लोगों की राय

कहानी संग्रह >> दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ

दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ

जगदीश चन्द्र जैन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1238
आईएसबीएन :9789326351331

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

328 पाठक हैं

प्रस्तुत है 65 लघु कहानियों का संग्रह....

Do Hajar Versh Purani Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राचीन भारतीय साहित्य-लोक-कथाओं का एक अक्षय भण्डार है। कथा के माध्यम से जीवन और जगत् की सम्पूर्ण जानकारी तथा मानव जीवन को उन्नत बनाने की शिक्षा प्राचीन साहित्य की विशेषता रही है। ये इतनी समर्थ, ऐसी मर्म-छूती, सहज और स्वाभाविक कथा-कहानियाँ हैं, कि युगों तक मानव को इनसे प्रेरणा मिलती रही है और आज भी वे अपने सामाजिक सन्दर्भों में उतनी ही सक्षम है।
प्रस्तुत संग्रह में डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने प्राचीन जैन वाङ्मय से चुनकर ऐसी ही 65 लघु कहानियाँ दी हैं-सबकी सब बहुत ही मनोरंजक और बुद्धिवर्धक। ये कहानियाँ उन्होंने बडे़ ही सहज ढंग से लिखी है, और इसलिए ये बड़ी ही सरस, सुबोध और सहज पाठ्य बन पड़ी हैं। कहीं कोई दुरूहता नहीं। हिंदी का सर्वसाधारण पाठक भी इन्हें पढ़कर भरपूर आनन्द ले सकता है।
प्रस्तुत है कृति का यह नवीन संस्करण, नये रूप-आकार में।

भूमिका

मेरे मित्र डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, एम.ए., पी-एच.डी. ने प्राचीन जैन साहित्य से चुनकर मनोरंजक कहानियाँ संग्रह की हैं। यद्यपि ये कहानियाँ जैन परम्परा से ली गयी हैं, तथापि वे केवल जैन साहित्य तक ही सीमित नहीं हैं, ब्राह्मण और बौद्ध ग्रंथो में भी ये कहानियाँ किसी-न-किसी रूप में मिल जाती हैं। सच तो यह है कि ये चिरन्तन भारती चित्त की उपज हैं। कहानियों के पढ़ने वाले प्रत्येक सहृदय पाठक को लगेगा कि ये कहानियाँ किसी सम्प्रदाय विशेष की वस्तु नहीं हैं, बल्कि इनके भीतर सार्वभौम मनुष्य का चित्र ही प्रकट हुआ है। बहुत-से देशी और विदेशी विद्वान मानते हैं कि संसार में आज जितनी भी लोकरंजक कहानियाँ प्रचलित हैं, उनका मूल उद्गम भारतवर्ष ही है। यह बात सत्य भी हो सकती है और कुछ अतिरंजित भी हो सकती है। परन्तु इतना सत्य है कि भारत वर्ष से कहानियाँ संसार में गयीं हैं। कहानियों के द्वारा इस देश में नीति, भक्ति, धर्म और ज्ञान-विज्ञान को प्रचारित करने का काम लिया गया है।

जैन साहित्य बहुत विशाल है। अधिकांश में वह धार्मिक साहित्य ही है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में यह साहित्य लिखा गया है। ब्राह्मण और बौद्ध-शास्त्रों की जितनी चर्चा हुई है अभी तक उतनी चर्चा इस साहित्य की नहीं हुई है। बहुत थोड़े ही पण्डितों ने ही इस गहन साहित्य में प्रवेश करने का साहस किया है। डॉ. जगदीशचन्द्र जी ऐसे विद्वानों में से हैं। इन कहानियों को नाना स्थानों से संग्रह करने में उन्हें जो कठिन परिश्रम करना पड़ा होगा, वह सहज ही समझा जा सकता है।

संगृहीत कहानियाँ बड़ी सरस हैं। डॉ. जैन ने इन कहानियों को बड़े सहज ढंग से लिखा है, इसलिए ये बहुत सहज पाठ्य हो गयीं हैं। इन कहानियों में कहानीपन की मात्रा बड़ी अधिक है कि हजारों वर्ष से, न जाने कितने कहने वालों ने इन्हें कितने ढंग से और कितने प्रकार की भाषा में कहा है, फिर भी इनका रस-बोध ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। साधारणतः लोगों का विश्वास है कि जैन साहित्य बहुत नीरस है। इन कहानियों को चुनकर डॉ. जैन ने दिखा दिया है कि जैन आचार्य भी अपने गहन तत्वों-विचारों को सरस करके कहने में अपने ब्राह्मण और बौद्ध साथियों से किसी प्रकार पीछे नहीं रहे हैं। सही बात तो यह है कि जैन पण्डित ने अनेक कथा और प्रबन्ध की पुस्तकें बड़ी सहज भाषा में लिखी गयी हैं। डॉ. जैन का यह प्रयत्न बहुत सुन्दर जान बन पड़ा है। मुझे पूर्ण आशा है कि वे अन्यान्य पाण्डित्यपूर्ण निबन्धों के साथ-ही-साथ ऐसे सहज और साधारण जन के लिए सुलभ साहित्य का निर्माण बराबर करते रहेंगे।

