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जीवनी/आत्मकथा >> महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप

भवान सिंह राणा

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3424
आईएसबीएन :81-7182-363-7

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महाराणा प्रताप के जीवन पर आधारित पुस्तक...

Maharana pratap

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


महाराणा प्रताप का नाम लेते ही मुगल साम्राज्य की सत्ता को चुनौती देने वाले वीरता के ओज से परिपूर्ण एक अप्रतिम वीर योद्धा का बिम्ब हमारे मस्तिष्क में अनायास ही मूर्त रूप धारण कर लेता है। स्वतन्त्रता हेतु विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने जो संघर्ष किया, उसकी सामान्य लोगों से कल्पना भी नहीं की जा सकती। मेवाड़ नरेश होते हुए भी उनके जीवन का अधिकांश भाग वनों और पर्वतों में इधर-उधर भटकते हुए व्यतीत हुआ। अपनी अदम्य इच्छा शक्ति और अपूर्व रण कौशल से अन्ततः वह मेवाड़ को स्वाधीन कराने में समर्थ हुए।
भौतिक सुख-लाभों की उपेक्षा करते हुए मातृभूमि की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए उनका अनवरत संघर्ष इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। प्रस्तुत है महाराणा प्रताप का सरल एवं सुबोध भाषा में संक्षिप्त जीवन चरित।

दो शब्द


देशप्रेम, त्याग, बलिदान, संघर्ष आदि गुणों के प्रतीक महाराणा प्रताप भारतवासियों के लिए श्रद्धा तथा अभिमान का विषय बन गये हैं। उनका नाम लेते ही मुगल साम्राज्य की सत्ता को चुनौती देने वाले वीरता के ओज से परिपूर्ण एक अप्रतिम योद्धा का बिम्ब हमारे मस्तिष्क में अनायास ही मूर्त्त रूप धारण कर लेता है। स्वतन्त्रता हेतु विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने जो संघर्ष किया, उसकी सामान्य लोगों से कल्पना भी नहीं की जा सकती। मेवाड़ नरेश होते हुए भी उनके जीवन का अधिकांश भाग वनों और पर्वतों में इधर से उधर भटकते हुए व्यतीत हुआ है। अपनी अदम्य इच्छाशक्ति और अपूर्व रण-कौशल से अन्तत: वह मेवाड़ को स्वाधीन कराने में समर्थ हुए।

भौतिक सुख-लाभों की उपेक्षा करते हुए मातृभूमि की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए उनका अनवरत संघर्ष इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है। उनके समान व्यक्तित्व देश एवं जाति के लिए युग-युग तक प्रेरणा स्वरूप होते हैं। आज भारत में राष्ट्रीय चेतना ह्नास की ओर अग्रसर होती जैसी प्रतीत होती है। ऐसे समय में महाराणा प्रताप का जीवन चरित्र आदर्श स्वरूप है। यही कारण है कि वह मातृभूमि की स्वाधीनता के उपासकों के लिए प्राय: स्मरणीय और वन्दनीय बन गये हैं।
इस पुस्तक की सामग्री संकलन के लिए डॉ. गौरी शंकर हीराचन्द ओझा, महामहोपाध्याय कविराज श्यामलदास (वीरविनोद), डॉ. गोपीनाथ शर्मा, डॉ. आशीर्वादीलाल, महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन, कर्नल टॉड, डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी, श्री राजेन्द्र बीड़ा, श्री राजेन्द्र शंकर भट्ट आदि इतिहासविद विद्वानों की पुस्तकों से सहायता ली गई है। इन सभी के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूं।

-डॉ. भवानसिंह राणा

प्रथम अध्याय
मेवाड़ और उसका राजवंश


भारतीय इतिहास में राजपूताने का गौरवपूर्ण स्थान रहा है। यहां के रणबाकुरों ने देश, जाति तथा स्वाधीनता की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने में कभी संकोच नहीं किया। उनके इस त्याग पर संपूर्ण भारत को गर्व रहा है, वीर रस रूचिरा इस भूमि में राजपूतों के छोटे-बड़े अनेक राज्य रहे, जिन्होंने भारतीय इतिहास के अनेक उज्जवल अध्यायों की रचना की। इन्हीं राज्यों में मेवाड़ का अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है, जिसमें इतिहास के गौरव वप्पारल, खुमाण प्रथम महाराणा हम्मीर, महाराणा कुम्भा, महाराणा सांगा तथा प्रस्तुत पुस्तक के चरितनायक वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप इतिहास निर्माता महान् वीरों ने जन्म लिया।

