्ता स्वीकार करनी पड़ी। विद्रोह के बाद देश में आर्थिक शोषण का युग शुरू हुआ। सांविधानिक सुधार सामने आने लगे। शिक्षा, पुलिस, सेना आदि सभी क्षेत्रों में नई नीतियाँ लागू की गईं। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा को व्यवस्थित रूप दिया गया। यूनिवर्सिटी कमीशन की सिफारिश पर 1904 ई. में यूनिवर्सिटी-एक्ट पास किया गया। ये सभी बातें ऐसी स्थिति बनाये रखने के लिए थीं जिनसे सैनिक-विद्रोह जैसी स्थिति पुनः पैदा न हो। सरकार सामाजिक सुधारों के प्रति पुनः उदासीन हो गई। उन्नीसवीं सदी में सामाजिक और धार्मिक सुधार आन्दोलनों का युग प्रारम्भ हुआ। ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, थियोसॉफी आदि आन्दोलनों ने हिन्दू समाज को झकझोर डाला। उधर मुस्लिम समाज में भी सुधार की बात आगे आई और सय्यद अहमद खाँ ने उसमें पहल की। इस आन्दोलन का नाम अलीगढ़ आन्दोलन पड़ा। देश में वैज्ञानिकों का एक नया चमत्कारी दल सामने आया जिनमें रामानुजम, जगदीश चन्द्र बसु, चन्द्रशेखर वेंकट रमन, मेघनाद साहा और शान्ति स्वरूप भटनागर जैसे वैज्ञानिकों ने अपनी विशिष्ट प्रतिभा का परिचय दिया।

इसी काल में राष्टीय आन्दोलन भी फला फूला। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का सर्वमान्य काल कांग्रेस की स्थापना के वर्ष से लेकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के वर्ष तक है (1885 ई. से 1947 ई. तक)। इस आन्दोलन की कुछ प्रमुख धाराएँ रहीं। प्रारम्भ में उदारदली तथा राष्ट्रीय, कालान्तर में महात्मा गाँधी से प्रभावित धारा तथा आतंकवादी धारा। सन् 1921 ई. से ही सविनय अवज्ञा आन्दोलनों की भरमार रही। सन् 1945 ई. के बाद भारत विभाजन और स्वतन्त्रता की राजनीति देश में सर्वोपरि रही।

पुस्तक में सैनिक विद्रोह के बाद होने वाले सांविधानिक विकास का भी पूरा विश्लेषण किया गया है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था पर भी पूरा एक अध्याय है। पुस्तक का समापन गणतन्त्र के निर्माण एवं स्वतन्त्र भारत में हुई प्रगति के विश्लेषण से किया गया है।

मुझे पूरी आशा है कि पुस्तक अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल होगी और जो अध्येता इसकी विषय-वस्तु को सुधारने के सुझाव भेजेंगे उनका मैं स्वागत करूँगा।
-धनपति पाण्डेय


पहला अध्याय


सिपाही विद्रोह के पूर्व ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध प्रतिरोध


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प्लासी की लड़ाई से लेकर सिपाही विद्रोह तक के मध्य का काल सर्वथा शान्ति और समझौता का काल नहीं था। इन सौ वर्षों के अन्तर्गत भारत में ब्रिटिश शासन की नींव पड़ी थी और राज्य का विस्तार हुआ था। लार्ड डलहौजी के काल तक के शासन की प्रकृति यह स्पष्ट कर रही थी कि विदेशी शासन ने नये-नये परिवर्तन लाकर नागरिकों, सामन्तों और सैनिकों का शोषण, केवल शोषण किया था। विदेशी शासन ने शोषण के कई तरीके अपनाये थे। किसानों तथा व्यापारियों पर कड़े कर लगाये गये थे, स्थानीय शासन पर कब्जा जमाया गया था, प्रचलित अर्थ-व्यवस्था में परिवर्तन लाकर देश के व्यापार, उद्योग एवं कृषि को ह्रासोन्मुख किया गया था और ग्रामीण व्यवस्था छिन्न-भिन्न कर डाली गई थी। परिवर्तन की शोषण प्रवृत्ति ने भारतीयों को विदेशी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष एवं विद्रोह करने के लिए बाध्य किया और अपने सौ वर्षीय शासनाविधि में सरकार अशान्त बनी रही। बंगाल तथा पूर्वी भारत के क्षेत्र, पश्चिमी भारत और दक्षिणी भारत ने अंग्रेजों के विरुद्ध सिर उठा लिया। अतिरिक्त में मुसलमानों ने अपने नेता सैयद अहमद के नेतृत्व में जेहाद के जरिए ब्रिटिश शासन को चुनौती दी। मुसलमानों का यह आन्दोलन ‘वहाबी आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है। सिपाही विद्रोह के पूर्व वहाबी आन्दोलन भारत का एक बड़ा आन्दोलन था जिसने अंग्रेजों की सत्ता का कड़ा प्रतिरोध किया था। इन प्रतिरोधों, विद्रोहों और आन्दोलनों के पीछे निजी स्वार्थ की भावना तो थी ही, देश को मुक्त करने का संकल्प भी था।