हजारीप्रसाद द्विवेदी

प्रास्ताविक


प्राचीनकाल से ही कहानी साहित्य का जीवन में बहुत ऊँचा स्थान रहा है। ऋग्वेद, ब्राह्मण, उपनिषद, महाभारत, रामायण आदि वैदिक ग्रन्थों में अनेक शिक्षाप्रद आख्यान उपलब्ध होते हैं, जिनके द्वारा मनुष्य जीवन को ऊँचा उठाने का यत्न किया गया है। परन्तु इन कथा-कहानियों का सबसे समृद्ध कोष है–बौद्धों की जातक कथाएँ। सीलोन, वर्मा आदि प्रदेशों में ये कथाएँ इतनी लोकप्रिय हैं कि वहाँ के निवासी आज भी इन कथाओं को रात-रात भर बैठकर बड़े चाव से सुनते हैं। इन कथाओं में बुद्ध के पूर्वजन्म की घटनाओं का वर्णन है, और इनके दृश्य साँची, भरहुत आदि के स्तूपों की भित्तियाँ भी अंकित हैं, जिनका समय ईसा के पूर्व दूसरी शताब्दी माना जाता है। जातक कहानियाँ ईसा के पूर्व पाँचवी शताब्दी के पहले से ही लेकर ईसा के बाद की प्रथम या द्वितीय शताब्दी तक रची गयी हैं, तथा इनमें अनेक कहानियाँ महाभारत और रामायण में विकसित रूप से पायी गयीं हैं।

प्राचीन काल में जो लोक-कथाएँ भारतवर्ष में प्रचलित थीं, उन्हें ब्राह्मण बौद्ध और जैनों ने अपने-अपने धर्मग्रन्थों में स्थान देकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया। उदाहरण के लिए, रोहिणी जातक (भाग 1, नं. 45) में रोहिणी नामक दासी की कथा आती है, जिसने अपनी माँ की सिर की मक्खियाँ उड़ाते समय उसे मूसल से मार डाला। सीहचम्म जातक (भाग-2, नं. 189) में सिंहचर्म से आच्छादित गीदड़ की कथा आती है, जिसका शब्द सुनकर उसे किसान ने मार डाला। कूटिदूसक जातक (भाग-3, नं. 321) में सिंगिल पक्षी की और बन्दर की कहानी आती है, जिसमें बन्दर ने सिंगिल पक्षी का घोंसला तोड़कर नष्ट कर डाला। महाउम्मग्ग जातक (भाग-5, 546) में कुमार महोसध की बुद्धिमत्ता-सूचक अनेक आख्यान आते हैं। ये सब लोककथाएँ देश-विदेश में भिन्न-भिन्न रूप में पायी जाती हैं।

प्रस्तुत संग्रह में संकलित ‘चावल के पाँच दाने’, ‘बिना विचारे करने का फल’, ‘छोटों के बड़े काम’, ‘भिखारी का सपना’, ‘चतु रोहक’ आदि-कथाएँ कुछ रूपान्तर के साथ सर्वसाधारण में प्रचलित हैं, जिनका किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्ध नहीं है। ये लोककथाएँ भारत वर्ष में पंचतंत्र, हितोपदेश, कथासरित्सागर, शुकसप्तति,
--------------------------------------------------
1.देखिए, भदन्त कौसल्यायन, जातक (प्रथम खण्ड)
की भूमिका, पृ. 24-27

सिंहासनद्वात्रिंशतिका, वेतालपंचविंशतिका आदि ग्रन्थों में पायी जाती हैं। तथा ‘ईसप’ की कहानियाँ‘, ‘अरेबियन नाइट्स की कहानियाँ’, ‘कलेला दमना की कहानी’ आदि के रूप में ग्रीस, रोम, अरब, फ़ारस, अफ्रीका आदि सुदूर देशों में भी पहुँची हैं। इन कथाओं का उदगम स्थान साधारणतया भारतवर्ष माना गया है, यद्यपि समय-समय पर अन्य देशों से भी देश-विदेश के यात्री बहुत-सी कथा-कहानियाँ अपने साथ लाते रहे हैं।1

बौद्धों के पालि साहित्य की तरह जैनों का प्रकृत साहित्य भी कथा-कहानियों का विपुल भण्डार है। बौद्ध भिक्षुओं की तरह जैन साधु भी अपने धर्म-प्रचार के लिए दूर-दूर देशों में विहार करते थे। ‘बृहत्कल्पभाष्य’ में जन-पद परीक्षा प्रकरण में बताया है कि जैन साधु आत्मशुद्धि के लिए दूसरों को धर्म स्थिर करने के लिए जनपद-विहार करें, तथा जनपद विहार करने वाले साधु को मगध, मालवा, महाराष्ट्र, लाट, कर्नाटक, द्रविड़, गौड़, विदर्भ आदि देशों की लोकभाषाओं में कुशल होना चाहिए, जिससे वह भिन्न-भिन्न देशों की भाषा में जन साधारण को उपदेश दे सकें। उसे देश-विदेश के रीति-रिवाजों का और आचार-विचार का ज्ञान होना चाहिए, जिससे उसे हास्यभाजन न बनना पड़े (1-1236, 1229-30, 1239)। ये श्रमण देश-देशान्तर में परिभ्रमण करते हुए लोककथाओं द्वारा लोगों को सदाचार का उपदेश देते थे, जिससे कथा-साहित्य की पर्याप्त अभिवृद्धि हुई है।

