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यथार्थ समाजवाद

प्रबोध कुमार मजुमदार

प्रकाशक : भुवन वाणी ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :85
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2829
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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इसमें मनुष्य के नित्यप्रति जीवन में वेदान्त के सूत्रों के ढालने का वर्णन है...

Yatharth samajvad

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रकाशकीय

आज भौतिक उन्नति के चरमोत्कर्ष से प्रलुब्ध किन्तु सच्चे सुख और शान्ति की क्षुधा से पीड़ित विश्व की आँखें, भारतीय अध्यात्म एवं वेदान्त दर्शन के व्यावहारिक स्वरूप की ओर आशा के साथ निहार रही हैं।
प्रस्तुत ‘रामतीर्थ वचनामृत’ के अन्तर्गत प्रकाशित साहित्य का उद्देश्य, मनुष्य के लिए नित्यप्रति के जीवन में वेदांत के सूत्रों को ढालने के संबंध में मनीषियों द्वारा प्रदत्त अमृत-वचनों को संग्रहीत करना और विश्व के समक्ष, नयी समस्याओं के समाधान प्रदान करने के लिए, मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि तैयार करना है।

यत्किञ्चित् सफलता यदि हमें इस प्रयोजन में प्राप्त हुई तो निस्संदेह हमारा साहस आगे बढने को उत्साहित करता रहेगा।

प्रकाशक

यथार्थ समाजवाद


भाववाद और यथार्थवाद का समन्वय
वेदान्त के आलोक में-1


[व्यावहारिक जीवन में भाववाद और यथार्थवाद, वेदान्त की अनुभूति के बिना, अधूरे और पंगु हैं। वेदान्त में भाववाद और यथार्थवाद का समन्वयात्मक स्वरूप स्पष्ट गोचर होता है। उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। वेदान्तानुरूप आचरण में ही, परम समाजवादी समाज की सही अर्थ में स्थापना का आधार निहित है। उससे रहित समाज में वास्तविक सुख, शान्ति और अस्तित्व सभी मृग-मरीचिका मात्र हैं। यह सर्वथा वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक दृश्य है।–प्रकाशक]

[ 13 जनवरी 1903 ई. को गोल्डन गेट हाल में दिया हुआ भाषण]

महिलाओं तथा सज्जनों के रूप में एकमात्र वास्तविक एवं आदर्श स्वरूप। इसे सम्पूर्णरूप से समझ सकेंगे जिन्हें तत्त्वज्ञान या दर्शनशास्त्र से कुछ परिचय है। राम के लिए कोई फर्क नहीं पढ़ता, चाहे आप लोग सबके सब थककर या अप्रसन्न होकर चले जायँ अथवा सारा संसार सुनने के लिए चला आवे। लोकप्रियता की सभी अभिलाषाओं से ऊपर सत्य का स्थान है। वैज्ञानिक नियम संसार का नियंत्रण करते थे, कर रहे हैं और करते रहेंगे चाहे लोग उन्हें जाने या न जानें, चाहे वे लोकप्रिय बनें या न बनें। सर आइज़क न्यूटन द्वारा आविष्कार होने से पूर्व भी गुरुत्वाकर्षण के नियम (Law of gravitation) वही थे, जो आविष्कार के समय प्रकट हुए। ऐसे भी नियम हैं जिनका आविष्कार लोगों ने नहीं किया होगा, पर वे विश्व नियंत्रण कर रहे हैं। एक प्रदीप्त हीरा खान में पड़ा हुआ है और कोई जाकर उसे उठा नहीं लाया है, फिर भी वह अपनी शोभा में प्रोज्जवल है। चाहे लोग उसे उठाकर अपने माथे पर धारण कर लें और चाहे उसकी सम्पूर्ण उपेक्षा करें, हीरे को इससे कोई भी लाभ या क्षति नहीं।

विषय कठिन हैं किन्तु यदि आप ध्यान लगाकर एकाग्र होकर सुनेंगे तो समझ सकेंगे आपको यह नहीं कहना चाहिए ऐसे गूढ़, विचारणीय दार्शनिक विषयों  पर बोलना व्यर्थ है, हमें इनकी आवश्यकता नहीं; हमें तो ठनाठन रुपया चाहिए, हमें तो कुछ व्यावहारिक बातें चाहिए। राम व्यावहारिक विषयों पर भी बोलता रहा है पर विचारणीय तथा काल्पनिक विषयों की भी आवश्यकता है। कोई भी तथ्य बिना प्रामाणिक तर्क के समझाया नहीं जा सकता और आप जानते हैं कि आपका सम्पूर्ण कार्यक्रम, केवल आपकी सारी शक्तियों का क्रियाशीलता में परिणत हो जाना मात्र है, और कुछ नहीं।