बंगाल तथा पूर्वी भारत में विद्रोह



बंगाल तथा पूर्वी भारत में छोटे-बड़े अधिक विद्रोह हुए। संन्यासियों, चुआर, हो, कोल, सन्थाल, अहोम, खासी आदि के विद्रोह समय-समय पर हुए जो ब्रिटिश प्रशासन द्वारा दबा दिये गये। पर, इनके प्रतिरोध ने इस बात की पुष्टि कर दी कि भारत के लोग अंग्रेजों के शासन से घृणा करते हैं। 1764 ई. में ही बंगाल के नवाब मीरकासिम ने अंग्रेजों की शोषण नीति के विरुद्ध बक्सर का युद्ध करके विद्रोह का श्रीगणेश कर दिया।

संन्यासियों का विद्रोह : पूर्वी क्षेत्र के विद्रोहों में संन्यासियों का विद्रोह सबसे महत्त्वपूर्ण था। संन्यासियों ने न केवल बंगाल को अपितु दक्षिण बिहार और राजस्थान को भी प्रभावित किया।

वारेन हेस्टिंग्स के काल में संन्यासियों ने विद्रोह करके अंग्रेजी शासन को अशान्त कर दिया। संन्यासी बहादुर और कर्मठ थे और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने की उनकी एक परम्परा थी। वे अद्वैतवादी श्री शंकराचार्य के शिष्य और समर्थक थे। शंकराचार्य के शिष्य कुल दस सम्प्रदायों में बँटे हुए थे। जिन शिष्यों ने ब्रिटिश अन्याय के विरुद्ध विद्रोह किया वे ‘गिरि’ सम्प्रदाय के थे। मुगल सम्राट् अकबर के काल से ही गिरि संन्यासियों ने अपने आक्रामक दल का गठन किया था। मधुसूदन सरस्वती ने दल की शक्ति बढ़ाने के लिए इसमें राजपूतों को सम्मलित करना प्रारम्भ किया। अहमदशाह अब्दाली की ओर से गोसाईं सरस्वती मराठों के विरुद्ध पानीपत में, बक्सर की लड़ाई में गोसाईं हिम्मत गिरि के नेतृत्व में 5000 संन्यासी सैनिक मीरकासिम की ओर से युद्ध किये थे। मराठों तथा जयपुर के नरेशों की सेना में भी संन्यासी थे। अतः संन्यासी बहुत पहले से ही लड़ाकू दल के रूप में गठित हुए थे।

जब बंगाल में अंग्रेजों ने नयी सत्ता की नींव डाली और कड़े राजस्व लगाकर किसानों, कारीगरों तथा सामन्तों का विनाश करना प्रारम्भ किया तब संन्यासी सत्ता को खुलकर चुनौती देने लगे। इसी समय जब 1770 ई. में भयंकर दुर्भिक्ष के कारण बंगाल संकटग्रस्त हो गया और कम्पनी सरकार कुछ न की तब संन्यासियों का आक्रोश आसमान छूने लगा। उन्होंने शासन को परेशान एवं नग्न करने के लिये 1763 ई. में कम्पनी के कारखानों पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिया। जब-तब कम्पनी की फौज पर उन्होंने धावा बोलना प्रारम्भ किया। कई जिलों पर आक्रमण करके उन्होंने धन की लूट की और धन का प्रयोग हथियारों के निर्माण एवं खरीद में किया। इनकी कार्रवाइयों के बारे में बंगाल के फोर्ट विलियम के सपरिषद अध्यक्ष ने निदेशक मण्डल को 1773 ई. में लिखे गये एक पत्र में यह सूचना दी कि ‘‘संन्यासियों और फकीरों के झुण्ड जिनके साथ भूखे मरने वाले किसानों की भीड़ इकट्ठी हो गई थी, दक्षिणी बिहार में खड़ी फसल पर टूट पड़ते थे और 50,000 तक की संख्या में आगजनी और लूटमार करते थे।1

यद्यपि संन्यासियों को बंगाल में बड़ी सफलता नहीं मिली, फिर भी उन्होंने बिहार, राजस्थान तथा दक्षिण भारत को भी प्रभावित किया। शासन ने उनके विद्रोह का दमन कर दिया और 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संन्यासी शान्त पड़ गये। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय ने अपनी कृति आनन्द मठ’ में संन्यासियों के विद्रोह का उल्लेख किया है।

चुनार का विद्रोह:


मेदिनीपुर की आदिम जाति के चुआरों ने नरेशों के नेतृत्व में ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध विद्रोह किया। चुआर विद्रोह का नेतृत्व धलभूम, केलापल, ढोलका और बराभूम के राजाओं ने किया। अकाल तथा बढ़ते राजस्व के कारण कथित राजाओं ने चुआर आदिम जाति के अपने झण्डे के नीचे लाकर 1768 ई. में विद्रोह कर दिया। स्मरण रहे कि 1760 ई. में ही सम्पूर्ण मेदिनीपुर जिले पर कम्पनी ने अधिकार कर लिया था और 1765 ई. में आस-पास के सारे क्षेत्र और महाल पर भी उसका कब्जा हो गया था। 1768 ई. में धलभूम के शासक जगन्नाथ धल ने अपने क्षेत्र को उजाड़ कर विरान कर दिया ताकि कम्पनी को इस क्षेत्र पर अधिकार करने पर भी कुछ लाभ न हो। चुआरों को संगठित कर उसने कम्पनी के विरुद्ध बगावत कर दिया बगावत का बिगुल बजते ही ढोलका, केलापल तथा बराभूम के राजाओं ने जगन्नाथ धल का साथ दिया। नवाब गंज और झरिया के राजाओं ने कम्पनी को राजस्व न देने की घोषणा कर
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1.ताराचन्द: भाग 2, पृ. 12/ डब्ल्यू डब्ल्यू हण्टर: एनाल्स औ रुरल बंगाल, पृ. 70-71।
दी। लगभग तीन दशक तक कम्पनी चुआर विद्रोह से अशान्त रही। किन्तु धीरे-धीरे यह विद्रोह शान्त हो गया। शक्तिशाली कम्पनी के समक्ष विद्रोह अधिक दिनों तक न चल सका।

हो का विद्रोह :


आदिम जातियों का विद्रोह रुका नहीं। छोटानागपुर तथा सिंहभूम जिले के हो लोगों ने भी कम्पनी के विरुद्ध झण्डा खड़ा किया और 1820-22 ई. तक और आगे चलकर 1831 ई. में कम्पनी को खुली चुनौती देकर अन्याय का विरोध किया। 1773 ई. में पोराहद, खरसावां और  सरायकेला के राजाओं को विद्रोही शरणार्थियों के मामले में जिम्मेदारी लेनी पड़ी थी, पर 1820 में ई. में पोराहट के राजा ने खरसावां और सरायकेला को नीचा दिखाने के लिए और स्वतन्त्रता प्रेमी हो जाति के लोगों को वश में करने के लिये कम्पनी की अधीनता स्वीकार कर ली। उसने कम्पनी से सैनिक सहायता की याचना की। कम्पनी को मौका मिला। उसने एक अंग्रेजी फौज भेज दी जो कोल्हन होते हुए चाइबासा पहुँच गई। कम्पनी की फौज के आगमन ने हो लोगों को विद्रोही बना दिया और उन्होंने इसका विरोध किया। दो वर्षों (1820-22 ई.) तक उन्होंने (हो ने) कम्पनी के क्षेत्र को लूटने का काम किया। धलधूम और बामनघाटी को लगातार दो वर्ष तक लूटकर हो लोगों ने कम्पनी को अशान्त कर डाला। उनका प्रभाव छोटानागपुर तक फैल गया। कम्पनी की फौज 1827 ई. में उनके विद्रोह का दमन कर सकी, पर विद्रोहाग्नि की चिनगारी पूरी तरह बुझायी नहीं जा सकी। जब मुण्डा जाति के लोगों ने छोटानागपुर सिंहभूम और मानभूम में विद्रोह का झण्डा खड़ा करके कम्पनी का विरोध करते हुए बगावत कर दिया तब हो लोगों ने मुण्डाओं का सहयोग किया।

कोल विद्रोह :


कोल विद्रोह के सम्बन्ध में विभिन्न लेखकों ने विभिन्न बातें की हैं। ओ मेली इसे कोल विद्रोह कहता है जिसमें मुण्डा और उराँव आदिम जातियों ने झुण्ड के रूप में भाग लिया।1  इस विद्रोह में हो, चेरो और खरवार भी सम्मिलित हुए। ब्रैडली बर्ट2 इसे कोल विद्रोह (Kol Mutiny)  कहता है। कालीपद मित्रा ने 1819-1839 ई. के बीच की घटनाओं को कोल विद्रोह से जोड़ते हुए कोल विद्रोह को बलवा (Insurrection of  the Coles) कहा है। इस घटना को जे. रीड (J. Reid) ने भी यही नाम दिया है।3 इन विभिन्न नामों को ध्यान में रखते हुए यह कहा जा सकता है कि कोल विद्रोह एक उग्र विद्रोह था जिसने सरकार को लूट के जरिये अशांत कर दिया।4
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1.बंगाल डिस्ट्रिक्ट गजेटियर: सिंहभूमि, सरायकेला एण्ड खरसवान, पृ. 351 एस.एस. ओ मेली : हिस्ट्री ऑफ बंगाल, बिहार एण्ड उड़ीसा अण्डर ब्रिटिश रूल, पृ. 689।
2.एफ.बी.ब्रैडली बर्ट: छोटानागपुर, ए लिटिल नोन प्रोविन्स ऑफ द एम्पायर, पृ. 92।
3.जे. रीड: फाइनल रिपोर्ट ऑन द सर्वे एण्ड सेटलमेन्ट ऑपरेशन्स इन द डिस्ट्रिक्ट ऑफ राँची, 1902-1910 ई., पृ.22।
4.द कोल्स ऑफ छोटानागपुर, जे.ए.एस.बी. भाग V, पार्ट IInd, 865।