आगम-साहित्य की प्राचीनता

जैन-साहित्य का प्राचीनतम भाग ‘आगम’ के नाम से कहा जाता है। ये आगम 46 हैं-
12 अंग : आयारंग, सूयगडं, ठाणांग, समवायांग, भगवती, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, पण्हवागरण, विवागसुय, दिठ्ठवाय।
12 उपांग : ओवाइय, रायपसेणिय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरियपन्नति, जम्बुद्दीवपन्नति, निरयावलि, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फचूलिया, वण्हिदसा।
10 पइन्ना : चउसरण, आउरपचक्खाण, भत्तपरिन्ना, संथर, तंदुलवेयालिय, चंदविज्झय, देविंदत्थव, गणिविज्जा, महापंचक्खाण, वोरत्थव।
----------------------------------------------------
1.देखिए, टी. डब्लू. राइस डैविड्रस की ‘बुद्धिस्ट बर्थ स्टोरीज़’ की भूमिका, विण्टरनीज़ की ‘हिस्ट्री ऑव इण्डियन लिटरेचर’, भाग 2,पृ.126, 131, 154; विण्टरनीज़ की ‘सम प्रॉब्लम ऑव इण्डियन लिट्रेचर’, पृ.59-81

6 छेदसूत्र : निसीह, महानिसीह, ववहार, आचारदसा, कप्प (बृहत्कल्प), पंचकप्प।
4 मूलसूत्र : उत्तरज्झयण, आवस्सय, दसवेयालिय, पिंडनिज्जुति। नंदि और अनुयोग।

आगम ग्रन्थ काफी प्राचीन है, तथा जो स्थान वैदिक साहित्य क्षेत्र में वेद और बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का है, वही स्थान जैन साहित्य में आगमों का है। आगम ग्रन्थों में महावीर के उपदेशों तथा जैन संस्कृति से सम्बन्ध रखने वाली अनेक कथा-कहानियों का संकलन है।

जैन परम्परा के अनुसार महावीर निर्वाण (ईसवी सन् के पूर्व 527) के 160 वर्ष पश्चात (लगभग ईसवी सन् के 367 पूर्व) मगध देशों में बहुत भारी दुष्काल पड़ा, जिसके फलस्वरूप जैन भिक्षुओं को अन्यत्र विहार करना पड़ा। दुष्काल समाप्त हो जाने पर श्रमण पाटलिपुत्र (पटना) में एकत्रित हुए और यहाँ खण्ड-खण्ड करके ग्यारह अंगों का संकलन किया गया, बारहवाँ अंग किसी को स्मरण नहीं था, इसलिए उसका संकलन न किया जा सका। इस सम्मेलन को पाटलिपुत्र-वाचना के नाम से कहा जाता है। कुछ समय पश्चात जब आगम साहित्य का फिर विच्छेद होने लगा तो महावीर निर्वाण के 827 या 840 वर्ष बाद (ईसवी सन् के 300-313 में) जैन साधुओं के दूसरे सम्मेलन हुए। एक आर्यस्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में तथा दूसरा नागार्जुन सूरि की अध्यक्षता में वलभी में।

मथुरा के सम्मेलन को माथुरी-वाचना के नाम से कहा जाता है। तत्पश्चात लगभग 150 वर्ष बाद, महावीर निर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद ( ईसवी सन् 453-466 में) वलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में साधुओं का चौथा सम्मेलन हुआ, जिसमें सुव्यवस्थित रूप से आगमों का अन्तिम बार संकलन किया गया। से वलभी-वाचना के नाम से कहा जाता है। वर्तमान आगम इसी संकलना का रूप है।
जैने आगमों की उक्त तीन संकलनाओं के इतिहास से पता लगता है कि समय-समय पर आगम साहित्य को काफी क्षति उठानी पड़ी, और यह साहित्य अपने मौलिक रूप में सुरक्षित नहीं रह सका। यही कारण मालूम होता है कि बौद्धों के विपुल साहित्य के मुकाबले यह साहित्य बहुत न्यून है, तथा इस साहित्य में विकार आ जाने से ही सम्भवतः दिगम्बर सम्प्रदाय ने इसे मानना अस्वीकार कर दिया। जो कुछ भी हो, इस समय तो जैनों के पास यही निधि अवशेष है जिसके सहारे जैन संस्कृति का ढाँचा तैयार किया जा सकता है। इन नष्ट-भ्रष्ट, छिन्न-विछिन्न आगम ग्रन्थों में अब भी ऐतिहासिक और अर्ध ऐतिहासिक इतनी विपुल सामग्री है कि उसके आधार पर भारत के प्राचीन इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय लिखा जा सकता है।