जब आपको कुछ लिखना होता है तब इससे पूर्व कि आपकी लेखनी चले, सम्पूर्ण विषय काल्पनिक रूप में आपके मन में अवश्य आ जाता है। कल्पना या उपपत्ति सदा क्रियाशीलता से पहले आती है। जब आप किसी जगह को पाते हैं, तब आपका चलना केवल अभ्यास की बात होती है, किन्तु आपके स्नायु और गति का नियंत्रण करने के लिए यदि मन वहाँ न हो तो एक पग भी आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। कोई भी छात्र विश्वविद्यालय तक जाता जब तक उसके मन में पहले ही से विश्वविद्यालय के बारे में कल्पना नहीं होती, जब तक उसे यह ज्ञान नहीं होता कि किस प्रकार की शिक्षा उसे वहाँ मिलेगी। जब कोई चोर लगातार किसी पड़ोसी विशेष के धन-दौलत के बारे में सुनता रहता है, तब इस निरन्तर मिलने वाले वृत्तान्त को, अपने निरन्तर विचार को वह क्रियाशीलता में बदल डालता और अपने धनी पड़ोसी के घर में चोरी करने का साहस बटोर लेता है। किसी मानसिक कार्यक्रम के बिना, जो काम करना है उसके बारे में पूर्व ज्ञान के बिना, कोई कार्य भी नहीं किया जा सकता।

इसलिए राम आपके कानों में वास्तविक स्वरूप के ईश्वरत्व का ढोल पीटने और सब श्रोताओं के हृदयों में उसके उतारने का प्रयत्न करना है। प्रतिदिन अपने हृदयों में इसे गहराई में उतरते रहने दीजिए, अपने मनों में घंटों लगातार इसे प्रवेश न करने दीजिए, तो आप देखेंगे कि विज्ञान के नियमों के अनुसार यह मानसिक शक्ति, जो कि व्यर्थ कोरी कल्पना सी लगती है, श्रेष्ठ कर्मठता का रूप धारण करेगी और इस ज्ञान को आप अपने लिए आनन्द और कल्याण में रूपान्तरित होते देखेंगे।
विषय है ‘वेदान्त के आलोक में भाववाद और यथार्थवाद का समन्वय।’

दूसरे शब्दों में यह विषय- ‘प्रत्यक्ष बोध और वेदान्ती उत्पत्ति’ है, जो कि दार्शिनक के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
भाववाद और यथार्थवाद क्या है, इस संबंध में आपको कुछ बता देना चाहिए। इन प्रसंगों के विस्तार में जाने का हमें समय नहीं है। संक्षेप में यथार्थवाद का अर्थ है वह विश्वास या सिद्धांत जो इस संसार को ठीक वैसा ही मानता है जैसा वह दृष्टिगोचर होता है। और भाववाद में संसार वैसा ही माना जाता है जैसा हमें जान पड़ता है; संसार है पर वह वैसा नहीं जैसा दीख पड़ता है। किन्तु यथार्थवाद के अनुसार वस्तुएँ ठीक वैसी ही हैं जैसी हमें जान पड़ती हैं। भाववाद की कई शाखाएँ हैं। आत्मनिष्ठ भाववाद जैसा बर्कले और फिक्टे का। दूसरा है वस्तुनिष्ठ भाववाद जैसे प्लेटों और कैंट का; और परम भाववाद जो हेगेल और शेली तथा उसी श्रेणी के अन्य अनेक का है। यथार्थवाद के भी समर्थक बेन और मिल की तरह अनेक दार्शनिक हैं। भाववाद और यथार्थवाद की इन विविध शाखाओं की व्याख्या हम न करेंगे। आज के भाषण में बर्कले के आत्मनिष्ठ भाववाद या प्लेटो या कैंट के वस्तुनिष्ठ भाववाद या हेगेल और शेली के परम भाववाद की समालोचना न करेंगे। हम उल्लेख वहीं तक करेंगे जहाँ तक इस संबंध में वेदान्त का मत सरलता से सभी की समझ में आने में सहायता मिल सके।

विषय को आरम्भ करने से पूर्व ‘आधार’ (Subject) और आधेय (Object) इन दोनों को समझा देना चाहिए। आप जानते हैं कि इन दोनों शब्दों के कई अर्थ होते हैं। व्याकरण में इनके एक विशेष अर्थ हैं। साधारण भाषा में इनका दूसरा ही अर्थ होता है और दार्शनिक भाषा में इनका अपना विभिन्न अर्थ है। दर्शन की भाषा में ‘आधार’ का अर्थ है ज्ञाता और ‘आधेय’ का अर्थ है ज्ञात पदार्थ। जब आप यह पेंसिल देखते हैं तब वह पेंसिल तो दृष्ट पदार्थ है और पेंसिल को देखने वाले आप ज्ञाता हैं। देखने वाला ‘ज्ञाता’ है, तो देखी हुई वस्तु ‘पदार्थ’ है। यों साधारण बोलचाल में ज्ञाता नहीं कह सकते, क्योंकि वह भी एक वस्तु या विषय है। और आप जानते हैं कि कोई भी वस्तु जिसको आप इन्द्रिय से उपलब्ध कर सकते हैं ‘पदार्थ’ बन जाता है और बुद्धि को जान सकते हैं, उसके बारे में विचार और तर्क कर सकते हैं, और उससे नियमों का निर्धारण कर सकते हैं।