कोल विद्रोह का इतिहास प्रस्तुत करने से पूर्व उन आदिवासियों की प्रकृति का उल्लेख करना आवश्यक है जिन्होंने इस विद्रोह में भाग लिया और सरकार को चुनौती दी। ई. टी. डाल्टन (E.T. डाल्टन) के अनुसार छोटानागपुर के आधे से अधिक लोग कोल के नाम से जाने जाते थे जिसमें मुण्डा, उरांव, हो, भूमिज तथा अन्य शाखा की जातियाँ शामिल थीं। वे सरल थीं, किन्तु अपनी मर्दानगी के लिए प्रसिद्ध थीं। अन्याय को देखकर वे शीघ्र ही उत्तेजित हो जाती थी। वे साहसी थी और समर्पण की भावना तथा विदेशी शासन के विरुद्ध थीं। इसीलिए जब सरकार ने बंगाल कोड (Bengal Code)  बनाया और उसे उनके क्षेत्र में लागू किया तब इन आदिवासियों ने अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की। उसके अतिरिक्त जब ब्रिटिश सरकार ने पुलिस व्यवस्था का श्रीगणेश किया और दक्षिण बिहार के लिए सरकार का राजनीतिक एजेन्ट नियुक्त किया गया और 1819 ई. में छोटानागपुर को प्रान्त के साथ जोड़ दिया गया तब आदिवासियों को और भी सजग होना पड़ा। इस व्यवस्था के फलस्वरूप छोटानागपुर में बाहर के दारोगा, कोर्ट अमला और आबकारी कर्मचारी भर गये जो क्षेत्र की भाषा रीति-रिवाज और आदिवासियों की भावनाओं से पूर्णतः अनभिज्ञ थे। अतः छोटानागपुर में बाहर से आये नियुक्त पत्र प्राप्त इन लोगों ने आदिवासियों का शोषण करना प्रारम्भ किया। इनकी धूर्त्तता तथा जालसाजी को सरल तथा सीधे आदिवासी समझ नहीं सके।2 अतः शीघ्र ही आदिवासियों ने सरकार तथा उनके इन प्रतिनिधियों का विरोध करना प्रारम्भ किया और उनके विरोध के स्वर को दारोगा, आवकारी वगैरह और भी उत्तेजित कर दिये। बाहरी लोगों को छोटानागपुर में देखना तक आदिवासी बर्दाश्त नहीं किये। इस क्षेत्र का ब्रिटिश शासन ने न केवल राजनीतिक तथा सामाजिक शोषण किया, अपितु आर्थिक नुकसान भी किया।3 अतः कोल लोगों ने विदेशियों से प्रतिशोध लेने का संकल्प किया और जब विद्रोह प्रारम्भ हुआ तब उन्होंने आदिवासी गाँवों में बसे हुए हिन्दुओं, मुसलमानों और बाहर से आए अन्य लोगों के खिलाफ विद्रोह कर दिया। बाहर के लोग छोटानागपुर के वाणिज्य-व्यापार, कृषि आदि को अपने नियंत्रण और प्रभाव में रखते थे। विद्रोह के समय आदिवासियों ने उन्हें अपने गाँव से खदेड़ दिया, उनकी सम्पत्ति को लूट लिया, उनके मकानों में आग लगा दी और कई लोगों की हत्या कर दी।4 राँची से यह विद्रोह फैलता हुआ सिंहभूम, मानभूम, हजारीबाग और पलामू तक पहुँच गया।5
विद्रोह के तात्कालिक कारणों को 1832 ई. में संयुक्त कमिश्नर विलकिनसन (Wilkinson)  और कथबर्ट (Cuthbert) ने अपने उस पत्र में उल्लेख किया है जिसमें इस क्षेत्र में व्याप्त अव्यवस्था का उल्लेख किया गया।6 उनका कहना है
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1.वही।
2.जे.सी.झा का द कोल राइजिंग ऑफ छोटानागपुर 1831-33 ई. इट्स  काउजेज, इण्डियन हिस्ट्री कांग्रेस, 21 अधिवेशन,  पृष्ठ 44।
3.के.के. दत्त : अनरेस्ट एगेन्स्ट् ब्रिटिश रूल इन बिहार, 1831-59, पृ. 12।
4.स्केच ऑफ द राइज एण्ड प्रोग्रेस ऑफ द ऐंग्लो-इण्डियन एम्पायर इन बंगाल एण्ड आगरा, एनुअल गाइड एण्ड गजेटियर ऑफ 1841, भाग, II, पृ.35।
5.जे.सी. भाग पृष्ठ, 44
6.द लेटर ऑफ विलकिनसन एण्ड कथबर्ट ऑफ 12 फरवरी, 1832।
कि प्रारम्भ में प्रस्तुत की गई अर्जी (Petitions) और रिपोर्ट में कारणों की सही स्थिति का उल्लेख नहीं मिलता है। किन्तु नीचे लिखी दो घटनाएँ कारणों की, खासकर तात्कालिक कारणों को स्पष्ट करती हैं। पहली घटना सुई मुण्डा की है जिसका उल्लेख बहादुर दुभाषिया ने इन शब्दों में किया है : मैंने सोनपुर के रूमंग (Roomang)  के लूट्टी (Luttie)  कोल को एक तोला सोना दिया जिसके बदले में उसने तीन वर्षों के अन्दर एक जोड़ी भैंस देने को सहमति प्रकट की। मैंने कई बार उसे भैंस देने को कहा, पर उसके कानों पर जूँ न रेंगी। अतः मैं उसकी एक जोड़ी भैंस बलात खींच लाया। इस कारण रूमंग के नायक मोहम्मद अली ने मुझे चोर कहा और मुझसे भैंस ले लिया तथा मुझे अपने घर में रस्सी से बाँध दिया। दूसरे दिन उसने मुझे एक रस्सी से एक वृक्ष से बाँध दिया। उसने मेरे केश बाँध दिये थे। तत्पश्चात् उसने रस्सी काट दी और मैं नीचे गिर गया। नीचे गिरने से मेरे दाँये पैर का एक अगूँठा टूट गया। पाँच दिनों तक मुझे बुरी तरह सताया गया। जब मैंने एक बैल तथा एक भैंस दी तब मुझे छोड़ा गया। पोरहट राजा को जब सूचना दी गई तब मेरी अर्जी पर विचार न करके मुझे पाँच रु. जुर्माना भरने की सजा दी गई।1