ईसा के पूर्व लगभग चौथी शताब्दी से लगाकर ईसवी सन् पाँचवी शताब्दी तक की भारत वर्ष की आर्थिक तथा सामाजिक दशा का चित्रण करने वाला यह साहित्य अनेक दृष्टियों से महत्त्व का है। आयारंग, सूयगडं, उत्तरज्झयण, दसवेयालिय आदि ग्रन्थों में जो जैन भिक्षुओं के आचार-विचारों का विस्तृत वर्णन है, वह बौद्ध को धम्मपद, सुत्तानिपात तथा महाभारत (शान्तिपर्व) आदि ग्रन्थों से बहुत अंशों में मेल खाता है, और डॉ. विण्टरनीज आदि विद्वानों के कथानानुसार वह श्रमण-काव्य (Ascetic poetry) का प्रतीक है। भाषा और विषय आदि की दृष्टि से जैन आगमों का यह भाग सबसे प्राचीन मालूम होता है।

भगवती कल्पसूत्र, ओवाइय, ठाणांग, निरयावलि आदि ग्रन्थों में श्रमण भगवान् महावीर, उनकी चर्या, उनके उपदेशों तथा तत्कालीन राजा, राजकुमार और उनके युद्ध आदि का विस्तृत वर्णन है, जिससे जैन इतिहास की लुप्तप्राय अनेक अनुश्रुतियों का पता लगता है। नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अन्तगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, विवागसुय आदि ग्रन्थों में महावीर द्वारा कही हुई अनेक कथा-कहानियाँ तथा उनकी शिष्य-शिष्याओं का वर्णन है, जिसमें जैन परम्परा सम्बन्धी अनेक बातों का परिचय मिलता है। रायपणेसिय, जीवाभिगम, पन्नवणा आदि ग्रन्थों में वास्तुशास्त्र, संगीत, वनस्पति आदि सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण विषयों का वर्णन है जो प्रायः अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है।

छेदसूत्रों में साधुओं के आहार-विहार तथा प्रायश्चित आदि का विस्तृत वर्णन है, जिसकी तुलना बौद्धों के विनय पटिक से की सकती है। वृहत्कल्पसूत्र (1-50) में बताया गया है कि जब महावीर साकेत (अयोध्या) सुभुमिभाग नामक उद्यान में विहार करते थे तो उस समय उन्होंने अपने भिक्षु-भिक्षुणियों को साकेत के पूर्व में अंग-मगध तक दक्षइ के कौशाम्बी तक, तथा उत्तर में कुणाला (उत्तरोसल) तक विहार करने की अनुमति दी। इससे पता लगता है कि आरम्भ में जैन धर्म का प्रचार सीमित था, तथा जैन श्रमण मगध और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों को छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकते थे। निस्सन्देह छेदसूत्रों का यह भाग उतना ही प्राचीन है जितने स्वयं महावीर।

तत्पश्चात राजा कनिष्क के समकालीन मथुरा के जैन शिलालेखों में भिन्न-भिन्न गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है, वह भद्रवाहु के कल्प सूत्र में वर्णित गण, कुल और शाखाओं के साथ प्रायः मेल खाता है। इससे भी जैन आगम ग्रन्थों की प्रामाणिकता का पता चलता है। वस्तुः इस समय तक जैन परम्परा में श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद नहीं मालूम होता। जैन आगमों के विषय, भाषा आदि में जो पालि त्रिपिटक से समानता है, वह भी इस साहित्य की प्राचीनता को द्योतित करती है।

पालि-सूत्रों की अट्टकथाओं की तरह आगमों की भी अनेक टीका-टिप्पणियाँ, दीपिका, निवृत्ति, विवरण, अवचूरि आदि लिखी गयी हैं। इस साहित्य को सामान्यता निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका-इन चार विभागों में विभक्त किया जा सकता है, आगम को मिलाकर इसे पांचांगी के नाम से कहते हैं। आगम साहित्य की तरह यह साहित्य भी बहुत महत्त्व का है। इसमें आगमों के विषय का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है इस साहित्य में अनेक अनुश्रुतियाँ सुरक्षित हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकटीका, उत्तराध्ययन टीका आदि टीका-ग्रन्थों में पुरातत्व सम्बन्धी विविध सामग्री भरी पड़ी है, जिससे भारत के रीति-रिवाज, मेले त्यौहार, साधु-सम्प्रदाय, दुष्काल, बाढ़, चोर-लुटेरे, सार्थवाह, व्यापार के मार्ग, शिल्प, कला, भोजन-शास्त्र, मकान, आभूषण, आदि विविध विषयों पर बहुत प्रकाश पड़ता है।

लोक-कथा और भाषा शास्त्र की दृष्टि से भी यह साहित्य बहुत महत्त्व का है। डॉ. विण्टरनीज के शब्दों में-‘जैन टीका-ग्रन्थों में भारतीय प्राचीन-कथा साहित्य के अनेक उज्वल रत्न विद्यामान हैं, जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते।’’
चूर्णि-साहित्य में प्राकृत मिश्रित संस्कृत का उपयोग किया गया है, जो भाषा शास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है, और साथ यह उस महत्त्वपूर्ण काल का द्योतक है जैन विद्वान प्राकृत का आश्रय छोड़कर संस्कत भाषा की ओर बढ़ रहे थे। प्रस्तुत संग्रह की कहानियाँ अधिकतर इसी टीका साहित्य में से ली गयी हैं।

