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नीलाम्बरा

महादेवी वर्मा

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1966
आईएसबीएन :9788170284956

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प्रकृति के विराट् रूप-वैभव का साक्षात्कार कराती कविताएँ....

 

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधुनिक हिन्दी कविता की मूर्धन्य कवियत्री श्रीमती महादेवी वर्मा के काव्य में एक मार्मिक संवेदना है। सरल-सुथरे प्रतीकों के माध्यम से अपने भावों को जिस ढंग से महादेवीजी अभिव्यक्त करती हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है। वास्तव में उनका समूचा काव्य एक चिरन्तन और असीम प्रिय के प्रति निवेदित है जिसमें जीवन की धूप-छांह और गम्भीर चिन्तन की इन्द्रधनुषी कोमलता है।

‘नीलाम्बरा’ में संग्रहीत कविताओं के बारे में स्वयं महादेवीजी ने यह स्वीकार किया है कि इसमें मेरी ऐसी रचनाएँ संग्रहीत हैं जो मेरी जीवन-दृष्टि, दर्शन, सौन्दर्यबोध और काव्य-दृष्टि का परिचय दे सकेंगी।
महीयसी महादेवी की सम्पूर्ण काव्य-यात्रा न सिर्फ़ आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास बनने का साक्षी है, भारतीय मनीषा की महिमा का भी वह जीवन्त प्रतीक है। उनकी कविताएँ हिन्दी साहित्य की एक सार्थक कालजयी उपलब्धि हैं।

 

नीलाम्बरा

मानव किसी शून्य में जन्म न लेकर एक विशेष भौगोलिक परिवेश में जन्म और विकास पाता है, जो धरती, आकाश, नदी, पर्वत, वनस्पति आदि का संघात है। मनुष्य का शरीर, जिन पंच तत्त्वों का सानुपातिक निर्माण है, वे ही व्यापक रूप से उसके चारों ओर फैले हुए हैं। इस भौतिक परिवेश का स्वभाव ही प्रकृति है और किसी कारण से उसमें विरोधी तत्त्वों का उत्पन्न हो जाना ही विकृति कहा जाएगा।

 मानव जब इस भौतिक परिवेश के सम्पर्क में आता है, तब इसे कभी अपने जीवन के अनुकूल बनाने और कभी इसके अनुकूल बनने का जो प्रयत्न करता है, उससे उत्पन्न सामंजस्य ही मानव-संस्कृति को गतिशील बनाता चला जाता है। वस्तुतः मनुष्य जाति की जीवन-पद्धिति धर्म, दर्शन, कला, साहित्य आदि उसके विकास के विविध आयाम ही कहे जाएँगे।
प्रकति मानव के कारण अर्थात् इन्द्रियों द्वारा प्राप्त रूप-रस-गन्ध-स्पर्श-ध्वनि का विषय भी है और उस उपलब्धि से उत्पन्न अनुमान, कल्पना, आस्था, विचार, सौन्दर्यबोध, जिज्ञासा आदि का कारण भी मनुष्य-चेतना की विविध वृत्तियों के अनुसार उसकी दृष्टि के समबन्ध में भी विविध हो गई है। कभी उसकी दृष्टि विषयपरक है, कभी देवत्य और रहस्यमूलक।
विषय या वस्तुपरक दृष्टि ने मनुष्य के बौद्धिक विकास के साथ उस वैज्ञानिक दिशा में प्रगति की है, जिसमें प्रकृति को केवल उपयोग की वस्तु के रूप में स्वीकार किया जाता है। इस वस्तुपरक दृष्टि ने प्रकृति से संघर्ष करके उस पर जो विजय का संतोष मनुष्य को दिया है, उसमें उपभोग का सुख हो सकता है, तन्मय आनन्द नहीं, क्योंकि आनन्द में विषय और विषयी में तादात्म्य की स्थिति आवश्यक होती है। इसमें संघर्ष और विजय के लिए स्थान नहीं होता।

