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धार्मिक कथाएं

जगतराम आर्य

प्रकाशक : आर्य प्रकाशन मंडल प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3515
आईएसबीएन :81-88118-58-3

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प्रस्तुत है धार्मिक कथाएँ....

Dharmik Kathayain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सत्यमेव जयते

एक दिन ब्राह्मण ने मार्ग पर चलते हुए एक हीरा पड़ा पाया, जिसकी कीमत एक लाख रुपए थी। वह साधारण रूप से ही हीरे को लिए हुए जा रहा था। कि आगे की ओर से एक जौहरी जगह-जगह भूमि को देखता हुआ आ रहा था। वह विशेष व्याकुल था। ब्राह्मण ने उसे देखकर पूछा, ‘‘जौहरी भाई, तू व्याकुल क्यों है ? देख, एक हीरा हमने पाया है। तेरा हो तो तू ले ले।’’ यह कहकर उसने हीरा जौहरी को दे दिया। अब जौहरी कहने लगा, ‘‘मेरे तो दो हीरे थे। एक तो तूने दे दिया। अब दूसरा भी दे दे, तब मैं तुझे छोड़ूँगा।’’ दोनों में काफी देर तक कहा सुनी हुई। आखिर जौहरी ने ब्राह्मण को पुलिस के हवाले कर अपना मुकदमा अदालत में दे दिया।

वहाँ हाकिम ने उस ब्राह्मण से पूछा, ‘‘कहो भाई, क्या मामला है ?’’ ब्राह्मण ने कहा, ‘‘मैं मार्ग में साधारण रूप से जा रहा था कि मुझे एक हीरा पड़ा, मिला। तभी सामने से यह जौहरी कुछ ढूँढ़ता हुआ व्याकुल सा चला आ रहा था। मैंने इससे पूछा, क्या है ? तब इसने कहा कि मेरा एक हीरा खो गया है। मैंने वह हीरा इसे देकर कहा कि देखो, यह एक हीरा मैंने पाया है। यदि तुम्हारा हो तो ले लो। तब इसने हीरा ले लिया।

और अब यह कहता है कि मेरे तो दो हीरे थे।’’ अब हाकिम ने जौहरी से पूछा। तब जौहरी बोला, ‘‘मेरे तो दो हीरे थे, जो मार्ग में गिर पड़े थे। उनमें से एक तो इसने दे दिया, पर एक नहीं देता है।’’ हाकिम ने समझाया, ‘‘यह ब्राह्मण यदि अपने ईमान का पक्का न होता, तो इतना दीन होते हुए एक भी क्यों देता ?’’ किंतु जौहरी संतुष्ट नहीं हुआ, अतः हाकिम ने यह फैसला किया, ‘यह हीरा ब्राह्मण को दे दिया जाए। यह जौहरी का नहीं, क्यों इसके दो हीरे एक साथ गिरे थे, सो इसके हीरे कहीं और होंगे-’’ अब तो जौहरी घबरा उठा। वह घिघियाकर बोला, ‘‘सरकार तो मुझे एक ही हीरा दिला दिया जाए।’’ तब हाकिम ने कहा, ‘‘अब वह तुमको नहीं मिल सकता, क्योंकि मेरा फैसला तो हो चुका।’’

बुद्धि और भाग्य


एक बार बुद्धि और भाग्य में झगड़ा हुआ। बुद्धि ने कहा, मेरी शक्ति अधिक है। मैं जिसे चाहूँ सुखी कर दूँ। मेरे बिना कोई बड़ा नहीं हो सकता।’’ भाग्य ने कहा, मेरी शक्ति अधिक है। मैं तेरे बिना काम कर सकता हूँ। तू मेरे बिना काम नहीं कर सकती।’’ इस तरह दोनों ने अपनी-अपनी तरफ की दलीलें जोर-शोर से दीं। जब झगड़ा दलीलों से समाप्त न हुआ तो बुद्धि ने भाग्य से कहा कि यदि तुम उस गड़रिए को जो जंगल में भेड़ें चरा रहा है, मेरी सहायता के बिना राजा बना दो तो समझूँ कि तुम बड़े हो। यह सुनकर भाग्य ने उसके राजा बनाने का यत्न करना आरंभ कर दिया। उसने एक बहुत कीमती खड़ाऊँ की जोड़ी, जिसमें लाखों रुपए के नग लगे थे, लाकर गड़रिए के सामने रख दी। गड़रिया उनको पहनकर चलने फिरने लगा। फिर भाग्य ने एक व्यापारी को वहाँ पहुँचा दिया।