प्रस्तुत कहानी-संग्रह

प्रस्तुत कहानी-संग्रह को तीन भागों में विभक्त किया गया है-लौकिक ऐतिहासिक और धार्मिक। पहले भाग में 36, दूसरे भाग में 15 और तीसरे भाग में 14 कहानियाँ हैं।
लौकिक कथाओं में उन लोक-प्रचलित कथाओं का संग्रह है जो भारत में बहुत प्राचीन काल से चली आ रही हैं, और जिनका किसी सम्प्रदाय और धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस विभाग में दो कहानियाँ ‘नायाधम्मकहा’ (ज्ञातृधर्मकथा) में से ली गयी हैं। इन कहानियों में ‘चावल के पाँच दाने’ (नायाधम्म 7) कहानी कुछ रूपान्तर के सात मूल सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु (पृ.62) तथा बाइबिल (सेण्ट मैथ्यू की सुवार्ता 25, सेण्ट ल्यूक की सुवार्ता 19) में भी आती है। ‘माकन्दीपुत्रों की कहानी’ (नायाधम्म 9) काल्पनिक प्रतीत होने पर भी हृदयग्राही तथा शिक्षाप्रद हैं। इस प्रकार के लौकिक आख्यानों द्वारा भगवान महावीर संयम की कठोरता और अनासक्ति भाव का उपदेश देते थे। यह कथा कुछ रूपान्तर के साथ वलाहस्त जातक (सं. 196) तथा दिव्यावदान में उपलब्ध होती है।
--------------------------------------------------
1.हिस्ट्री ऑव इंडियन लिट्रेचर, भाग 2, पृ. 487

तत्पाश्चात दस कहानियाँ भाष्य-साहित्य (ईसवी सन् लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी) बृहत्कल्प और व्यवहार भाष्य तथा उनकी टीकाओं से ली गयी हैं। ये दोनों भाष्य भाषा तथा विषय सामग्री की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ‘बिना विचारे करने का फल’ (बृहकल्पभाष्यवृत्ति, पीठिका पृ. 56) ‘घण्टीवाला गीदड़’ (वही, पृ.221), ‘कपट का फल’ (वही, उद्देश-1, पृ.909) ‘बन्दर और बया’ (बही, पृ.909-10) ‘छोटों के बड़े काम’ (व्यवहारभाष्यवृत्ति उद्देश-3,पृ.7-अ), ‘भिखारी का सपना’ (वही, पृ. 8-अ), नाम कहानियाँ लोककथाओं के रूप में सर्वसाधारण में प्रचलित हैं। इनमें ‘बिना विचारे करने का फल’ हितोपदेश में ‘घण्टीवाला गीदड़’ तथा ‘बन्दर और बया’ कुछ रूपान्तर के साथ कृम में दद्दभजातक (भाग-3, नं.322), तथा कटिदूसक जातक (नं. 321) और पंचतंत्र में पायी जाती हैं। ‘कपट का फल’ हितोपदेश और पंचतंत्र में ‘छोटों के बड़े काम’ कथासरित्सागर (पृ. 311) शुकसप्तति (31) और कुछ रूपान्तर के साथ निग्रोधजातक में, ‘भिखारी का सपना’ कहानी कुछ भिन्न रूप से धम्मपद अट्ठकथा (1, पृ. 302), पंचतंत्र और तन्त्राख्यायिका में आती हैं।

इनमें ‘वैद्यराज या यमराज’, ‘तीनों में कौन अच्छा’, ‘सच्चा भक्त’ और ‘काम सच्ची उपासना है’ कहानियाँ बड़ी हृदयग्राही और शिक्षाप्रद हैं।
इसके बाद पन्द्रह कहानियाँ चूर्णि साहित्य-आवश्यकचूर्णि (ईसवी सन् की 17वीं शताब्दी) और दशवैकालिकचूर्णि से ली गयी हैं। इनमें लालची गीदड़’ (आवश्यकचूर्णि, पृ. 168-9), ‘कुंजड़ा और धूर्त ’ (वही, पृ. 546), ‘पुरोहित की नीयत’ (वही, पृ. 550), ‘पढ़ों और गुनो भी’ (वही, पृ. 553), ‘बुढ़िया और उसकी पड़ोसिन’ (दशवैकालिकचूर्णि, पृ. 98), और गीदड़ की राजनीति’ (वही, पृ .104-5) नाम लोक-कथाओं में से अनेक कहानियाँ पंचतंत्र, हितोपदेश आदि कथाग्रन्थों में पायी जाती हैं। इनमें ‘लालची गीदड़’ कथासरित्सागर (पृ. 318) तथा मूल सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु (पृ. 121-22) में आती है, यहाँ लालची गीदड़ की तुलना भिक्षु से की गयी है। ‘अपना-अपना पुरुषार्थ’ (दशवैकालिकचूर्णि, पृ. 103-4) का कुछ भाग महाउम्मग जातक (भाग 6, नं. 546) तथा मूलसर्वास्तिवाद के विनयवस्तु (पृ. 65) में पाया जाता है। ‘पढ़ो और गुनो भी’ का रूपान्तर मूलसर्वास्तिवाद के विनयवस्तु पृ. 29-30) में मिलता है, जहाँ चतुर शिष्य का काम बिम्बसार का पुत्र जीवक करता है।