दूसरी घटना बिन्द्रा मंकी से सम्बन्धित है जिसका उल्लेख उसी दुभाषिये ने इन शब्दों में किया है : सोनपुर परगने के विरज बनिये से मैंने एक जोड़ी बूढ़ी भैंस उधार ली। एक दिन वह बनिया अपने साठ लठैतों के साथ मेरे यहाँ आया और मुझसे 6 गायें और बछड़े तथा चार भैसें ले लिया। इतनी ही नहीं, उसने मुझे और मेरे भाई सिंग्राई (Singrae) को घोड़े पर चढ़ा कर अपने घर ले गया। हम दोनों भाई तो छोड़ दिये गये लेकिन हमारे मवेशी नहीं लौटाये गये। मैंने बनिये के दुर्व्यवहार की शिकायत बन्दगाँव के राजा कुमकेरा सिंह के यहाँ की। उन्होंने मेरी सारी बातें सुनकर मेरी सुरक्षा के लिए 35 आदमी दिये और मैं इन आदमियों की सुरक्षा में सुरगाँव आ गया। बनिया लापता हो गया था। मैंने दो आदमियों और एक जोड़े बैल को पकड़ा और उन्हें लेकर राजा (कुमकेरा) के पास आया। इस घटना को लेकर सुरगाँव के एक ग्रामीण, जिसका नाम सिंह था, ने शेरघाटी में मेरे खिलाफ शिकायत किया। शेर घाटी के मुंशी और जमादार ने मुझे, मेरे भाई सिंग्राई और बहादुर कोल को पकड़ लिया। पन्द्रह दिनों तक हमें सताया और बुरी तरह उत्पीड़ित किया गया। हम किसी तरह निकल भागे। जब हमारे भगने की खबर मुंशी और जमादार को मिली तब वे मेरी दो पत्नियों को मेरे घर से छीन ले गये। उन्होंने बड़ी पत्नी को, जो गर्भवती थी छोड़ दिया, लेकिन दूसरी को जो जवान थी, मुन्शी तथा उसके दो मुसलमान पिउन ने सतीत्व (ravish) भंग किया; उन्होंने उसके गुप्तांग में एक छड़ी भी घुसेड़ दी। सुरगाँव के सिंह ने मेरी दो बहनों को भी बलपूर्वक घसीटकर ले गया जो अभी तक उसके घर में नजरबन्द हैं....राजा को अपनी तकलीफें सुनाकर हम घर लौट आये।...घर वापस आकर हमने सारे कोल लोगों, अपने बिरादरी के लोगों और जातिवालों को तमार में (Lunkah) नामक गाँव में एकत्र किया और वहाँ विचार-विमर्श किया। पठान हमारी प्रतिष्ठा से खिलवाड़ किये थे। सिंह ने हमारी बहनों की बेइज्जती की थी और हरनाथ साही ने हमारे बारह गाँवों को लेकर सिंह को दे दिया था।1 ये सारे कथन इस बात की पुष्टि करते हैं कि छोटानागपुर की सरकार आदिवासियों के लिए लाभदायक नहीं थी। कोलों की सरकार के अधिकारियों ने उपेक्षा की, बाहरी लोगों ने सताया, मुखिया से जो लाभ कोल पाते थे। उस लाभ से उन्हें वंचित किया गया।2 कोल अगर छत्र तथा शेरघाटी जैसे जगहों पर शान्ति प्राप्त करने और जीविकोपार्जन के लिए जाते थे तो वहाँ से भी उन्हें खदेड़ दिया जाता था। इस प्रकार कोल हतोत्साहित हो गये और विद्रोह के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं रहा। विन्द्रा का अधोलिखित कथन इस बात को स्पष्ट करता है : यह निर्णय लिया गया कि हमलोगों को अब काटने, लूटने हत्या करने और तब खाने का काम करना चाहिए।...हम चार हर बात के लिए उत्तरदादायी रहेंगे...इस निर्णय के साथ ही हम उनके वध एवं लूट का काम कर रहे हैं जिन्होंने हमारी प्रतिष्ठा और घर को लूटा है। इन कार्यों के करने से हो सकता है हमारे लिए उचित न्याय किया जा सके।3