व्यापारी उन खड़ाउँओं को देखकर विस्मित हो गया। उसने गड़रिए से कहा। तुम ये खड़ाऊँ बेच दो।’’ गड़रिए ने कहा, ‘ले लीजिए।’’ व्यापारी ने उनका मूल्य पूछा। गड़रिए ने कहा, ‘‘क्या बतलाऊँ मुझे रोटी खाने रोज गाँव जाना पड़ता है। यदि तुम मुझे दो मन भुने चने दे दो तो मैं यहाँ बैठे-बैठे चने चबाकर भेड़ों का दूध पी लिया करूँगा। इस भाँति मैं गाँव जाने के कष्ट से बच जाऊँगा और आपको भी खड़ाऊँ मिल जाएँगी। सारांश यह कि उस बुद्धिमान गड़रिए ने वो अनमोल खड़ाऊँ, जिनमें एक-एक हीरा करोड़ों रुपए का था, दो मन चनों के बदले में बेच डालीं। यह देखकर भाग्य ने और प्रयत्न किया। अब उस व्यापारी ने वे खड़ाऊँ राजा को भेंट की तो राजा देखकर हैरान हो गया। उसने व्यापारी से पूछा, ‘‘तुमने ये खड़ाऊँ कहाँ से पाईं ? व्यापारी ने कहा ‘‘महाराज एक राजा मेरा मित्र है उसने ये मुझे दीं।’’

तब राजा ने पूछा, ‘‘क्या उस राजा के पास ऐसी और भी खड़ाऊँ हैं ?’’ व्यापारी ने कहा हाँ, है।’’ यह सुनकर राजा ने कहा, ‘‘अच्छा जाओ, मेरी लड़की की सगाई उसके लड़के से करा दो।’’ व्यापारी जब भाग्यदेव की प्रेरणा से सब बातें कह चुका, तब राजा की अंतिम बात सुनकर बहुत घबराया और सोचने लगा कि खड़ाऊँ तो उसने गड़रिए से ली हैं; न कोई राजा है, न कोई राजा का लड़का। किंतु इन झूठी बातों को कह चुकने के कारण व्यापारी ने सोचा कि यदि मैं इस कथन को अस्वीकार करता हूँ तो न मालूम राजा साहब मुझे क्या दंडे दें। यह सोचकर उसने तय कर लिया कि जैसे भी हो, इस राजा के नगर से निकल जाना चाहिए। अत उसने राजा से कहा, ‘‘ठीक है, तो अब मैं आपकी लड़की की सगाई पक्की करने जाता हूँ।’’ यह कहकर वह जिस ओर से आया था उसी ओर को चल दिया और जब उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ वह गड़रिए से मिला था, तो क्या देखता है कि गड़रिया उससे भी मूल्यवान खड़ाऊँ पहने है।

व्यापारी यह देखकर हैरान हो गया और उसने सोचा कि हो न हो, यह कोई सिद्ध महात्मा है। तभी तो ऐसी वस्तुएँ उसे स्वयं मिल जाती हैं। उसने निश्चय किया कि यहाँ रहकर इसका पता लगाना चाहिए। सोचकर उसने वही डेरा लगा दिया और अपना बहुत सा ताँबा लदा हुआ सब सामान एक ओर पेड़ के नीचे रख दिया। जब दोपहर हुई तो गड़रिया धूप से व्याकुल हो उस पेड़ के नीचे आया, जहाँ ताँबे के ढेर पड़े हुए थे। वह ढेर के सहारे सिर रखकर सो गया। भाग्य ने उस ताँबें के ढेर को सोना कर दिया। जब व्यापारी ने यह देखा तो सोचा कि जिस व्यक्ति के छू जाने से ताँबा सोना हो जाता है, उसको राजा बनाना कोई बड़ी बात नहीं। यह सोचकर उस व्यापारी ने वहीं जमीन खरीदी और किला बनवाना आरंभ कर दिया। सेना भर्ती की जाने लगी और जब सब सामान तैयार हो गया तो व्यापारी गड़रिए को पकड़कर किले में ले गया। उसको अच्छे-अच्छे मूल्यवान वस्त्र पहनवाए; मंत्री सेवक इत्यादि कर्मचारी नौकर रखे और फिर उस लड़की वाले राजा को पत्र लिखा कि हमारे राजा जी ने सगाई स्वीकार कर ली है। अतः जो तिथि विवाह की निश्चिय करो, लिखो; उसी दिन बारात आ जाएगी। पत्रोत्तर में राजा ने तिथि लिख दी। इसपर विवाह का प्रबंध होने लगा।