इस विभाग की कई कहानियाँ पहेली-साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व की हैं। ‘पण्डित कौन’ (आवश्यकचूर्णि, पृ. 422-26), ‘चतुर रोहक’ (वही, पृ. 544-46), ‘राजा का न्याय’ (वही, पृ. 555-56), ‘चतुराई का मूल्य’ (वही, 2, पृ. 57-60) नामक कहानियाँ अत्यन्त मनोरंजक और कल्पनाशक्ति की परिचायक हैं। इनमें से अनेक कहानियाँ आजकल बीरबल और अकबर की कहानियों के नाम से प्रचलित हैं। ‘चतुर रोहक’ का कुछ भाग महाउम्मगजातक में पाया जाता है, जहाँ रोहक का नाम महोसध नामक मन्त्री करता है। ‘पण्डित कौन ?’ का कुछ भाग रूपान्तर के साथ शुकसप्तति (28) में आता है। ‘चतुराई का मूल्य’ अरेबियन नाइट्स के शहजादे के ढंग की कहानी है। शहजादे की तरह कनकमंजरी भी हर रात को एक कहानी कहती है। ‘राजा का न्याय’ कुछ साधारण रूपान्तर के साथ जातक (नं. 257) में मिलती है। ‘दो मित्रों की कहानी’ (आवश्यकचूर्णि, पृ. 551), कथासरित्सागर (पृ. 315), शुकसप्तति (39) तथा कुछ रूपान्तर के साथ कुटवाणिज जातक और पंचतंत्र में पायी जाती है। ‘कोक्कास बढ़ई’ (आवश्यकचूर्णि, पृ.540-41) से उस काल की शिल्प कला पर प्रकाश पड़ता है।

अन्य लौकिक कहानियों में ‘घोड़ों का सईस’ (आवश्यकचूर्णि, पृ.554), ‘सच्चा प्रेम’ (वही, पृ. 554-55), ‘मम्मण वणिक्’ (मलयगिरि, आवश्यकटीका, पृ.515), ‘वृद्धजनों का मूल्य’ (वही, पृ. 523-अ), ‘तीन मन्त्रवादी’ (नेमिचन्द्र उत्तराध्ययन टीका, पृ. 5-5 अ), ‘अट्टणमल्ल’ (वहीं. पृ.87 अ-79), ‘विद्या का घड़ा’ (वही, पृ. 110 अ-111), ‘वणिकपुत्रों की कहानी’ (वही, पृ. 119-119 अ), ‘स्त्रीदासों की कहानी’ (पिण्डनिर्युक्ति, पृ. 461-73), ‘कृतघ्न कौए’ (वसुदेवहिण्डी, पृ. 33), और दो पायली सत्तू’ (वही, पृ. 57) उल्लेखनीय हैं। वसुदेवहिण्डी यद्यपि आगम-ग्रन्थों में नहीं आता, फिर भी यह काफ़ी प्राचीन है।
दूसरा भाग ऐतिहासिक कहानियों का है जिसमें 15 कहानियाँ हैं। इनमें ‘महावीर की प्रथम शिष्या चन्दनबाला’ (आवश्यकचूर्णि, पृ. 316-20), ‘कुशल मन्त्री अभयकुमार’ (वही, पृ. 159-63), ‘व्यवसायी कृतपुण्य’ (वही, पृ. 467-69), ‘रानी मृगावती’ (वही, पृ. 87-91), ‘राजा उद्रायण और प्रद्योत का युद्ध’ (वही, पृ. 399-4010, ‘श्रेणिक की मृत्यु’ (वही, 2, पृ. 166-72), ‘कूणिक और चेटक का महायुद्ध’ (वही, पृ. 172-74), ‘कल्पना की चतुराई’ (वही, पृ. 180-83), ‘चाणक्य की कूटनीति’ (वही, पृ. 563-65), ‘राजा शालिवाहन और नभोवाहन’ (वही, 2, पृ. 200-201) नामक दस कहानियाँ आवश्यचूर्णि में से, रानी चेलना का सतीत्व’ (बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति पीठिका, पृ. 57-58), और ‘अशोक का पुत्र’ (वही, पृ. 88-89), (बृहत्कल्पभाष्यवृत्ति में से, ‘राजा प्रद्योत और मदनमंजरी’ (उत्तराध्ययनटीका, पृ. 135), और ‘विक्रमराज मूलदेव’ (वही, पृ. 59-65) तथा ‘शकवंश की उत्पत्ति’ निशीथचूर्णि (10, पृ. 59) में से ली गयी है।