कोल विद्रोह के ये तात्कालिक कारण हैं किन्तु कुछ मूलभूत कारण भी हैं। डेन्ट (Dent) के अनुसार धलभूम तथा बुरभूम के जमीन्दारों के बीच उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर होने वाले झगड़े तथा जमींदारों और परजीवी ताल्लुकेदारों के बीच लगान को लेकर होने वाले झगड़ों को कोल विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार की। जैसा कि उसने लिखा है राजा के परिवार में मतभेद, राजस्व में वृद्ध और घरवालों से बलात भेंट ने मधुवसिंह को उत्तेजित कर दिया। इसके अतिरिक्त दीवान और अन्य सरकारी अधिकारियों ने लोगों का शोषण किया। डेन्ट की रिपोर्ट इस शोषण के बारे में सूचना देती है।4
दलभूम के पिछले लोगों के शोषण के लिए जो तरीके अपनाये गये और उनके साथ जो दुर्व्यवहार किये गये, डेन्ट ने इस सम्बन्ध में भी लिखा है अधिकारियों ने न केवल नमक की कीमत बढ़ा दी थी बल्कि इसकी बिक्री पर एकाधिपत्य भी कायम कर लिया था। इससे कोल कष्ट का सामना कर रहे थे। अबकारी विभाग घूसखोर हो गया था और भ्रष्टाचार का शिकार हो गया था। विभाग का कर्मचारी सलामी तथा दस्तूर लिया करते थे जो घूस का प्रच्छन्य रूप था। स्वाभाविक रूप से रैयत क्रुद्ध थी और इसलिए उसने विद्रोह में भाग लिया। इसके अतिरिक्त राजस्व की अदायगी के लिए रैयतों को जमीन बेच देने के लिए बाध्य करना और कर्ज में उनका डूबे रहना। बगावत का एक प्रमुख कारण था।5कर्ज अदा करने के लिए जब लोगों को मौरुसी जमीन बेचनी पड़ी तब क्रोधाग्नि और भी भड़क गई। कुछ जमींदार भी अंग्रेजी के व्यवहार से असन्तुष्ट थे। इस प्रकार जो लोग सरकार तथा उसके प्रतिनिधियों से असन्तुष्ट तथा अप्रसन्न थे वे सभी गंगा नारायण सिंह का सहयोग किये जिसने बड़ाभूम पर अपना दावा ठोक कर विद्रोह कर दिया था। गंगा नारायण के पारिवारिक झगड़े से उन्हें कुछ लेना-देना नहीं था किन्तु उन्हें कुछ आशा थी कि

1.द लेटर ऑफ विलकिनसन, पृ.103-105।
2.हण्टर स्टेटिसटिकल एकाउन्ट्स ऑफ बंगाल, लोहरदग्गा, पृ. 350।
3.द लेटर ऑफ विलकिनसन..., 12 फरवरी 1833, उद्धृत।
4.रिपोर्ट ऑन द डिस्टरवेंस ऑफ 1832-33, 4 सितम्बर, पृ. 182-183 पारा 56।
5.वही : पृ. 185, पारा 62।

अगर गंगा नारायण का विद्रोह सफल हो गया तो वे कर्ज के भार से मुक्त हो जायेंगे।
मानभूम के बड़भूम में ही शोषण एवं अव्यवस्था का वातावरण नहीं था। गोविन्दपुर के कुँवर हरनाथ साही भी सोनपुर स्टेट से वंचित कर दिया गया था।

