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योगासन और स्वास्थ्य

आचार्य भगवान देव

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3608
आईएसबीएन :81-7182-239-8

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योग और स्वास्थ्य पर आधारित पुस्तक...

Yogasan Aur Swasthya-

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मनुष्य के शरीर की तुलना एक बड़ी पेचीदा मशीन से की जा सकती है। जिस प्रकार मशीन बहुत से कल-पुर्जों से मिलकर बनती है, उन्हीं के एकत्र करने से पूरी मशीन काम करती है, उसी प्रकार हमारा शरीर भिन्न-भिन्न अंगों के समूह से बना है। यदि कोई अंग किसी प्रकार खराब हो जाए, अथवा अपना काम करना छोड़ दे तो हमारे शरीर की सारी मशीन बिगड़ जाती है। जिस प्रकार मशीन को सुगमता से चलाने के लिए उसे बहुत दिनों तक काम करने योग्य रखने के लिए उसके हर कल-पुर्जे को साफ करना आवश्यक है, उसी तरह यदि हम अपने शरीर रूपी मशीन को ठीक रखना चाहें, उसे सौ वर्ष तक काम में लाना चाहें, तो हमें उसके अंग प्रत्यंग को साफ और ठीक रखना चाहिए।

इस उपयोगी पुस्तक में मानव शरीर की रचना के बारे में विस्तार से बताया गया है तथा योगासनों द्वारा उसे स्वस्थ रखने के उपाय भी बताये गये हैं।
योगाचार्य भगवान देव ने योग विषय पर गहन अध्ययन किया है। अपने योगाभ्यास ये योगविद्या में निपुणता प्राप्त की है। देश-विदेश में योग-साधना के शिविर लगाये हैं। लाखों व्यक्तियों को प्रत्यक्ष योगाभ्यास करवा कर योगविद्या से उन्हें लाभ पहुँचाया है।

योग और स्वास्थ्य विषय पर आचार्य भगवान देव ने अनेक बहुमूल्य एवं उपयोगी पुस्तकें लिखी हैं जिनमें से एक यह आपके हाथों में है।

इस पुस्तक को आप इस विषय की अब तक प्रकाशित पुस्तकों से सर्वथा भिन्न पायेंगे। पुस्तक की भाषा सरल और व्याख्या विस्तृत है, इसे हर व्यक्ति आसानी से समझ सकता है।

भूमिका

शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्

मनुष्य-देह बड़ी दुर्लभ है। बड़े पुण्यों से मनुष्य योनि मिलती है। इस दुर्लभ देह को प्राप्त कर प्रत्येक मनुष्य को चार पुरुषार्थों–जीवन का ध्येय-
(1)    धर्म
(2)    अर्थ (धर्म पूर्वक) कमाया ऐश्वर्य, धनादि
(3)    काम-इस ऐश्वर्य से अपनी धार्मिक तथा शारीरिक इच्छाओं को पूरा करना आदि।
(4)    मोक्ष (अन्त में परमपिता परमात्मा के पास पहुंचना) के योग्य बनने की तैयारी करनी चाहिये।

यह चतुर्वर्ग पुरुषार्थ फल प्राप्ति इस शरीर द्वारा ही संभव है। क्योंकि यह मनुष्य योनि की कर्मयोनि है। इस जन्म में जितना ही अच्छा कर्म करेगा, उतना ही उसका फल उत्तम होगा और अगले जन्म में मोक्ष के और भी अधिक समीप होता जायेगा। इसलिये इस शरीर को वेद में ‘‘दैवी नाव’’ कहा गया है। इस दिव्य नाव पर चढ़कर मनुष्य भवसागर से पार उतर सकता है, इसलिये इस शरीर को मलमूत्र का घर या तुच्छ समझना शास्त्र-शिक्षा के विरुद्ध है। इसे अपने शुभ कर्मों का फल तथा परमात्मा की देन समझ कर परमप्रयत्ने सुरक्षित, स्वस्थ तथा दीर्घकाल तक चलने योग्य रखना चाहिये तभी अधिकाधिक धर्मादि सत्कार्य इसके द्वारा सम्पन्न हो सकते हैं।

आयुर्वेद में ऋषि ने भी कहा है:-
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सबसे प्रधान और महत्वपूर्ण मूल उत्तम स्वास्थ्य है। रोग इस स्वास्थ्य, तथा जीवन और कल्याण के भी नाशक हैं। अत: सदा शरीर को स्वस्थ रखना हमारा प्रमुख उद्देश्य होना चाहिये।

आर्यसमाज के नियमों में भी शारीरिक उन्नति को प्रथम स्थान दिया गया है- ‘‘संसार का उपकार करना इस शरीर का प्रमुख कर्तव्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना ।’’ निर्बल, रोगी शरीर भला आत्मा और समाज की क्या उन्नति करेगा ? उपनिषद् में भी कहा गया है- ‘‘नायमात्मा बलहीनेन लभय’’ अत: शरीरोन्नति में सदा सजग रहना चाहिये।

प्राय: सब मनुष्यों के शरीर समान दीखते हुए भी कुछ अपनी विशेषताएं तथा विचित्रताएं लिये हुए होते हैं। सबकी प्रकृति, स्वभाव और आवश्यकताएं भी भिन्न-भिन्न होती हैं। अत: सबके लिए कोई एक स्थिर नियम या लक्षण नहीं बनाया जा सकता। परन्तु साधारणतया नीचे लिखे लक्षणों से सभी अपने स्वास्थ्य की परीक्षा आप ही कर सकते हैं-  