एक दिन जब राजसभा हो रही थी, सब मंत्री मुसाहिब बैठे हुए थे और वह गड़रिया राजसिंहासन पर तकिया लगाए राजा बना बैठा था, तब गड़रिए ने व्यापारी से कहा, ‘‘भाई देखो, तुम मुझे छोड़ दो, मेरी भेड़ें किसी के खेत में न चली जाएँ, कहीं मैं मारा न जाऊँ।’’ यह सुनकर सब लोग हँस पड़े। व्यापारी भी बड़ी हैरान हुआ। उसने सोचा कि इसका क्या प्रबंध किया जाए ? कहीं इसने राजा के सामने भी ऐसा ही कह दिया तो मैं तो उसी समय मारा जाऊँगा। उसने गड़रिए से कहा, ‘‘यदि तुम फिर कभी ऐसी बात कहोगे तो मैं तुम्हें उसी समय तलवार से मार डालूँगा। जो कुछ कहना हो, चुपके से मेरे कान में कहा करो।’’

कुछ समय बाद विवाह की तिथि आ गई। व्यापारी बारात लेकर चल दिया। जब लड़की वाले राजा का नगर निकट आ गया और उधर से मंत्री, बहुत से नौकर चाकर सेना अस्त्र-शस्त्र हाथी-घोड़े इत्यादि राजा की अगवानी के लिए आए तो गड़रिए ने विचार किया कि कदाचित् मेरी भेड़ें इनके खेत में चली गई हैं और ये मेरे कपड़े-लत्ते छीनने आ रहे हैं। अतः उसने झट व्यापारी से कहा, ये सब मेरे कपड़े-लत्ते छीनने के लिए आ रहे हैं। चूँकि यह बात कान में कही गई थी, अतः उस व्यापारी के सिवा और किसी को मालूम नहीं हुई। लोगों ने व्यापारी से पूछा, ‘‘कुँवर जी क्या आज्ञा दे रहे हैं ? व्यापारी ने कहा, कुँवर जी कहते हैं कि जितने आदमी स्वागत में आए हैं, प्रत्येक को पाँच-पाँच लाख रुपया पुरस्कार में दिया जाए।’’ फिर क्या था, बात की बात में यह फैल गया कि किसी बड़े भारी सम्राट् के कुँवर की बारात आई है, जो एक एक आदमी को पाँच-पाँच लाख रुपया पुरस्कार में देता है। नगर निवासी ही नहीं, लड़की वाला राजा भी घबराया कि मैंने बड़े भारी राजा से नाता जोड़ने का यत्न किया है। अब तो ईश्वर ही लाज रखे। अंततः उसी दिन राजा की कन्या का विवाह उस गड़रिए से हो गया।

विवाह के पश्चात् जब राजकुमारी गड़रिए के पास आई, तब गड़रिए ने गहनों की आवाज सुनकर सोचा, हो न हो, कोई चुड़ैल मुझे मारने के लिए आ रही है। यह सोचकर वह झटपट एक दरवाजे की ओट में छिप गया। राजकुमारी ने जब देखा कि राजकुँवर वहाँ नहीं है तो वह दूसरे कमरे में चली गई। कन्या को जाते ही गड़रिए को विचार आया कि अभी एक चुड़ैल से तो मुश्किल से बचा हूँ, न मालूम यहाँ कितनी और चुड़ैल आएँ, अतः यहाँ से भाग चलना चाहिए। वह यह सोच ही रहा था कि उसे एक जीना दिखाई पड़ा। वह झट ऊपर चढ़ गया और वहाँ एक छेद में हाथ डालकर कूटकर भागने का विचार करने लगा।

उसी समय बुद्धि ने भाग्य से कहा, ‘‘देख तेरे बनाने से भी यह राजा न बना। अब यह जल्दी ही गिरकर मृत्यु के मुँख में जाना चाहता है।’’
प्यारे पाठकों ! इस उदाहरण से आपको भली-भाँति विदित हो गया होगा कि यदि संसार की समस्त उपलब्धियाँ भी एकत्रित हों, तो भी जब तक मनुष्य को बुद्धि न आए, वह अपने उद्देश्य को पूर्णतया सिद्ध नहीं कर सकता।