डेन्ट और विलकिनसन की रिपोर्ट ने ठीकेदारों को विद्रोह के लिए उत्तरदायी ठहराया है। मंकी को ठीकेदार उनके बगीचे के फल भी नहीं खाने देते थे। जिनको उनके पूर्वजों ने लगाये थे। ठीकेदार किसानों से अधिक टैक्स वसूल करते थे। ऐसे ठीकेदारों के पंजों से मुक्त होने के लिए कोल लोगों के समक्ष विद्रोह के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था।
छोटानागपुर के क्षेत्र के कोल लोगों को 35 टैक्स देना पड़ता था। महाजन उनके उपज का 70 भाग ले लेते थे क्योंकि वे कोल को खेती करने के लिए अग्रिम धन और अनाज देते थे। प्रत्येक गाँव के प्रति व्यक्ति को वाध्य होकर एक रुपया या एक बकरी सलामी के रूप में ठीकेदार, जमींदार या सरकार के कर्मचारी को देनी पड़ती थी।1 पोस्ता की खेती, थाना की स्थापना और डाक व्यवस्था के लिए लोगों से बलात् पैसे लिए जाना विद्रोह के अन्य कारण थे। कोल लोगों को स्वामी के यहाँ तब तक काम करना पड़ता था जब तक उनके कर्ज की वसूली नहीं हो जाती थी। उन्हें उनसे केवल खाने को अनाज और पहनने को कपड़े मिलते थे। इन बंधुआ कोलों को अपने परिश्रम से पैदा की गई लगभग सारी फसल स्वामी को दे देनी पड़ती थी।2 थाना के दरोगा की अनुचित माँग और दूसरे अमलों के द्वारा उनपर किये गये अत्याचार भी असन्तोष के कारण थे।

इस प्रकार 1831-33 का कोल विद्रोह कई कारणों का फल था। यह सही है कि इस विद्रोह में कुछ राजा, गाँव के मुखिया (राजा अचेत सिंह और उनके दीवान) तथा पलामू के कुछ प्रमुख सम्मिलित थे, किन्तु वास्तव में यह जन-विद्रोह था। नई कृषि नीति, कर्ज के नये कानून, नई न्यायिक और राजस्व व्यवस्था ने जमींदारों, राजाओं ओर आम लोगों असन्तुष्ट कर दिया था। मध्यमवर्गीय लोगों ने ही पहले-पहल पहल की।3 केवल नई सभ्यता से उदासीन थे और अपनी प्राकृतिक अवस्था में लौट जाना चाहते थे। थॉर्नटन (Thornton) ने लिखा है कि कोल नये कानून एवं नई व्यवस्था को पसन्द नहीं करते थे और उस प्राकृतिक अवस्था में लौट जाना चाहते थे जिसमें प्रत्येक पड़ोसी का हाथ एक-दूसरे की मदद के लिए तैयार रहता था।4

चाहे जो हो, हम रीड के इस कथन से सहमत हैं कि कोल विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार को नये रेग्यूलेशन बना कर कोल लोगों के लिए न्यास, राजस्व, पुलिस आदि में सुधार लाने को वाध्य किया।

सन्थाल विद्रोह :


राजमहल के सन्थालों ने भी कम्पनी, साहूकार तथा रेल अधिकारियों के अत्याचार के विरुद्ध 1856 ई. में विद्रोह किया। वे राजमहल के
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1.जे.रीड: उद्धृत, पृ. 23।
2.वही।
3.वही, पृ. 34।
4.एडवर्ड थॉ़र्नटन: द ब्रिटिश एम्पायर इन इण्डिया, भाग, V, पृ. 202।
मूल निवासी नहीं थे। हजारीबाग और मानसून के क्षेत्रों से आकर वे राजमहल के इलाके में बस गये थे। उनकी अच्छी संख्या में राजमहल आना हुआ था। 1836 ई. में दमनीकोह में सन्थालों के लगभग 420 गाँव बस गये थे।

सन्थालों के विद्रोह के मुख्यतः चार कारण थे। प्रथम, सरकार ने उनपर कड़े लगान बाँध दिये थे। गरीब और सीधे-सीधे सन्थाल लगान देने में असमर्थ थे। सरकार के कर्मचारी पुलिस आदि राजस्व वसूल में इनके साथ दुर्व्यवहार करती थी। द्वितीय, लगान की रकम संथाल रुपये के रूप में साहूकार ले लेते थे। साहूकार अपने कर्ज की अदायगी के लिये सन्थालों का शोषण करते थे। संथाल इस शोषण में सरकार को भी उत्तरदायी मानते थे। तृतीय, रेल के कर्मचारी भी संथालों का शोषण करने में पीछे नहीं थे। वे संथालों से बेगार लेकर उनका शोषण करते थे। सरल प्रकृति के संथाल सबकुछ बर्दाश्त करते आ रहे थे चतुर्थ, संथालों बहनों, बेटियों एवं पत्नियों की मर्यादा सदैव खतरे में रहती थी। साहूकार, जमीन्दार, रेल कर्मचारी और कम्पनी के सेवक उनकी मर्यादा भंग करने की हमेशा चेष्टा करते रहते थे।