देवत्वपरक दृष्टि ने प्रकृति के विभिन्न रूपों को दैवी या अतिमानवीय शक्तियों से सम्पन्न माना है, अतः उसके द्वारा भिन्न-भिन्न कार्यों को सम्पादित करने वाले बहुदेववाद और एक सर्जन के रूप में एकेश्वरवाद की स्थापना सहज हो गई, जिसने अनेक धर्मों में विकास किया। आवश्य ही इस दृष्टि ने मनुष्य को आस्था का सम्बल दिया, परन्तु उसने सम्प्रदाय को जन्म देकर उसे विभाजित भी किया है।

जिज्ञासामूलक रहस्यवाद ने प्रकृति और जीवन के सम्बन्ध में जो विविध समादान और व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं, उनसे अनेक दर्शन-सरणियाँ जन्म और विकास पाती रहीं।
जिस प्रकार मानव शरीर जड़ और चेतन दोनों का संघात है, उसी प्रकार शरीर रचना करने वाले तत्त्वों में भी दोनों की स्थिति स्वाभाविक मानी जाएगी, अतः दर्शन में किसी मत ने दोनों को भिन्न माना और किसी ने एक। इस प्रकार कभी प्रकृति चेतना की अभिव्यक्ति मात्र और कभी उसी के समान अनादि, अनन्त स्वीकार कर ली गई।

मनुष्य के हृदय की रागात्मिका वृत्ति ने इन सभी दृष्टियों का उपयोग करके भी प्रकृति को भावपरक दृष्टि से नूतन जन्म दिया। आदि युग से ही प्रकृति का सौन्दर्य मनुष्य ऐसे भावलोक में पहुँचा देता है, जहाँ वह तन्मय आनन्द की अनुभूति प्राप्त कर द्वैत को भूल जाता है। इस अनुभूति ने उसके संवेदनों का विस्तार भी किया है और संस्कार भी। उसकी सभी कलाओं और साहित्य में प्रकृति का विविध रूपों में सहयोग है। दर्शन में जिस सर्वात्मवाद को बुद्धि की प्रक्रिया ने स्थापित किया, काव्य ने उसको आधार बनाकर मानो हर तृण के मुख में वाणी रख दी। काव्य में प्रकृति ने नवीन रूपात्मकता के साथ जो चेतना पाई, उसने मानव जाति में उसे ऐसे सम्मिलित कर लिया कि वह अकेली रही, न मनुष्य। इस घनिष्ठ सम्बन्ध से और मनोरोगों से दोनों समृद्ध हुए।

वैदिक ऋषि केवल उषा के सौन्दर्य, मरुत के वेग, वरुण की असीमता पर ही मुग्ध नहीं होता, वह अरण्यानी अर्थात् प्रकृति की ग्राम से दूरी का अनुभव करके भी वियोग से व्याकुल हो जाता हैः

 

अरण्यान्रण्यान्सौ या प्रेवनश्यति।
कथं ग्रामं न प्रच्छसि न त्वा भीरिवविन्दति।

 

(हे अरण्यानी (वप प्रकृति) तुम हमारी दृष्टि से कैसे तिरोहित हो जाती हो, इतनी दूर चली जाती हो कि हम तुम्हें देख नहीं पाते। तुम ग्राम जाने का मार्ग क्यों नहीं पूछती हो ? क्या (हमसे दूर) अकेले रहने में भय की अनुभूति नहीं होती ?)
यदि न बताया जाए तो यह विरहकुल प्रतिवेदन ही माना जा सकता है। इस दृष्टि ने भारत की धरती और प्रकृति को मनुष्य जीवन का ऐसा सजीव संगी बना दिया है, जिसके बिना वह अद्भुत अकेलेपन का अनुभव करता है। समग्र काव्यशास्त्र अलंकार-योजना आदि मानो प्रकृति का स्तवन ही हो गया है। लोक-साहित्य में यह प्रवृति और भी मुखर है।
किसी सुदूर अतीत युग की घोषणा ‘पश्यदेवस्य काव्यं नममार न जीयति’ (देव का काव्य (सृष्टि) देखों, जो न कभी मरता है, जीर्ण होता है) सदा चिरनूतन रहने वाली प्रकृति का जयघोष ही है, जिसका साक्षात्कार मनुष्य के हर क्षण को नवीनतम का बोध देकर आनन्द से भर देता है।