मेवाड़ की भौगोलिक स्थिति

मेवाड़ का इतिहास इस राज्य के प्रारम्भ से ही अत्यन्त गौरवशाली रहा है। मध्यकाल में यहां के शासकों तथा जनता ने अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए मुसलमान सुल्तानों के विरुद्ध जो संघर्ष किये, वह इतिहास में अद्वितीय हैं। इस राज्य के इतिहास में वीरता, त्याग, बलिदान तथा स्वतन्त्रता प्रेम का एक अद्भुत समन्वय दिखायी देता है। इसकी एक विशिष्टता का एक महत्वपूर्ण कारण इसकी भौगोलिक स्थिति शेष राजस्थान से पर्याप्त भिन्न है। इसकी स्थिति 23.49 से 25.58 उत्तरी अक्षांश तथा 73.1 से 75.49 दक्षिणी देशान्तर तक है। वर्तमान काल में यह राज्य भीलवाड़ा, चित्तौड़ और उदयपुर में विभक्त है।

इसके पूर्व में नीमच, टोंक, कोटा तथा बूंदी, दक्षिण में डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़, दक्षिण-पश्चिम में ईश्वर, पश्चिम में जोधपुर और सिरोही, उत्तर में अजमेर, मेरवाड़ा और भीलवाड़ा का कुछ भाग तथा उत्तर-पूर्व में जयपुर स्थित है।
मेवाड़ को चार प्राकृतिक भागों में विभाजित किया जाता है-
(1)    पश्चिमी पर्वतमाला।
(2)    पूर्वी पर्वतमाला।
(3)    दक्षिणी पर्वतमाला
(4)    मध्यवर्ती मैदानी भाग
पश्चिमी पर्वतमाला उत्तर में दिवेर से आरम्भ होकर दक्षिण में देवल तक फैली है। इसी पर्वतमाला को अरावली या अड़ावल की पहाड़ियां कहा जाता है। इसकी सबसे ऊंची चोटी कुम्भलगढ़ के समीप जरगा नामक स्थान पर है, जिसकी ऊंचाई समुद्र सतह से 4315 फुट है। इस पर्वतमाला में अनेक तंग दर्रे हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में नाल कहा जाता है। इनमें देसूरी, हाथीगुडो, जीलवाडा़ आदि की नालें प्रमुख हैं। बाहर से शत्रुओं का प्रवेश रोकने के लिए इन नालों पर सुरक्षा का प्रबन्ध रहता था। हाथीगुड़ा में स्वतन्त्रता की रक्षा में प्राणोत्सर्ग करने वाले वीरों के स्मारक बने हैं। इस पर्वतमाला से अनेक छोटी-बड़ी नदियां निकलती हैं, जो मेवाड़ के मैदानी भाग में कृषि के लिए वरदान स्वरूप हैं। इस भाग में भी बीच में भीलों तथा अन्य वनवासी लोगों की बस्तियां हैं और स्थान-स्थान पर खेती योग्य भूमि भी है। इस पर्वतमाला का दक्षिणी भाग गोगूंदा तक फैला है, जिसे भोमट कहा जाता है। यह पर्वतमाला मेवाड़ के लिए इस दिशा से प्राकृतिक सुरक्षा का कार्य करती थी। यहीं से उदयसिंह तथा महाराणा प्रताप के मुगल सम्राट अकबर के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध का संचयन किया था।

 अरावली की ही एक छोटी पर्वतमाला उत्तर-पूर्व में देवली से भीलवाड़ा तक चली गयी है। एक दूसरी श्रृंखला देवली से मांडलगढ़, बिजोलिया, मेनाल होती हुई चित्तौड़गढ़ तक चली गई है। यही छोटी पर्वतमालाएं पूर्वी पठार कही जाती हैं। इस भाग की अधिकतम ऊंचाई 2000 फुट है। इस भाग को अपरमल भी कहा जाता है। यहां अनेक सनातन तथा जैन मतों के तीर्थ स्थान भी हैं। प्राचीनकाल में यह एक समृद्ध व्यापारिक केन्द्र था। दक्षिण के पर्वतमाला प्रदेश में छापन तथा मगरे जिले के जंगल तथा पहाड़ियां सम्मलित हैं। यह भाग गुजरात की सीमा से मिला हुआ है। इसमें पहाड़ियों की घाटियों के बीच छोटे-छोटे गांव हैं। गुजरात की ओर से इसी प्रदेश से मेवाड़ पर आक्रमण हुए थे। यहां से वन्य सम्पदा तथा खनिज पदार्थों की प्राप्ति भी होती है। यहां महुआ, सागवान, इमली पीपल, सीसम, खजूर, जामुन आदि के वृक्षों की बहुलता है। हल्दी घाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने इसी प्रदेश में स्थित चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया था। कहा जाता है कि पहले जावर से तीन लाख रुपये वार्षिक की चांदी निकलती थी और यहां कई तांबे की खानें भी थीं। आज भी यहां निर्माण कार्य तथा चक्की बनाने का पत्थर अत्यधिक मात्रा में पाया जाता हैं।
चित्तौड़ राजसमन्द, भीलवाड़ा, उदयपुर, नाथद्वारा और मगरा जिले के बीच का भू-भाग मध्यवर्ती मैदानी भाग कहा जाता है। इस भाग में कई महत्त्वपूर्ण नदियां बहती हैं। मेवाड़ के इतिहास के कई महत्त्वपूर्ण धार्मिक स्थान भी इसी क्षेत्र में हैं।