कर्मफल अवश्य भोगने पड़ेंगे।


एक राजा हाथी पर सवार हो बड़ी धूमधाम के साथ चला जा रहा था। उसका हाथी ही दुष्ट था। जिस समय किसी प्रयोजनार्थ राजा हाथी से उतरा कि हाथी बिगड़ गया और राजा के ऊपर सूँड़ से प्रहार करने को दौड़ा। राजा हाथी की यह दशा देखकर जान बचाने के लिए वहाँ से भाग खड़ा हुआ, किंतु बिगड़ैल हाथी ने उसका पीछा किया। उसने राजा को एक ऐसे अँधे कुएँ में ले जाकर डाला, जिसके एक किनारे पर पीपल का वृक्ष था, जिसकी जड़े कुएँ के भीतर से निकल रही थीं, जो आधे कुएँ तक फैली थीं।

राजा के कुएँ में गिरते ही उसका पैर पीपल की जड़ों में फँस गया। अब राजा का सिर नीचे और पैर ऊपर को थे। राजा की दृष्टि जब नीचे को पड़ी, तो वह क्या देखता है कि कुएँ में बड़े-बड़े विकराल काले साँप, विशखोपरे और कछुए ऊपर को मुँह कर रहे हैं, जिन्हें देख राजा काँप गया कि यदि जड़ से मेरा पैर कदाचित् छूट गया और मैं कुएँ में गिरा तो मुझे ये दुष्ट जीव उसी समय भक्षण कर जाएँगे। जब ऊपर की ओर उसने दृष्टि डाली, तो देखा कि दो चूहे, एक काला और एक सफेद जिस जड़ में उसका पैर फँस रहा है, उसे कुतर रहे हैं। राजा ने विचारा कि मैं यदि जड़ पकड़कर किसी प्रकार ऊपर निकल भी जाऊँ तो मतवाला हाथी ठोकर लगाने को ऊपर ही खड़ा है, नीचे साँप आदि जंतु हैं और जड़ का यह हाल है। निदान राजा घोर विपत्ति में फँस गया। उस पीपल के वृक्ष पर ऊपर की तरफ से मक्खियों ने एक छत्ता लगा रखा था, जिससे एक एक बूँद शहद धीरे धीरे टपकता था और वह शहद कभी-कभी राजा के मुँह में आ गिरता था, जिसको वह ऐसी आपत्ति में होते हुए भी सब कुछ चाटने लगता। उसे इस बात का किंचित् मात्र भी ध्यान न रहा कि इस जड़ के टूटते ही मेरी क्या दशा होगी ?

मित्रों, इसका दृष्टांत यों है-यह जीवात्मारूपी राजा कर्मरूपी हाथी पर सवार है। चाहे वह इसे सुमार्ग से ले जाए, चाहे कुमार्ग से। जिस समय इस कर्मरूपी हाथी से यह उतरा है उस समय कर्मरूपी हाथी इस पर प्रहार करने दौड़ता है और इसे खदेड़कर माता के गर्भाशयरूपी अंधे कुएँ में जाकर डालता है। उस कुएँ में आयुरूपी वृक्ष की जड़ में इसका पैर फँसा रहता है और जब यह उस जड़ में उलटा लटका (गर्भाशय में प्रत्येक पुरुष का सिर नीचे और पैर ऊपर होते हैं) कुएँ में नीचे के संसार को देखता है, तो उसमें बड़े-बड़े भयंकर साँप, विषखोपरे और कछुए यानी काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा आदि इस आशय से मुँह फाड़े ऊपर को देख रहे हैं कि यह ऊपर से गिरे और हम इसको अपना भक्ष्य बनाएँ। यह देख जीवन-रुपी राजा अत्यंत व्याकुल होता है।

जब यह ऊपर की ओर दृष्टि डालता है तो इसी आयुरूपी जड़ को दो काले सफेद चूहे यानी सफेद चूहा दिन और काला चूहा रात, इसकी आयुरूपी जड़, जिसमें इसका पैर फँसा है, काट रहे हैं और जब यह विचारता है कि यदि इस कुएँ से मैं किसी प्रकार जड़ पकड़कर निकल जाऊँ, तो कर्मरूपी हाथी ठोकर लगाने को ऊपर खड़ा है। इस दशा में जो मक्खीरूपी विषय का शहद (रूप, रस, गंध, शब्द, स्वर्श) उसका आस्वादन करने में यह ऐसा निमग्न हो जाता है कि सारी विपत्तियों को भूल जाता है। इसे यह भी स्मरण नहीं रहता कि आयुरूपी जड़ अभी कटने वाली है, जिससे गिरकर मैं इन सर्प, कछुओं का भोजन बनूँगा इसलिए हम क्यों न ऐसा कर्म करें कि जिससे हाथी खदेड़कर हमें गर्भाशयरूपी कुएँ में न डाल पाए अर्थात् हम लोग ऐसे सत्य कर्म करें, जिससे भयानक अंधे कुओं में न जाना पड़े और मोक्ष प्राप्त करें।