इन कहनियों का संकलन यथासम्भव ऐतिहासिक क्रम से किया गया है। महावीर और बुद्ध से समकालीन अनेक राजा-रानियों का उल्लेख प्राकृत और पालि साहित्य में आता है। जैनों ने इन राजाओं को जैन कहा है और बौद्धों ने बौद्ध। वस्तुतः राजाओं का कोई धर्मविशेष नहीं होता। वे प्रत्येक महानपुरुष की सेवा-उपासना करने में अपना धर्म समझते हैं। इसके अतिरिक्त, प्राचीनकाल में साम्प्रायिकता का वैसा जोर नहीं था जैसा हम उत्तरकाल में पाते हैं। इसलिए उस समय जो साधु-सन्त नगरी में पधारते थे, उनके आगमन को अपना अहोभाग्य समझकर नगर के नर-नारि उनके दर्शनार्थ जाते थे। ऐसी दशा में श्रेणिक (बिम्बिसार), कूणिक (अजातशत्रु) और चन्द्रगुप्त आदि राजाओं के विषय में सम्भवतः यह जानना कठिन है कि वे महावीर के विशेष अनुयायी थे या बुद्ध के।

जैन ग्रन्थों के अनुसार श्रेणिक और उसकी पटरानी चेलना श्रमण भगवान महावीर के परम उपासक थे। कूणिक चेलना का पुत्र था, जो अपने पिता को मारकर गद्दी पर बैठा था। अभयकुमार श्रेणिक का दूसरा पुत्र था जो एक कुशल राजमन्त्री था। अभयकुमार की बुद्धिमत्ता की अनेक कहानियाँ जैन ग्रन्थों में आती हैं। जैन-परम्परा में अभयकुमार ने श्रेणिक की मौजूदगी में महावीर के पास जाकर दीक्षा ली थी। बौद्धों के मूल सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु (पृ. 12-3) में भी अजात शत्रु को वैदेही चेला पुत्र बताया गया है। चेला वैशाली के सिंह सेनापति की पुत्री थी और राजा बिम्बिसार इसका अपहरण करके ले गया था। बौद्धों की दूसरी परम्परा में, बिम्बिसार की रानी का नाम कोसलादेवी बताया गया है, जो राजा प्रसेनजित् की बहन थी। पितृघातक अजातशत्रु उसी का पुत्र था, जिसका विस्तृत वर्णन दीर्धनिकाय की अट्टकथा में आता है। विनयवस्तु (पृ. 29-32) के अनुसार अभय राजकुमार आम्रपालि गणिका का पुत्र था जो राजा बिम्बिसार से पैदा हुआ था। बौद्धों की दूसरी परम्परा में, अभय राजकुमार को उज्जयिनी की पद्मावती नामक गणिका का पुत्र कहा है। बौद्धों के कथनानुसार पहले वह महावीर का भक्त था, बाद में बुद्ध का अनुयायी हो गया था।

श्रेणिक के समकालीन राजाओं में जैनग्रन्थों में चम्पा के राजा दधिवाहन, कौशाम्बी के राजा उदयन, उज्जयनी के राजा प्रद्योत और वीतिभय के राजा उद्रायण का उल्लेख मिलता है। इन राजाओं के साथ वैशाली के राजा चेटक ने, जो भगवान महावीर का मामा था, अपनी कन्याओं का विवाह किया था। उज्जयिनी का राजा बहुत क्रूर माना जाता था, इसलिए वह चन्डप्रद्योत के नाम से प्रख्यात था। उसने श्रेणिक, शतानीक, उद्रायण आदि राजाओं के साथ युद्ध किये थे। कूणिक और चेटक के युद्ध का विस्तृत वर्णन जैन ग्रन्थों में आता है। बौद्ध ग्रन्थों में प्रद्योत, उदयन और उद्रायण नामक राजाओं के उल्लेख मिलते हैं। प्रद्योत की कन्या वासवदत्ता का उदयन द्वारा अपहरण करके ले जाने का उल्लेख जैन, बौद्ध और ब्राह्मण तीनों के ग्रन्थों में आता है।

तत्पश्चात नन्द राजाओं का जिक्र आता है। जैन परम्परा के अनुसार कूणिक का पुत्र उदायी बिना किसी उत्तराधिकारी के गया। उस समय एक नापित पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा, और यह प्रथम नन्द कहलाया। नन्दों का नाश कर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को किस प्रकार पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठाया, इसका विस्तृत वर्णन आवश्यकचूर्णि तथा बौद्धों की महावंस टीका में आता है।

मौर्यवंश का वर्णन करते हुए वृहत्कल्पसूत्रभाष्य (1.3278) में कहा है कि जैसे जौ बीच में मोटा और दोनों ओर से पतला होता है, उसी प्रकार मौर्यवंश के विषय में समझना चाहिए। मौर्यवंश का प्रथम राजा चन्द्रगुप्त बल, वाहन आदि राजाविभूति में हीन था। उससे बड़ा बिन्दुसार, उससे बड़ा राजा अशोक तथा सबसे बड़ा राजा सम्प्रति था। सम्प्रति के पश्चात मौर्य वंश की दिन-पर-दिन अवनति होती गयी। जैन ग्रन्थों में अवन्तिपति सम्प्रति का अत्यन्त सम्मानपूर्वक उल्लेख करते हुए उसे जैन श्रमण संघ का महान प्रभावक बताया है। जैसा कहा जा चुका है, सम्प्रति राजा के पूर्व जैनधर्म का प्रचार मगध और संयुक्तप्रान्त के कुछ भाग तक ही सीमित था, परन्तु सम्प्रति ने आन्ध्र, द्रविड़, महाराष्ट्र, कुर्ग आदि देशों में इसका प्रचार किया। वस्तुतः जो स्थान बौद्ध धर्म में अशोक को प्राप्त है, वही सम्प्रत्ति को जैनधर्म में समझना चाहिए।
कुणाल के अन्धे होने की कथा दिव्यावदान आदि बौद्ध-ग्रन्थों में भी आती है, जहाँ उसकी सौतेली माँ का नाम तिष्यरक्षिता बताया गया है।