(1)    सब दोष-वातपत्ति कफादि सम अवस्था-स्वाभाविक या प्राकृतिक अवस्था में हों।
(2)    पाचन शक्ति भी स्वाभाविक और समान रहे अर्थात् यथा समय भूख लगे। ऐसा न हो कि एक दिन तो इतनी भूख लगे कि कितना भी भोजन करे, भूख शान्त न हो, फिर कई दिनों तक भूख गायब हो जाये।
(3)    शरीर में सब धातुएं-रक्त, मांस मेद, वीर्य आदि समवस्था में हों व उचित अनुपात में रहें। कोई अधिक या न्यून न हो।
(4)    मलमूत्र सरलता से बिना किसी कष्ट के आते रहें। इनके निकालने के लिये विशेष प्रयत्न या औषधि आदि सेवन न करनी पड़े। नियत समय पर अर्थात् शौच प्रात:काल आदि आते रहें।
(5)    शरीर की सभी क्रियाएं, चेष्टाएं भी स्वयमेव होती रहें। काम करने में थकावट आदि नहीं होनी चाहिये।
(6)    अब सबसे प्रधान लक्षण आता है। मन और आत्मा तथा इन्द्रियां प्रसन्न रहें, उदासी इत्यादि न हो। व्यक्ति अनुभव करे कि मैं स्वस्थ और अच्छा हूं। अंग्रेजी में इसे ‘‘फीलिंग आफ वेलबींग’’ (अच्छा होने का अनुभव) कह सकते हैं। चित्त में उत्साह हो, देह में फुर्ती हो, इत्यादि लक्षणों से अपने को स्वस्थ समझना चाहिये।

स्वस्थ कैसे रहें


1.हितकारक भोजन करना, सात्विक गुणयुक्त पदार्थों का सेवन। भोजन सदा सुपच, स्निगध और सादा (अधिक मिर्च मसाले बिना) होना चाहिये।
2.विचार, आचरण या दैनिक जीवनचर्या भी हितकारक हो। प्रात:काल शीघ्र उठना, शौच, भ्रमण, व्यायाम, तेल मालिश, स्नान आदि यथा समय ऋतुओं के अनुसार तथा नियत समय पर होना चाहिये। यह नहीं कि एक दिन तो रात को नौ बजे तक सो रहे हैं और दूसरे दिन बाहर बजे तक जाग रहे हैं। दिनचर्या ठीक बना कर उसी के अनुसार चलना चाहिये। इस मनुष्य रूपी मशीन को जिस रूप में चाहो, वैसे नियम या नियंत्रण में ढाला जा सकता है।
3. सोच विचार पर कार्य करना, उतावली में कोई कार्य न करना।
4. विषयों से दूर रहना, विषयों में अधिक लिप्त रहने वाले को अनेक रोग लग जाते हैं और उसका शरीर निकम्मा हो जाता है।
ये तो शरीर के स्वास्थ्य के लिये साधारण नियम हैं। आत्मा और मन को स्वस्थ रखने के लिये निम्न आचरण आवश्यक है-

1.    दान :

मनुष्य दानशील रहे, दान देने से मन और आत्मा प्रसन्न होती है तथा दृष्टिकोण अधिक विस्तृत होता है।

2.    सत्य भाषण :

सदा सत्य भाषण करें। इससे मानसिक संताप या मन पर भार पड़ने से जिसे अंग्रेजी में स्ट्रेन कहते हैं, अनेक मनुष्य हृदय रोग तथा रक्तचाप या पक्षाघातादि का शिकार हो जाते हैं।

3.    क्षमाशील :

क्षमाशील हों। यदि किसी ने कुछ बुराई भी कर दी हो तो जहां तक हो सके, उसे क्षमा कर दें। इस से भी आत्मा को बड़ी शान्ति मिलती है।

4.    आप्त पुरुषों की संगति :

आप्त पुरुषों की संगति करनी चाहिये। सज्जन, धर्मात्मा और ज्ञानी पुरुषों की संगति करने से जीवन ऊंचा ही उठता है और मनुष्य अनेक बुरे कार्यों से बचा रहता है। इसीलिये कहा गया है कि सत्संगति कथय, किन्न करोति पुसानं ....!

ऊपर लिखे नियमों का यदि पालन किया जाये तो मनुष्य सदा स्वस्थ, प्रसन्न और रोग रहित रह कर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की ओर बढ़ सकता है। स्वस्थ शरीर की यही महत्ता है। स्वस्थ शरीर में स्वस्थ आत्मा का निवास होता है।


जीवेम शरद: शतम्।



वेद की इस पर अमर प्रार्थना-हे प्रभु ! मैं वर्षों तक निरोगी रह कर जीवन जी सकूं-इस प्रार्थना को हम कैसे साकार रूप दे सकते हैं, उसका मार्ग इस पुस्तक में दिखाने का प्रयत्न किया गया है। हमें पूर्ण विश्वास है कि इस पुस्तक में दिखाये मार्ग पर आप मन, वचन, कर्म से चलने लगेंगे तो निश्चित ही ‘‘सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्’’ की साकार मूर्ति बन जायेंगे।

आचार्य भगवान देव
2, पार्क एवेन्यू
महारानी बाग
  नई दिल्ली-110 065    

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