पहाड़ी भागों से निकली नदियां मैदानी भाग की कृषि के लिए वरदान स्वरूप हैं। मेवाड़ के उत्तर में एक खारे पानी की नदी है, जो अजमेर निकट बनास नदी में मिल जाती है यही नदी अजमेर और मेवाड़ प्रदेश की विभाजक रेखा भी है। बनास मेवाड़ की सबसे बड़ी नदी है, जो कुम्भलगढ़ के पास एक स्थान से निकलती है। इसकी लम्बाई प्राय: 290 कि.मी. है कोठारी, मेनाल, बेड़च आदि सहायक नदियों को अपने में समाहित कर यह रामेश्वर तीर्थ (मध्य प्रदेश) में चम्बल से मिल जाती है। हल्दी घाटी का प्रसिद्ध युद्ध इसी नदी के तट पर खमनोर के पास हुआ था। गम्भौरी, बेड़च, अहाड़, जाकुम, बाकल आदि मेवाड़ की अन्य नदियां है। जाकुम और बाकल में वर्षा ऋतु में ही अधिक पानी रहता है। इसका पानी भारी तथा स्वास्थय की दृष्टि से हानिकारक है। बाढ़ आ जाने पर इन नदियों से जन-धन की भारी हानि होती है, किन्तु बाह्य आक्रमणों से ये नदियां वर्षा ऋतु में मेवाड़ की रक्षा का साधन भी बन जाती थीं। राणा कुम्भा के समय मालवा के सुल्तान को कई बार इन्हीं नदियों के कारण पराजय का मुंह देखना पड़ा था।

मेवाड़ की जलवायु सामान्यतया वहां के निवासियों के लिए सुखकर है, किन्तु बाहरी लोगों के लिए यह अनुकूल नहीं रहती। पर्वतीय क्षेत्रों की जलवायु  मैदानी क्षेत्रों की तुलना में अधिक अस्वास्थ्यकर है। ग्रीष्म ऋतु में यहां गर्मी का इतना प्रकोप होता है कि प्राय: बाहर के लोगों के लिए असहनीय हो जाती है। हल्दीघाटी युद्ध में अपने अनुभव का वर्णन करते हुए बदायूनी ने लिखा है कि ‘दोपहर में इतनी गर्मी थी कि उनकी खोपड़ी का खून उबलने लगा था’ फलस्वरूप यह जलवायु आक्रमणकारी शत्रु सैनिकों को हराने अथवा हतोत्साहित करने में मुख्य भूमिका निभाती थी।

मेवाड में इन प्राकृतिक सुरक्षा साधनों के साथ ही झीलों की भी बहुलता है। अत: इस भू-भाग को झीलों का प्रदेश भी कहा जाता है। महाराणा जयसिंह ने उदयपुर से लगभग 51 कि.मी. दूर जयसमुद्र नामक विशाल झील का निर्माण कराया, जो मेवाड़ की सबसे बड़ी झील है। राजसमुद्र, उदयसागर, पिछोला, फतहसागर और स्वरूप सागर आदि झीलें भी इसी क्षेत्र में हैं।

यद्यपि मेवाड़ का इतिहास राजपूत राजाओं का इतिहास रहा है, किन्तु यहां की भील जाति का भी इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भील मेवाड़ के गहन वनों की एर वीर जाति रही है। मुख्य व्यवसाय कृषि और पशुपालन होते हुए भी इन्होंने समरभूमि में अपनी वीरता का सुन्दर परिचय दिया। महाराणा प्रताप के साथ मुगलों के युद्धों में भीलों ने प्रताप की जिन विषम परिस्थितियों में सहायता की उनका यह कार्य इतिहास में वीरता, स्वामीभक्ति, नि:स्वार्थता जैसे गुणों का अद्वितीय उदाहरण है।

 

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