धार्मिक राज्य


एक मुसलमान बादशाह ने हिंदुस्तान के दक्षिणी राज्य पर चढ़ाई की। राज्य की सीमा पर पहुँचकर उसने अपना एक दूत राजा के पास भेजा और यह संदेशा कहला भेजा-‘या तो तू अपना राज्य खाली कर दे या मेरे साथ युद्ध करने को तैयार हो जा।’ राजा ने यह संदेशा सुन दूत से कहला भेजा हम राज अपने सुख के लिए नहीं करते अपितु प्रजा के सुख के लिए करते हैं। हमारे यहाँ नितांत धर्मपूर्वक ही राज-कार्य होता है। यदि इसी भाँति तुम्हारा बादशाह करना स्वीकार करे, तो हम राज्य को छोड़ने के लिए तैयार हैं। हम लड़कर मनुष्यों का नाश करना नहीं चाहते हैं।’

दूत ने यह संपूर्ण वृतांत बादशाह से जाकर कहा। बादशाह उस राजा की न्यायोचित वार्ता सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ। उसके हृदय में उस राजा से मिलने की एक अदम्य अभिलाषा उत्पन्न हुई और वह स्वयं ही राजा की सभा में आकर उपस्थित हो गया।
सभा लगी हुई थी और दो कृषकों का अभियोग चल रहा था। अभियोग यह था कि एक कृषक ने दूसरे कृषक के हाथ अपनी कुछ भूमि विक्रय की थी। कुछ काल के उपरांत उस विक्रय की हुई भूमि में से एक बड़ा कोष निकला। तब भूमि मोल लेने वाला कृषक बेचने वाले से कहने लगा कि आपकी भूमि से एक कोष निकला है, सो आप चलकर अपना कोष ले लीजिए; क्योंकि हमने तो केवल भूमि मोल ली है, न कि कोष।

इस पर विक्रय करने वाला कृषक कहने लगा कि यदि भूमि बेचने से पहले हमारी भूमि होते हुए कोष निकलता तो निस्संदेह वह हमारा कोष होता; परंतु जब हमने वह भूमि आपको बेच दी है, तब वह कोष भी आपका ही है। राजा ने इन दोनों वादी-प्रतिवादी के झगड़े का यह निर्णय किया, ‘‘तुम दोनों में से जिस किसी के लड़का और जिस किसी के लड़की हो, परस्पर उनका ब्याह कर यह संपूर्ण कोष उन लड़के-लड़की को दे देना।’’

बादशाह इस न्याय को देख दंग रह गया। राजा ने बादशाह से पूछा, ‘‘कहिए, आपकी राय में यह न्याय कैसा हुआ ? बादशाह ने कहा, ‘‘यह बिलकुल वाहियात हुआ। राजा ने पूछा, ‘‘भला आप इसे कैसे करते ? बादशाह ने कहा, हम तो इन दोनों को कारागार में भेज संपूर्ण धन अपने कोष में भेज देते। यह सुन राजा ने पूछा क्या आपके राज्य में पानी बरसता है ? जाडा़ गर्मी ऋतुएँ ठीक समय पर होती हैं ? अन्नादि उत्पन्न होते हैं ?’’ बादशाह ने कहा, ‘‘यह सब होता है। राजा ने पूछा, आपके राज्य में केवल मनुष्य ही रहते हैं या पशु पक्षी आदि भी रहते हैं ?

बादशाह ने कहा, ‘‘सब जीव रहते हैं।’’ तब राजा ने कहा उन्हीं पशु-पक्षियों के भाग्य से आपके राज्य में वर्षा जाड़ा गर्मी अन्न आदि भले ही होता हो; वरना तो आप या आपके सदृश आपकी प्रजा के भाग्य से तो वहाँ वर्षा, जाड़ा, गर्मी, अन्न आदि होने की मुझे आशा नहीं है।’’


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