काव्य में प्रकृति के सहयोग की कथा कालजयी कथा है, जिसे आज का निर्मम बुद्धिवाद अब तक भुला नहीं पाया। कदाचित् भुलाने का प्रयास मनुष्य को एकांगी बनाकर उससे आनन्द-उल्लास के मूल्यवान क्षण छीन लेगा। किसी भी वैज्ञानिक का बुद्धिवाद उस उल्लास के क्षण को नहीं रोक पाता, जो ओस बिन्दुओं से सजे किरणों से धुले खिले फूल को देखकर उसे होता है। मेरे विचार में तो यही क्षण उसे फूल के तात्त्विक विश्लेषण की शक्ति देता है। अन्यथा विश्लेष्य, विश्लेषक तथा विश्लेषण सब इतने तान्त्रिक हो जावें कि वह इसे झेल न सके।
अन्तरिक्ष यात्रा के जाने वाले वैज्ञानिकों ने बादलों की रंगीनी, नक्षत्रों का सौन्दर्य तथा ऊपर से देखे हुए हिमालय, धरती आदि का जैसा रागात्मक वर्णन किया गया है, उसे जानकर एक नवीन संवेगजनित उल्लास का परिचय मिलता है। उसकी यात्राओं को इसी छवि ने सह्य बनया है। काव्यानन्द इस सौन्दर्य का नेत्रोत्सव है, जिनके बिना मनुष्य का जीवन अपंग हो जाएगा।

गीत में प्रकृति चेतना-सम्पन्न संगिनी के रूप में अधिक आती है, पर प्रकृति के वस्तुपरक रूप का भी कथा-काव्य में सजग उपयोग हो जाता है। वैसे काव्य ने बिम्ब, प्रतीक, अलंकार आदि में उसे विविध रूपात्मक स्थिति दे दी है और उसके विषय में अनेक शास्त्रों की रचना कर डाली है।

मेरे गीतों में प्रकृति मेरी भावानुकृति बनकर ही आ सकती थी, पर उसके सम्बन्ध में कुछ कहना मेरे लिए सहज नहीं। शब्द संकेत लौकिक पृष्ठभूमि में बनते हैं, अतः अलौकिक संवेगों की अभिव्यक्ति भी लौकिक शब्द प्रतीकों में ही सम्भव है केवल अलौकिक संवेदन के भवपत्र में प्रकृति के व्यापक रूप का फैलाव अधिक मिलेगा। जिन साधक कवियों ने प्रकृति को माया माना, उन्होंने भी उसकी निन्दा के लिए उसे अपने इष्ट के व्यापक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति माना वे भी उसे जड़ नहीं मान सकते थे। इस प्रकार वैदिक काल की अरण्यानी आज भी उसे जड़ नहीं मान सकते थे। इस प्रकार वैदिक काल की अरण्यानी आज भी चेतना सम्पन्न है और बढ़ते विज्ञान के साथ पग मिलाकर चल सकेगी।
प्रयाग 10 अक्तूबर, 1983

 

नये घन

 

 

लाये कौन सँदेश नये घन !
अम्बर गर्वित
हो आया नत,
चिर निस्पन्द हृदय में उसके
उमड़े री पलकों के सावन !

लाये कौन सँदेश नये घन !

चौंकी निद्रित,
रजनी अलसित
श्यामल पुलकित कम्पित कर में
दमक उठे विद्युत् के कंकण !
लाये कौन सँदेश नये घन !

दिशि का चंचल,
परिमल- अंचल,
छिन्न हार से बिखर पड़े सखि !
जुगनू के लघु हीरक के कण !
लाये कौन सँदेश नये घन !