 जिस सीमा तक आप बुद्धि की धारणा कर सकते हैं, और आप उसके बारे में तर्क या युक्ति खड़ी कर सकते हैं वहाँ तक ‘बुद्धि’ ‘विषय’ या ‘पदार्थ’ है और ‘ज्ञाता’ या ‘कर्त्ता’ नहीं। प्रकृत ‘ज्ञाता’ की धारणा या कल्पना नहीं हो सकती, प्रकृत ज्ञाता का अनुमान नहीं हो सकता। ज्ञाता को कैसे जाना जा सकता है ? आप जानते हैं कि प्राकृत ज्ञाता जाननेवाला हो सकता है न कि इन जानने की वस्तु और जिस क्षण वह ज्ञाता न होकर ज्ञेय या जानने वाली वस्तु बन जाता है, उसी क्षण वह विषय या पदार्थ बन जाता और ज्ञाता नहीं रह जाता है। किन्तु साधारण बोलचाल में ‘कर्त्ता’ व ‘ज्ञाता’ शब्द से बुद्धि, मनीषा और युक्ति का बोध होता है। वेदान्त के अनुसार प्रकृत ज्ञाता, सत्य आत्मा है; असीमता है, जो सब शरीरों में एक और वही है। संस्कृत में ज्ञाता को ‘द्रष्टा’ कहते हैं और ज्ञेय को दृश्य कहते हैं। और संस्कृत में प्रकृत द्रष्टा ब्रह्म् या आत्मा है। अंग्रेजी में आत्मा शब्द का अनुवाद शोपेनहावर का Will अर्थात् संकल्प हो जाता है या हेगेल का Hard Intellect अर्थात् ठोस मति अथवा Absolute Intellect या परम बुद्धि हो सकता है। आप जानते हैं कि हेगेल और शोपेनहावर का आपस में विरोध है। वे एक-दूसरे के घोर विपक्षी हैं, किन्तु वेदान्त उन्हें मिला देता है। वेदान्त उन्हें बताता है कि शोपेनहावर का ‘शुद्ध संकल्प’ वास्तव में वही है जिसे हेगेल ‘परम बुद्धि’ बताते हैं और इस प्रकार शुद्ध आत्मा के लिए हमारा शब्द ब्रह्म है शुद्ध संकल्प, परम बुद्धि, परम अस्तित्व और परम आनन्द।

इसलिए वास्तविक द्रष्टा शुद्ध आत्मा है, किन्तु व्यावहारिक द्रष्टा या बुद्धि और मनीषा से प्रोज्ज्वल आत्मा है। इस प्रकार शुद्ध आत्मा अपने साधन बुद्धि के साथ द्रष्टा कहा जाता है।

यथार्थवादी अपने पक्ष में कौन-सी युक्तियाँ रखते हैं और भाववादी अपने पक्ष के समर्थन में किन-किन मुख्य युक्तियों का अवतारण करते हैं, यह एक लम्बा विषय है किन्तु हम बहुत संक्षेप में इस पर विचार करेंगे। बर्कले का खण्डन करने के लिए हमारे पास समय नहीं है। बर्कले एक प्रधान भाववादी है। किन्तु उत्साह से वह अपने दर्शन का प्रारम्भ करता है और जब तक वेदान्त दर्शन के साथ-साथ रहता है तब वह काफी ऊँचाई में उड़ता और जिस क्षण वह वेदान्त दर्शन से अलग होता है वह अपना मार्ग भूल जाता है और टेढ़े-मेढ़े और घुमावदार रास्तों में भटकता रहता है। यह बड़ा ही रोचक विषय है और यदि राम को विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और अध्यापकों के सामने भाषण देने का मौका मिले तो वहाँ इस पर विचार अवश्य होना चाहिए। बर्कले के दर्शन के आरम्भिक अंश से उत्तरांश का प्रभेद तो देखिए, किस प्रकार से अनेक आत्माओं को मानने और फिर उन्हें इस विश्व के नियंत्रण के लिए एक वैयक्तिक ईश्वर के अन्तर्गत करने में वह बाध्य हो जाता है। और किस तरह से उसके दर्शन के अनुसार कोई भी पदार्थ इस संसार में उपस्थित नहीं हो सकता जब तक कि उसके बगल में एक आत्मा न हो। इस प्रकार की न मालूम कितनी ही बेतुकी बातें वह अपने दर्शन में अन्तर्गत करने को बाध्य हो जाता है। अच्छा, यह विषय है जिसकी चर्चा आज हम नहीं करना चाहते। भाववादियों द्वारा पेश की हुई अनेक युक्तियों में निम्नलिखित दो-तीन बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं।



   

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