इन कतिपय कराणों के चलते संथालों के बीच आक्रोश व्याप्त था। किन्तु नेता के अभाव में वे चुपचाप बैठे थे। जैसे ही सिधू और कान्हू के रूप में उन्हें दो नेता मिले, संथालों ने 1856 ई. में कम्पनी के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और अपनी स्वतन्त्रत सत्ता की घोषणा कर दी। सिधू स्वयं को अवतारी बतलाता था और कहता था कि साहब लोगों से राज छीन जायेगा क्योंकि हाकिम झूठे और भ्रष्टाचारी हो गये हैं, महाजन लोग मनमाना सूद लेते हैं और पुलिस अत्याचार करती है। किन्तु संथालों का विद्रोह एक वर्ष के अन्दर दबा दिया गया। कम्पनी की फौज के समक्ष मुट्ठी भर तीर-धनुष वाले सन्थाल ठहर नहीं सके। किन्तु सरकार ने दमन के बाद यह अनुभव किया कि सन्थालों को प्रसन्न रखने के लिए खास ढंग से प्रशासन की व्यावस्था जरुरी है। फलतः उनके लिए एक अलग जिला बना दिया गया जिसे संथाल परगना कहा गया।

आसाम का अहोम-विद्रोह:


बंगाल के अतिरिक्त पूर्वी भारत के आसाम में कम्पनी के विरुद्ध उथल-पुथल मची थी। बंगाल के उत्तर-पूर्व आसाम में अहोम लोगों का प्राचीन राज्य था। इनके राज्य से होकर कम्पनी की एक फौज प्रथम बर्मा युद्ध के समय गई। अहोम शासक तथा सरदारों से यह कहा गया था कि आंग्ल-बर्मा युद्ध का परिसमापन होने पर अंग्रेजी सेना वापस हो जाएगी और अहोम राज्य-सरकार के संरक्षण में पुनः ले लिया जायेगा जिसके एवज में सरकार कर लेगी। सरकार ने अपने वचन का पालन नहीं किया बल्कि इसके विपरीत अहोम राज्य से राजस्व वसूल करना प्रारम्भ कर दिया गया और उसपर अंग्रेजों का शासन लादने का प्रयास किया गया। एक कदम और आगे बढ़कर सरकार ने असम के न्यायालयों के न्यायिक अधिकारों का अपहरण कर लिया। सरकार की धोखेबाजी से अहम राजा तथा अन्य सरदार अत्यन्त असन्तुष्ट हुए और उन्होंने उससे युद्ध करने की ठान ली।

1828 ई. में अहोम घराने के गोमधर कँवर को स्वतन्त्र शासक के रूप में घोषणा कर दी गई और रंगपुर पर आक्रमण करने की योजना बना डाली गई। आक्रमण की योजना धनंजय बड़गोहाई (भूतपूर्व मंत्री) तथा अन्य सरदारों के नेतृत्व में बनी थी। किन्तु अहोमों के आक्रमण को विफलता मिली। अक्टूबर तक उन्हें दबा दिया गया। गोमधर कँवर को सात वर्ष की सजा देकर जेल में डाल दिया गया।

किन्तु अहम का यह विद्रोह स्थायी रूप से दबाया नहीं जा सका। 1830 ई. में विद्रोह की एक नयी योजना बना डाली गई। सरकार के विरुद्ध लोहा लेने के लिए सीमान्त के रूमटी, सिंहफो, मोआमारिया, खासी, गारो, नागा और मणीपुरी सरदारों को पत्र लिखा गया। सरदारों तथा लोगों ने मिलकर राजा के पद पर रूपचन्द्र कोनार को नियुक्त कर दिया। रंगपुर पर आक्रमण करने के लिए फौज लेकर पियाली बरफूकन, जिवराम, धूलिया, बरुआ आदि प्रस्थान कर दिये। इस योजना की खबर अंग्रेज सरकार को पहले ही मिल चुकी थी। अतः जैसे ही कथित सरदारों के नेतृत्व में फौज रंगपुर पहुँची वैसे ही सरकार के सैनिकों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और उनपर राजद्रोह का मुकदमा चला। दो सरदारों पियाली बरफूकन और जिवराम को मृत्युदण्ड दिया गया तथा उनके अन्य समर्थकों को 14 वर्ष के लिए निर्वासित कर दिया गया। उनकी सारी सम्पत्ति पर भी सरकार ने कब्जा जमा लिया। शान्ति कायम करने के उपरान्त सरकार ने असम राज्य की व्यवस्था कर डाली। महाराजा पुरन्दर सिंह नरेन्द्र को उत्तरी असम का भाग दे दिया गया और राज्य का एक भाग असमी राजा को सुपुर्द किया गया।


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