तत्पश्चात् उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल का जिक्र आता है। जैन परम्परा के अनुसार, ईरान के शाहों ने गर्दभिल्ल को हराकर उज्जयिनी में अपना राज्य कायम किया। उसेक बाद गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शाहों को हराकर फिर से उज्जयिनी पर अधिकार कर लिया। इसी समय से विक्रम् संवत् का आरम्भ हुआ माना जाता है। ईरान के दूसरे बादशाह नभोवाहन या नहपान का उल्लेख जैनग्रन्थों में आता है। नभोवाहन भरनयकच्छ (भड़ौंच) में राज्य करता था, और उसके पास अटूट धन था।

नभोवाहन और पइट्ठान (पैठन) के राजा शालिवाहन (शातवाहन) के युद्ध का उल्लेख आता है, जिसमें अन्त में शालिवाहन की विजय बतायी गई है। शालिवाहन के मंत्री के अपने राजा को छोड़कर नभोवाहन से जा मिलने-सम्बन्धी कूटनीति की तुलना अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार के लिच्छवियों से जा मिलने के साथ की जा सकती है।
अन्तिम कहानी ‘विक्रमराज मूलदेव’ की है। मूलदेव का उल्लेख कामशास्त्र में आता है। उसे स्तेयशास्त्र का प्रवर्तक कहकर धूर्तशिरोमणि के रूप में उसका उल्लेख किया गया है।

इन कहानियों से प्राचीन भारत की सामाजिक व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है। उस समय के सामन्त लोग विलासी होते थे, बहुपत्नीत्व प्रथा का चलन था, कूटनीति के दाँव-पेंच काम में लाये थे, महायुद्ध होते थे, राजा की आज्ञा न पालन करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था, कैदियों को बन्दीग्रह में कड़ी यातनाएँ भोगनी पड़ती थीं, सामन्त लोग छोटी-छोटी बातों पर लड़ बैठते थे। राजा यथासम्भव क्षत्रिय धर्म का पालन करते थे, शरणागत की रक्षा करना परम धर्म समझते थे, और निःशास्त्र पर हाथ उठाना क्षत्रियत्व का अपमान समझते थे। राजा और सेठ-साहूकार अतुल धन-सम्पत्ति के स्वामी होते थे। साधारणतया लोग खुशहाल थे, परन्तु दरिद्रता का अभाव नहीं था। दास-प्रथा मौजूद थी, ऋण आदि न चुका सकने के कारण दास-वृत्ति अंगीकर करनी पड़ती थी। स्त्रियों की दशा बहुत अच्छी नहीं थी, यद्यपि वे मेले उत्सव आदि अवसरों पर स्वतंत्रता पूर्वक बाहर आ-जा सकती थीं। वेश्याएँ नगरी की शोभा मानी जाती थीं, और राजा उनके सत्यबल की प्रशंसा करता था। व्यापार बहुत तरक्की पर था।

व्यापारी लोग दूर-दूर तक अपना माल लेकर बेचने जाते थे।
तीसरा विभाग धार्मिक है जिसमें 14 कहानियाँ हैं। इसमें ‘यक्ष या लकड़ी ठूँठ ?’ (अंतगड़दसाओ 6), ‘धूर्तराज मूलदेव और उनके साथी’ (निशीथचूर्णि, पीठिका), ‘मुनि आर्द्रककुमार का गृहत्याग’ (सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 415-16), ‘ऋषिकुमार वल्कलचीरी’ (आवश्यकचूर्णि, पृ. 456-60), ‘जिनदत्त का कौशल’ (वही. पृ. 531-32), ‘राजा करकण्डु’ (वही, 2-पृ. 204-7), ‘शम्ब की कील’ (बृहत्कल्प-भाष्यवृत्ति पीठिका, पृ.57), ‘शम्ब की वीरता’ (वही, पृ. 56-57), ‘रोहिणेय चोर’ (व्यवहारभाष्यवृत्ति 3, पृ. 67 अ), तथा ‘चाण्डाल-पुत्रों की कहानी’ (उत्तरध्ययनटीका, पृ. 185-97),’ द्वारका-दहन’ (वही, पृ. 36 अ-44), ‘कपिल मुनि’ (वही, पृ. 123 अ-25), ‘गंगा की उत्पत्ति’ (वही, पृ. 233 अ-36)) और ‘राजीमती की दृढ़ता’ (वही, पृ. 276-82) उत्तराध्ययनटीका में से ली गयी हैं। इन कहानियों में प्रायः श्रमण भगवान महावीर के निर्ग्रन्थ धर्म का प्रभाव प्रतिपादन किया गया है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book