जड़ जग स्पन्दित,
निश्चल कम्पित,
फूट पड़े अवनी के संचित
सपने मृदुतम अंकुर बन बन !
लाये कौन सँदेश नये घन !
 
रोया चातक,
सकुचाया पिक,
मत्त मयूरों ने सूने में
झड़ियों का दुहराया नर्तन !
लाये कौन सँदेश नये घन !

सुख-दुख से भर,
आया लघु उर,
मोती से उजले जलकण से
छाये मेरे विस्मित लोचन !
लाये कौन सँदेश नये घन !

 

यह संध्या फूली

 

 

यह संध्या फूली सजीली !
आज बुलाती हैं विहगों को नीड़ें बिन बोले;
रजनी ने नीलम-मन्दिर के वातायन खोले;

एक सुनहली उर्म्मि क्षितिज से टकराई बिखरी,
तम ने बढ़कर बीन लिए, वे लघु कण बिन तोले !

अनिल ने मधु-मदिरा पी ली !

मुरझाया वह कंज बना जो मोती का दोना,
 पाया जिसने प्रात उसी को है अब कुछ खोना;

आज सुनहली रेणु मली सस्मित गोधूली ने; रजनीगंधा आँज रही है नयनों में सोना !

 

हुई विद्रुम बेला नीली !

 

 

मेरी चितवन खींच गगन के कितने रँग लाई !
शतरंगों के इन्द्रधनुष-सी स्मृति उर में छाई;
राग-विरागों के दोनों तट मेरे प्राणों में,
श्वासें छूतीं एक, अगर निःश्वासें छू आईं !

अधर सस्मित पलकें गीली !

भाती तम की मुक्ति नहीं, प्रिय रोगों का बन्धन;
उड़ कर फिर लौट रहे हैं लघु उर में स्पन्दन;

क्या जीने का मर्म यहाँ मिट मिट सब ने जाना ?
तर जाने को मृत्यु कहा क्यों बहने को जीवन ?

 

सृष्टि मिटने पर गर्वीली !

 

 

रश्मि
चुभते ही तेरा अरुण बान !
बहते कन-कन से फूट-फूट,
मधु के निर्झर से सजग गान !

इन कनक-रश्मियों में अथाह;
लेता हिलोर तम-सिंधु जाग;
बुदबुद् से बह चलते अपार,
उसमें विहगों के मधुर राग;
बनती प्रवाल का मृदुल कूल,
जो क्षितिज-रेख थी कुहर-म्लान !

नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,
बन गए इन्द्रधनुषी वितान;
दे मृदु कलियों की चटख, ताल,
हिम-बिन्दु नचाती तरल प्राण;
धो स्वर्ण-प्रात में तिमिर-गात,
दुहराते अलि निशि-मूक तान !
सौरभ का फैला केश-जाल ,
करतीं समीर-परियाँ विहार;
गीली केसर-मद झूम झूम,
पीते तितिली के नव कुमार;
मर्मर का मधु संगीत छेड़-
देते हैं हिल पल्लव अजान !

फैला अपने मृदु स्वप्न-पंख,
उड़ गई नींद-निशि-क्षितिज-पार;
अधखुले दृगों के कज-कोष-
पर छाया विस्मृति का खुमार;
रँग रहा हृदय ले अश्रु-हास,
यह चतुर चितेरा सुधि-विहान !

 

मुरझाया फूल

 

 

था कली के रूप शैशव-
में अहो सूखे सुमन,
मुस्कराता था, खिलाती
अंक में तुझको पवन !

खिल गया जब पूर्ण तू-
मंजुल सुकोमल पुष्पवर,
लुब्ध मधु के हेतु मँडराते
लगे आने भ्रमर !

स्निग्ध किरणें चन्द्र की-
तुझको हँसाती थीं सदा,
रात तुझ पर वारती थी
मोतियों की सम्पदा !   

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